महाभारत सभा पर्व के ‘द्यूत पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 49 के अनुसार दुर्योधन का द्यूत के लिए धृतराष्ट्र से अनुरोध का वर्णन इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
धृतराष्ट्र का सेवकों को विशाल भवन के निर्माण का आदेश देना
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! अपने पुत्र का यह प्रमेपूर्ण आर्त वचन सुनकर राजा धृतराष्ट्र दुर्योधन के मत में आ गये और सेवकों से इस प्रकार बोले- ‘बहुत से शिल्पी लगकर एक परम सुन्दर दर्शनीय एवं विशाल सभा भवन का शीघ्र निर्माण करें। उसमें सौ दरवाजे हों और एक हजार खंभे लगे हुए हों।[1] ‘फिर सब देशों से बढ़ई बुलाकर उस सभा भवन के खंभों और दिवारों में रत्न जड़वा दिये जायँ। इस प्रकार वह सुन्दर एवं सुसज्जित सभा भवन जब सुखपूर्वक प्रवेश योग्य हो जाए, तब धीर से मेरे पास आकर इसकी सूचना दो’। महाराज! दुर्योधन की शान्ति के लिये ऐसा निश्चय करके राजा धृतराष्ट्र ने विदुर के पास दूत भेजा। विदुर से पूछे बिना उनका कोई भी निश्चय नहीं होता था। जूए के दोषों को जानते हुए भी वे पुत्र स्नेह से उसकी ओर आकृष्ट हो गये थे।[2]-
विदुर का धृतराष्ट्र से द्युत न कराने का आग्रह
बुद्धिमान विदुर कलह के द्वाररूप जूए का अवसर उपस्थित हुआ सुनकर और विनाश का मुख प्रकट हुआ जान धृतराष्ट्र के पास दौड़े आये। विदुर ने अपने श्रेष्ठ भ्राता महामना धृतराष्ट्र के पास जाकर उनके चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा। विदुुर बोले- राजन्! मैं आपके इस निश्चय को पसंद नहीं करता। प्रभो! आप ऐसा प्रयत्न कीजिये, जिससे जूए के लिये आपके और पाण्डु के पुत्रों में भेदभाव न हो।[2]
धृतराष्ट्र का विदुर को संदेश लेकर इन्द्रप्रस्थ भेजना
धृतराष्ट्र ने कहा- विदुर! यदि हम लोगों पर देवताओं की कृपा होगी तो मेरे पुत्रों का पाण्डुपुत्रों के साथ नि:संदेह कलह न होगा। अशुभ हो या शुभ, हितकर हो या अहितकर, सुह्रदों में यह द्यूतक्रीड़ा प्रारम्भ होनी चाहिेये। नि:संदेह यह भाग्य से ही प्राप्त हुई है। भारत! जब मैं, द्रोणाचार्य, भीष्मजी तथा तुम- ये सब लोग संनिकट रहेंगे, तब किसी प्रकार दैव विहित अन्याय नहीं होने पायगा। तुम वायु के समान वेगशाली घोड़ों द्वारा जुते हुए रथ पर बैठकर अभी खाण्डव प्रस्थ को जाओं और युधिष्ठिर को बुला ले आओ। विदुर! मेरा निश्चय तुम युधिष्ठिर से न बताना, यह बात मैं तुमसे कहे देता हूँ। मैं दैव को भी प्रबल मानता हूँ, जिसकी प्रेरणा से यह द्यूतक्रीडा का आरम्भ होने जा रहा है। धृतराष्ट्र के ऐसा कहने पर बुद्धिमान विदुरजी यह सोचते हुए कि यह द्यूतक्रीड़ा अच्छी नहीं है, अत्यन्त दुखी हो महाज्ञानी गंगानन्दन भीष्मजी के पास गये।[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 49 श्लोक 33-48
- ↑ 2.0 2.1 2.2 महाभारत सभा पर्व अध्याय 49 श्लोक 49-60
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