महाभारत सभा पर्व के ‘अर्घाभिहरण पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 38 के अनुसार परशुराम अवतार की संक्षिप्त कथा का वर्णन इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
परशुराम द्वारा कार्तवीर्य अर्जुन का वध
भगवान का वह अवतार जामदग्न्य (परशुराम) के नाम से विख्यात है। उन्होंने किस लिये और कब भृगुकुल में अवतार ग्रहण किया, वह प्रसंग बतलाता हूँ, सुनो। महाराज युधिष्ठिर! महर्षि जमदग्नि के पुत्र परशुराम बड़े पराक्रमी हुए हैं। बलवानों में श्रेष्ठ परशुराम जी ने ही हैहयवंश का संहार किया था। महापराक्रमी कार्तवीर्य अर्जुन बल में अपना सानी नहीं रखता था, किंतु अपने अनुचित बर्ताव के कारण जमदग्निनन्दन परशुराम के द्वारा मारा गया। शत्रुसूदन हैहयराज कार्तवीर्य अर्जुन रथ पर बैठा था, परंतु युद्ध में पराशुरामजी ने उसे नीचे गिराकर मार डाला। ये भगवान गोविन्द ही पराक्रम परशुराम रूप से भृगुवंश में अवतीर्ण हुए थे। ये ही जम्भासुर का मस्तक विदीर्ण करने वाले तथा शतदुन्दुभि के घातक है। इन्होंने सहस्रों विजय पाने वाले सहस्रबाहु अर्जुन का युद्ध में संहार करने के लिये ही अवतार लिया था। महायशस्वी परशुराम ने केवल धनुष की सहायता से सरस्वती नदी के तट पर एकत्रित हुए छ: लाख चालीस हजार क्षत्रियों पर विजय पायी थी।[1]
परशुराम द्वारा क्षत्रिय ब्राह्मणों का संहार
वे सभी क्षत्रिय ब्राह्मणों से द्वेष करने वाले थे। उनका वध करते समय नरश्रेष्ठ परशुराम ने और भी चौदह हजार शूरवीरों का अन्त कर डाला। तदनन्तर शत्रुदमन राम ने दस हजार क्षत्रियों का और वध किया। इसके बाद उन्होंने हजारों वीरों को मूसल से मारकर यम लोक पहुँचा दिया तथा सहस्रों को फरसे से काट डाला। भृगुनन्दन परशुराम ने चौदह हजार क्षत्रियों को क्षण मात्र में मार गिराया तथा शेष ब्रह्मद्रोहियों का भी मूलोच्छेद करके स्नान किया।[1] क्षत्रियों से पीड़ित होकर ब्राह्मण ने ‘राम-राम’ कहकर आर्तनाद किया था, इसीलिये सर्वविजयी परशुराम ने पुन: फरसे से दस हजार क्षत्रियों का अन्त किया। जिस समय द्विजलोग भृगुनन्दन परशुराम! दौड़ो, बचाओ’ इत्यादि बातें कहकर करुणक्रन्दन करते, उस समय उन पीड़ितों द्वारा कही हुई वह आर्तवाणी परशुरामजी नही सहन कर सके। उन्होंने काश्मीर, दरद, कुन्तिभोज, क्षुद्रक, मालव, शक, चेदि, काशि, करूष, ऋषिक, क्रथ, कैशिक, अंग, वंग, कलिंग, मागध, काशी, कोसल, रात्रायण, वीतिहोत्र, किरात, तथा मार्तिकावत- इनको तथा अन्य सहस्रों राजेश्वरों को प्रत्येक देश में तीखे बाणों से मारकर यमराज के भेंट कर दिया। मेरु और मन्दर पर्वत जिसके आभूषण हैं, वह पृथ्वी करोड़ों क्षत्रियों की लाशों से पट गयी। एक-दो नहीं, इक्कीस बार परशुराम ने यह पृथ्वी क्षत्रियों से सूनी कर दी। तदनन्तर महाबाहु परशुराम ने प्रचुर दक्षिणावाले यज्ञों का अनुष्ठान करके सौ वर्षों तक सौभ नामक विमान पर बैठे हुए राजा शाल्व के साथ युद्ध किया।[2]
परशुराम का अस्त्र-शस्त्र त्याग भारी तपस्या करना
भरतश्रेष्ठ युधिष्ठिर! तदनन्तर सुन्दर रथ पर बैठकर सौभ विमान के साथ युद्ध करने वाले शक्तिशाली वीर भृगुश्रेष्ठ परशुराम ने गीत गाती हुई नग्निका[3] कुमारियों के मुख से यह सुना- ‘राम! राम! महाबाहो! तुम भृगुवंशी की कीर्ति बढ़ाने वाले हो, अपने सारे अस्त्र शस्त्र नीचे डाल दो। तुम सौभ विमान का नाश नहीं कर सकोगे। भयभीतों को अभय देने वाले चक्रधारी गदापाणि भगवान श्रीविष्णु प्रद्युम्न और साम्ब को साथ लेकर युद्ध में सौभ विमान का नाश करेंगे। यह सुनकर पुरुषसिंह परशुराम उसी समय वन को चल दिये। राजन्! वे महायशस्वी मुनि कृष्णावतार के समय की प्रतीक्षा करते हुए अपने सरे अस्त्र शस्त्र, रथ, कवच, आयुध बाण, परशु और धनुष जल में डालकर बड़ी भारी तपस्या में लग गये। शत्रुओं का नाश करने वाले धर्मात्मा परशुराम ने लज्जा, प्रज्ञा, श्री, कीर्ति ओर लक्ष्मी- इन पाँचों का आश्रय लेकर अपने पूर्वोक्त रथ को त्याग दिया। आदि काल में जिसकी प्रवृत्ति हुई थी, उस काल का विभाग करके भगवान परशुराम ने कुमारियों को बात पर श्रद्धा होने के कारण ही सौभ विमान का नाश नही किया, असमर्थता के कारण नहीं। जमदग्निनन्दन परशुराम के नाम से विख्यात वे महर्षि, जो विश्वविदित ऐश्वर्यशाली महर्षि हैं, वे इन्हीं श्रीकृष्ण के अंश है, जो इस समय तपस्या कर रहे हैं।[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 13
- ↑ 2.0 2.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 14
- ↑ जिसमें ऋतुधर्म (राजस्वलावस्था) का प्रादुर्भाव न हुआ हो, उन्हें नग्निका कहते हैं।
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