शिशुपाल के आक्षेपपूर्ण वचन

महाभारत सभा पर्व के ‘अर्घाभिहरण पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 37 के अनुसार शिशुपाल के आक्षेपपूर्ण वचन का वर्णन इस प्रकार है[1]-

शिशुपाल का कृष्ण की अग्रपूजा के लिए असहमति

शिशुपाल बोला- कौरव्य! यहाँ इन महात्मा भमिपतियों के रहते हुए यह वृष्णिवंशी कृष्ण राजाओं की भाँति राजोचित पूजा का अधिकारी कदापि नहीं हो सकता। महात्मा पाण्डवों के लिये यह विपरीत आचार कभी उचित नहीं है। पाण्डुकुमार! तुमने स्वार्थवश कमलनयन कृष्ण का पूजन किया है। पाण्डवो! अभी तुम लोग बालक हो। तुम्हें धर्म का पता नहीं है, क्योंकि धर्म का स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म है। ये गंगानन्दन भीष्म बहुत बूढ़े हो गये हैं। अब इनकी स्मरणशक्ति जवाब दे चुकी है। इनकी सूझ और समझ भी बहुत कम हो गया है (तभी इन्होंने श्रीकृष्णपूजा की सम्मति दी है)। भीष्म तुम्हारे जैसा धर्मात्मा पुरुष भी जब मनमाना अथवा किसी का प्रिय करने के लिये मुहदेखी करने लगता है, तब वह साधु पुरुषों के समाज में अधिक अपमान का पात्र बन जाता है। यह भी जानते है कि यदुवंशी कृष्ण राजा नहीं है, फिर सम्पूर्ण भूपालों के बीच तुम लोगों ने जिस प्रकार इसकी पूजा की है, वैसी पूजा का अधिकारी यह कैसे हो सकता है? कुरुपुंगव! अािवा यदि तुम श्रीकृष्ण को बड़ा-बूढ़ा समझते हो तो इसके पिता वृद्ध वसुदेव जी के रहते हुए उनका यह पुत्र कैसे पूजा का पात्र हो सकता है? अथवा यह माना लिया जाय कि वासदेव कृष्ण तुम लोगों का प्रिय चाहने वाला और तुम्हारा अनुसरण करने वाला सुह्रद है, इसीलिये तुमने इसकी पूजा की है, तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि तुम्हारे सबसे बड़े सुह्रद तो राजा द्रुपत हैं उनके रहते यह माधव पूजा पाने का अधिकारी है कैसे हो सकता है। कुरुनन्दन! अथवा यह समझ ले कि तुम कृष्ण को आचार्य मानते हो, फिर भी आचार्यो में भी बड़ेे-बूढ़े द्रोणाचार्य के रहते हुए इस यदुवंशी की पूजा तुमने क्यों की है? कुरुकुल को आनन्दित करने वाले युधिष्ठिर अथवा यदि यह कहा जाय कि तुम कृष्ण को अपना ऋत्विज समझते हो तो ऋत्विजों में भी सबसे वृद्धि द्वैपायन वेदव्यास के रहते हुए तुमने कृष्ण की अग्रपूजा कैसे की? राजन! शान्तनुनन्दन भीष्म पुरुषशिरोमणि तथा स्वच्छन्दमृत्यु हैं। इनके रहते तुमने कृष्ण की अर्चना कैसे की? कुरुनन्दन युधिष्ठिर! सम्पूर्ण शास्त्रों के निपुण विद्वान वीर अश्वत्थामा के रहते हुए तुमने कृष्ण की पूजा कैसे कर डाली? पुरुषप्रवर राजाधिराज दुर्योधन और भरतवंश के आचार्य महात्मा कृप के रहते हुए तुमने कृष्ण की पूजा का औचित्य कैसे स्वीकार किया? तुमने किम्पुरुषों के आचार्य द्रुमन का उल्लंखन करके कृष्ण की अग्रपूजा क्यों की? पाण्डु के समान दुुर्धर्ष वीर तथा राजोचित शुभ लक्षणों से सम्पन्न भीष्मक, राजा रुक्मी और उसी प्रकार श्रेष्ठ धनुर्धर एकलव्य तथा मद्रराज शल्य के रहते हुए तुम्हारे द्वारा कृष्ण की पूजा किस दृष्टि से की गयी है। भारत! ये जो अपने बल के द्वारा सब राजाओं से होड़ लेते हैं, विप्रवर परशुरामजी के प्रिय शिष्य हैं तथा जिन्होंने अपने बल का भरोसा करके युद्ध में अनेक राजाओं को परास्त किया है, उन महाबली कर्ण को छोड़कर तुमने कृष्ण की आराधना कैसे की? कुरुश्रेष्ठ! मधुसूदन कृष्ण न ऋत्विज है, न आचार्य है और न राजा ही है, फिर तुमने किस प्रिय कामना से इसकी पूजा की है? भारत! अथवा यदि मधुसूदन ही तुम लोगों का पूजनीय देवता है, इसलिये इसकी पूजा तुम्हें करनी थी तो इन राजाओं को केवल अपमानित करने के लिये बुलाने की क्या आवयकता थी?[1]

शिशुपाल द्वारा यधिष्ठिर और कृष्ण का अपमान करना

राजाओं! हम सब लोग इन महात्मा कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर को जो कर दे रहे है, वह भय, लोभ अथवा कोई विशेष आश्वासन मिलने के कारण नहीं। हमने तो यही समझा था कि यह धर्माचरण में संलग्न रहने वाला क्षत्रिय सम्राट का पद पाना चाहता है तो अच्छा ही है। यही सोचकर हम उसे कर देते हैं, पंरतु यह राजा युधिष्ठिर हम लोगों को नहीं मानता है। युधिष्ठिर! इससे बढ़कर दूसरा अपमान और क्या हो सकता है कि तुमने राजाओं की सभा में जिसे राजोचित चिह्न छत्र-चँवर आदि प्राप्त नहीं हुआ है, उस कृष्ण की अर्ध्य के द्वारा पूजा की है। धर्मपुत्र युधिष्ठिर को अकस्मात ही धर्मात्मा होने का यश प्राप्त हो गया है, अन्यथा कौन ऐसा धर्मनिष्ठ पुरुष होगा जो किसी धर्मच्युत की इस प्रकार पूजा करेगा। वृष्णिकुल में पैदा हुए इस दुरात्मा ने तो कुछ ही दिन पहले महात्मा राजा जरासंध का अन्यायपूर्वक वध किया है। आज युधिष्ठिर का धर्मात्मापन दूर निकल गया, क्योंकि इन्होंने कृष्ण को अर्ध्य निवेदन करके अपनी कायरता ही दिखायी है। (अब शिशुपाल ने भगवान श्रीकृष्ण को देखकर कहा-) माधव! कुन्ती के पुत्र डरपोक, कायर और तपस्वी हैं। इन्होंने तुम्हें ठीक-ठीक न जानकर यदि तुम्हारी पूजा कर दी तो तुम्हें तो समझना चाहिये था कि तुम किस पूजा के अधिकारी हो? अथवा जनार्दन! इन कायरों द्वारा उपस्थित की हुई इस अग्रपूजा को उसके योग्य न होते हुए भी तुमने क्यों स्वीकार कर लिया? जैसे कुत्ता एकान्त में चूकर गिरे हुए थोड़े से हविष्य (धृत) को चाट ले और अपने को धन्य-धन्य मानने लगे, उसी प्रकार तुम अपने लिये अयोग्य पूजा स्वीकार करके अपने आपको बहुत बड़ा मान रहे हो। कृष्ण! तुम्हारी इस अग्रपूजा से हम राजाधिराजों का कोई अपमान नहीं होता, परंतु ये कुरुवंशी पाण्डव तुम्हें अर्ध्य देकर वास्वत में तुम्ही को ठग रहे हैं। मधुसूदन! जैसे नपुंसक का ब्याह रचाना और अंधे को रूप दिखाना उनका उपहास ही करना है, उसी प्रकार तुम जैसे राज्यहीन की यह राजाओं के समान पूजा भी विडम्बना मात्र ही है। आज मैंने राजा युधिष्ठिर को देख लिया, भीष्म भी जैसे हैं, उनको भी देख लिया और इस वासुदेव कृष्ण का भी वास्तविक रूप क्या है, यह भी देख लिया। वास्तव में ये सब ऐसी ही हैं। उनसे ऐसा कहकर शिशुपाल अपने उत्तम आसन से उठकर राजाओं के साथ उस सभा भवन से जाने को उद्यत हो गया।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 37 श्लोक 1-18
  2. महाभारत सभा पर्व अध्याय 37 श्लोक 19-31

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