श्रीकृष्ण का इन्द्रलोक जाकर अदिति को कुण्डल देना

महाभारत सभा पर्व के ‘अर्घाभिहरण पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 38 के अनुसार श्रीकृष्ण का इन्द्रलोक जाकर अदिति को कुण्डल देने की कथा का वर्णन इस प्रकार है[1]-

श्रीकृष्ण और बलराम का इन्द्रलोक जाना

भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर! सेवकों द्वारा उन सब रत्नों को तथा देवतओं एवं राजाओं आदि की कन्याओं को द्वारका भेज देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण ने उन उत्तम मणिपर्वत को शीघ्र ही गरुड़ी बाँह (पंख या पीठ) पर चढ़ा दिया।ै[1] केवल पर्वत ही नहीं,उस पर हरने वाले जो पक्षियों के समुदाय, हाथी, सर्प, मृग, नाग, बंदर, पत्थर, शिला, न्यंकु,वराह, रुरु मृग, झरने, बड़े-बड़े शिखर तथा विचत्र मोर आदि थे, उन सबके साथ मणिपर्वत को उखाड़ कर इन्द्र के छोटे भाई श्रीकृष्ण ने सब प्राणियों के देखते-देखते गरुड़ पर रख लिया। महाबली गरुड़ श्रीकृष्ण, बलराम तथा महाबलवान् इन्द्र को, उस अनुपम रत्नराशि तथा पर्वत को, वरुणदेवता के दिव्य अमृत तथा चन्द्रतुल्य उज्ज्वल शुभकारक छत्र को वहन करते हुए चल दिये। उनका शरीर विशाल पर्वत शिखर के समान था। वे अपनी पाँचाों को बलपूर्वक हिला हिलाकर सब दिशाओं में भारी शोर मचाते जा रहे थे। उड़ते समय गरुड़ पर्वतों के शिखर तोड़ डालते थे, पेड़ो को उखाड़ फेंकते थे ओर ज्योतिष्पथ (आकाश) में चलते समय बड़े-बड़े बादलों को अपने साथ उड़ा ले जाते थे। वे अपने तेज से ग्रह, नक्षत्र, तारों और सप्तर्षियों के प्रकाश पुंज को तिरस्कृत करते हुए चन्द्रमा और सूर्य के मार्ग पर पहुँचे। भरत श्रेष्ठ! तदनन्तर मधुसूदन ने मेरु पर्वत के मध्यम शिखर पर पहुँचकर समस्त देवताओं के निवास स्थानों का दर्शन किया। युधिष्ठिर! उन्होंन विश्वे वेदों, मरुद्गणों के पुण्यतम लोक में पदार्पण किया।[2]-

कृष्ण का अदिति को कुन्डल देना

परंतप! तत्पश्चात शत्रुहन्ता भगवान श्रीकृष्ण देवलोक में जा पहुँचे। इन्द्र भवन में निकट जाकर भगवान जनार्दन गरुड़ पर से उतर पड़े। वहाँ उन्होंने देवमाता अदिति के चरणों में प्रणाम किया। फिर ब्रह्मा और दक्ष आदि प्रजापतियों ने तथा सम्पूर्ण देवताओं ने उनका भी स्वागत सत्कार किया। उस समय बलराम सहित भगवान केशव ने माता अदिति को दोनों दिव्य कुण्डल और बहुमूल्य रत्न भेंट किये। वह सब ग्रहण करके माता अदिति का मानसिक दु:ख दूर हो गया और उन्होंने इन्द्र के छोटे भाई यदुकुलतिलक श्रीकृष्ण और बलराम का बहुत आदर सत्कार किया।[2]

अदिति का कृष्ण को वरदान देना

इन्द्र की महारानी शची ने उस समय भगवान श्रीकृष्ण की पटरानी सत्यभामा का हाथ पकड़कर उन्हें माता अदिति की सेवा में पहुँचाया। देवमाता की सारी चिन्ता दूर हो गयी थी। उन्होंने श्रीकृष्ण का प्रिय करने की इच्छा से सत्यभामा को उत्तम वर प्रदान किया। अदिति बोलीं- सुन्दर मुखवाली बहू! जब तक श्रीकृष्ण मानव शरीर में रहेंगे, तब तक तू वृद्धावस्था को प्राप्त न होगी और सब प्रकार की दिव्य सुगन्ध एवं उत्तम गुणों से सुशोभित होती रहेगी। भीष्मजी कहते हैं- युुधिष्ठिर! सुन्दरी सत्यभामा शचीदेवी के साथ घूम फिरकर उनकी आज्ञा ले भगवान श्रीकृष्ण के विश्रामगृह चली गयीं। तदनन्तर शत्रुओं का दमन करने वाले भगवान श्रीकृष्ण महर्षियों से सेवित और देवताओं द्वारा पूजित होकर देवलोक से द्वारका को चले गये। महाबाहु भगवान श्रीकृष्ण लंबा मार्ग तय करके उत्तम द्वारका नगरी में, जिसके प्रधान द्वार का नाम वर्धमान था, जा पहुँचे।[2]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 27
  2. 2.0 2.1 2.2 महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 28

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