महाभारत सभा पर्व के ‘द्यूत पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 77 के अनुसार दु:शासन द्वारा पाण्डवों का उपहास बनाने का वर्णन इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
जुए में हार जाने पर दु:शासन द्वारा पाण्डवों का उपहास बनाना
वैशम्पायनजी कहते हैं - राजन्! तदनन्तर जूए में हारे हुए कुन्ती के पुत्रों ने वनवास की दीक्षा ली और क्रमश: सब ने मृगचर्म को उत्तरीय वस्त्र के रूप में धारण किया। जिनका राज्य छिन गया था, वे शत्रुदमन पाण्डव जब मृगचर्म से अपने अंगों को ढँककर वनवास के लिये प्रस्थित हुए, उस समय दु:शासन ने सभा में उनको लक्ष्य करके कहा - ‘धृतराष्ट्र महामना राजा दुर्योधन का समस्त भूमण्डल पर एकछत्र राज्य हो गया। पाण्डव पराजित होकर बड़ी भारी विपत्ति पड़ गये। ‘आज वे पाण्डव समान मार्गो से, जिन पर आये हुओं की भीड़ के कारण जगह नहीं रही है, वन को चले जा रहे हैं। हम लोग अपने प्रति पक्षियों से गुण और अवस्था दोनों में बड़े हैं। अत: हमारा स्थान उनसे बहुत ऊँचा है। ‘कुन्ती के पुत्र दीर्घकाल तक के लिये अनन्त दु:ख रूप नरक में गिरा दिये गये। ये सदा के लिये सुख से वच्च्ति तथा राज्य से हीन हो गये हैं। जो लोग पहले अपने धन से उन्मत्त हो धृतराष्ट्र–पुत्रों की हँसी उड़ाया करते थे, वे ही पाण्डव आज पराजित हो अपने धन-वैभव से हाथ धोकर वन में जा रहे हैं। ‘सभी पाण्डव अपने शरीर पर जो विचित्र कवच और चमकीले दिव्य वस्त्र हैं, उन सबको उतारकर मृगचर्म धारण कर लें; जैसा कि सुबलपुत्र शकुनि के भाव को स्वीकार करके ये लोग जूआ खेले हैं। ‘जो अपनी बुद्धि में सदा यही अभिमान लिये बैठे थे कि हमारे-जैसे पुरुष तीनों लोकों में नहीं है, वे ही पाण्डव आज विपरीत अवस्था में पहुँचकर थोथे तिलों की भाँति नि:सत्व हो गये हैं। अब इन्हें अपनी स्थिति का ज्ञान होगा। ’इन मनस्वी और बलवान् पाण्डवों का यह मृग चर्ममय वस्त्र तो देखो, जिसे यश में महात्मा लोग धारण करते हैं। मुझे तो इनके शरीर पर ये मृगचर्म यज्ञ की दीक्षा के अधिकार से रहित जंगली कोल भीलों के चर्ममय वस्त्र के समान ही प्रतीत होते हैं। ‘महा बुद्धिमान सोमकवंशी राजा द्रुपद ने अपनी कन्या पांचाली को पाण्डवों के लिये देकर कोई अच्छा काम नहीं किया। द्रौपदी के प्रति ये कुन्तीपुत्र निरे नपुंसक ही हैं। ‘द्रौपदी! जो सुन्दर महीन कपड़े पहना करते थे,उन्हीं पाण्डवों का वन में निर्धन, अप्रतिष्ठित और मृगचर्म की चादर ओढे़ देख तम्हें क्या प्रसन्नता होगी ? जब तुम किसी अन्य पुरुष को, जिसे चाहो, अपना पति बना लो। ‘ये समस्त कौरव क्षमाशील, जितेन्द्रिय तथा उत्तम धन वैभव से सम्पन्न है। इन्ही में से किसी को अपना पति चुन लो, जिससे यह विपरीत काल (निर्धनावस्था) तुम्हें संतप्त न करे। ‘जैसे थोथे तिल बोने पर फल नहीं देते हैं, जैसे केवल चर्ममय मृग व्यर्थ हैं तथा जैसे काकयव (तंदुलरहित तृणधान्य) निष्प्रयोजन होते है, उसी प्रकार समस्त पाण्डवों का जीवन निरर्थक हो गया है। ‘थोथे तिलों की भाँति इन पतित और नपुंसक पाण्डवों की सेवा करने से तुम्हें क्या लाभ होगा, व्यर्थ का परिश्रम ही तो उठाना पड़ेगा। ‘इस प्रकार धृतराष्ट्र के नृशंस पुत्र दु:शासन ने पाण्डवों को बहुत-से कठोर वचन सुनाये।[1]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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