महाभारत सभा पर्व के ‘द्यूत पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 60 के अनुसार जुए के अनौचित्य के सम्बन्ध में युधिष्ठिर-शकुनि संवाद का वर्णन इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
शकुनि और धृतराष्ट्र का पाँसे फेंकना
युधिष्ठिर ने कहा—शकुने! तुमने छल से इस दाँव में मुझे हरा दिया, इसी पर तुम गर्वित हो उठे हो; आओ, हम लोग पुन: परस्पर पासे फेंककर जुआ खेलें। मेरे पास हजारों निष्कों[2] से भरी हुई बहुत-सी सुन्दर पेटियाँ रक्खी हैं। इसके सिवा खजाना है, अक्षय धन है और अनेक प्रकार के सुवर्ण हैं। राजन्! मेरा यह सब धन दाँव पर लगा दिया गया। मैं इसी के द्वारा तुम्हारे साथ खेलता हूँ। वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय! यह सुनकर मर्यादा से कभी च्यूत न होने वाले कौरवों के वंशधर एवं पाण्डु के ज्येष्ठ पुत्र राजा युधिष्ठिर से शकुनि ने फिर कहा-‘लो’ यह दाँव भी मैंने ही जीता’। युधिष्ठिर ने कहा - यह जो परमानन्द दायक राजरथ है, जो हम लोगों को यहाँ तक ले आया है, रथों में श्रेष्ठ जैत्र नामक पुण्यमय श्रेष्ठ रथ है। चलतें समय इससे मेघ और समुद्र की गर्जना के सम्मान गम्भीर ध्वनि होती रहती है। यह अकेला ही एक हजार रथों के समान है। इसके ऊपर बाघ का चमड़ा लगा हुआ है। यह अत्यन्त सुहृढ़ है। इसके पहिये तथा अन्य आवश्यक सामग्री बहुत सुन्दर है। यह परंम शोभायमान रथ क्षुद्र घण्टिकाओं से सजाया गया है। कुरर पक्षी की सी कान्ति वाले आठ अच्छे घोड़े, जो समूचे राष्ट्र में सम्मानित हैं, इस रथ को वहन करते हैं। भूमिका स्पर्श करने-वाला कोई भी प्राणी इन घोड़ों के सामने पड़ जाने पर बच नहीं सकता। राजन् इन घोड़ों सहित यह रथ मेरा धन है, जिसे दाँव पर रखकर मैं तुम्हारे साथ जूआ खेलता हूँ। वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! यह सुनकर छल का आश्रय लेने वाले शकुनि ने पुन: पासे फेंके और जीत का निश्चय करके युधिष्ठिर से कहा-‘लो’ यह भी जीत लिया’। युधिष्ठिर ने कहा— मेरे पास एक लाख तरुणी दासियाँ हैं, जो सुवर्णमय मांगलिक आभूषण धारण करती हैं। जिनके हाथों में शंख की चूडि़याँ, बाँहों में भुजबंद, कण्ड में निष्कों का हार तथा अन्य अंगो में भी सुन्दर आभूषण हैं। बहुमूल्य हार उनकी शोभा बढ़ाते हैं। उनके वस्त्र बहुत ही सुन्दर हैं। वे अपने शरीर में चन्दन का लेप लगाती हैं, मणि और सुवर्ण धारण करती हैं तथा चौसठ कलाओं में निपुण हैं। नृत्यु और गाने में भी वे कुशल हैं। ये सब-की-सब मेरे आदेश से स्त्रात कों, मन्त्रियों तथा राजाओं की सेवा-परिचर्या करती हैं। राजन्! यह मेरा धन है, जिसे दाँव पर लगाकर मैं तुम्हारे साथ खेलता हूँ। वैशम्पायनजी कहते हैं—जनमेजय! यह सुनकर कपटी शकुनि ने पुन: जीत का निश्चय करके पासे फेंके और युधिष्ठिर से कहा-'यह दाँव भी मैंने ही जीता'। युधिष्ठिर ने कहा—दासियों की तरह ही मेरे यहाँ एक लाख दास हैं। वे कार्यकुशल तथा अनुकूल रहने वाले हैं। उनके शरीर पर सदा सुन्दर उत्तरीय वस्त्र सुशोभित होते हैं। वे चतुर, बुद्धिमान्, संयमी और तरुण अवस्था वाले हैं। उनके कानों में कुण्डल झिलमिलाते रहते हैं। वे हाथों में भोजनपात्र लिये दिन-रात अतिथियों को भोजन परोसते रहते हैं। राजन्! यह मेरा धन है, जिसे दाँव पर लगाकर मैं तुम्हारे साथ खेलता हूँ।[1]
शकुनि का हर दाँव पर युधिष्ठिर से जीतना
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! यह सुनकर पुन: शठता का आश्रय लेने वाले शकुनि ने अपनी ही जीत का निश्चय करके युधिष्ठिर से कहा-'लो यह दाँव भी मैंने जी लिया'। युधिष्ठिर ने कहा—सुबलकुमार! मेरे यहाँ एक हजार मतवाले हाथी हैं, जिनके बाँधने के रस्से सुवर्णमय हैं। वे सदा आभूषणों से विभूषित रहते हैं। उनके कपोल और मस्तक आदि अगों पर कमल के चिह्र बने हुए हैं। उनके गले में सोने के हार सुशोभित होत हैं। वे अच्छी तरह वश में किये हुए हैं और राजाओं की सवारी के काम में आते हैं। युद्ध में वे सब प्रकार के शब्द सहन करने वाले हैं। उनके दाँत हलदण्ड के समान लंबे हैं और शरीर विशाल है। उनमें से प्रत्येक के आठ-आठ हथिनियाँ हैं। उनकी कान्ति नूतन मेघों की घटा के समान है। वे सबके-सब बड़े-बड़े़ नगरों को भी नाश कर देने की शक्ति रखते हैं। राजन्। यह मेरा धन है, जिसे दाँव पर लगाकर मैं तुम्हारे साथ खेलता हूँ। वैशम्पायनजी कहते हैं—जनमेजय! ऐसी बातें कहते हुए कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर से शकुनि ने हँसकर कहा-'इस दाँव को भी मैंने ही जीता'। युधिष्ठिर ने कहा—मेरे पास उतने ही अर्थात् एक हजार रथ हैं, जिनकी ध्वजाओं में सोने के डंडे लगे हैं। उन रथों पर पताकाएँ फहराती रहती हैं। उनमें सघे हुए घोड़े जोते जाते हैं और विचित्र युद्ध कर ने वाले रथी उनमें बैठते हैं। उन रथियों में से प्रत्येक को अधिक से-अधिक एक सहस्त्र स्वर्णमुद्राएँ तक वेतन में मिलती हैं। वे युद्ध कर रहे हों या न कर रहे हों, प्रत्येक मास में उन्हें यह वेतन प्राप्त होता रहता है। राजन्! यह मेरा धन है, इसे दाँव पर लगाकर मैं तुम्हारे साथ खेलता हूँ। वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय! उनके ऐसा कहने पर वैरी दुरात्मा शकुनि ने युधिष्ठिर से कहा—'लो, यह भी जीत लिया'। युधिष्ठिर ने कहा - मेरे यहाँ तीतर पक्षी के समान विचित्र वर्णवाले गन्धर्व देश के घोडे़ है, जो सोने के हार से विभूषित हैं। शत्रुदमन चित्ररथ गन्धर्व ने युद्ध में पराजित एवं तिरस्कृत होने के पश्चात् संतुष्ट हो गाण्डीवधारी अर्जुन को प्रेमपूर्वक वे घोड़े भेंट किये थे। राजन्! यह मेरा धन है जिस दाँव पर लगाकर मैं तुम्हारे साथ खेलता हूँ। वैशम्पायनजी कहते हैं—जनमेजय! यह सुनकर छल का आश्रय लेने वाले शकुनि ने पुन: अपनी ही जीत का निश्चय करके युधिष्ठिर से कहा- 'यह दाँव भी मैंने ही जीता है'। युधिष्ठिर ने कहा - मेरे पास दस हजार श्रेष्ठ रथ और छकडे़ हैं। जिनमें छोटे-बडे़ वाहन सदा जुटे ही रहते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक वर्ण के हजारों चुन हुए योद्धा मेरे यहाँ एक साथ रहते हैं। वे सब-के-सब वीरोचित पराक्रम से सम्पन्न एवं शूरवीर हैं। उनकी संख्या साठ हजार हैं। वे दूध पीते और और शालि के चावल का भात खाकर रहते हैं। उन सबकी छाती बहुत चौड़ी है। राजन्! यह मेरा धन है, जिस दाँव पर रखकर मैं तुम्हारे साथ खेलता हूँ। वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! यह सुनकर शठता के उपासक शकुनि ने पुन: युधिष्ठिर से पूर्ण निश्चय के साथ कहा—'यह दाँव भी मैंने ही जीता है'। युधिष्ठिर ने कहा - मेरे पास ताँबे और लोहे की चार सौ निधियाँ यानि खजाने से भरी हुई पेटियाँ हैं। प्रत्येक में पाँच-पाँच द्रोण विशुद्ध सोना भरा हुआ है, यह सारा सोना तपाकर शुद्ध किया हुआ हैं, उसकी कीमत आँकी नहीं जा सकती। भारत! यह मेरा धन है, जिसे दाँव पर रखकर मैं तुम्हारे साथ खेलता हूँ। वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय! ऐसा सुनकर छल का आश्रय लेने वाले शकुनि ने पूर्ववत् पूर्ण निश्चय के साथ युधिष्ठिर से कहा - 'यह दाँव भी मैंने ही जीता'।[3]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 61 श्लोक 1-13
- ↑ प्राचीनकाल में प्रचलित एक सिक्का, जो एक कर्ष अथवा सोलह मासे सोने का बना होता था।
- ↑ महाभारत सभा पर्व अध्याय 61 श्लोक 14-31
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