महाभारत सभा पर्व के ‘अर्घाभिहरण पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 39 के अनुसार सहदेव की राजाओं को चुनौती का वर्णन इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
सहदेव का शिशुपाल की बातों का उत्तर देना
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! ऐसा कहकर महाबली भीष्म चुप हो गये। तत्पश्चात माद्री कुमार सहदेव ने शिशुपाल की बातों का मुँहतोड़ उत्तर देते हुए यह सार्थक बात कही- ‘राजाओ! केशी दैत्य का वध करने वाले अनन्तपराक्रमी भगवान श्रीकृष्ण की मेरे द्वारा जो पूजा की गयी है, उसे आप लोगों में से जो सहन न कर सकें, उन सब बलवानों के मस्तक पर मैंने यह पैर रख दिया। मैंने खूब सोच समझकर यह बात कही है। जो इसका उत्तर देना चाहे, वह सामने आ जाय। मेरे द्वारा वह वध के योग्य होगा, इसमें संशय नहीं है। ‘जो बुद्धिमान राजा हों वे मेरे द्वारा की हुई आयार्च, पिता, गुरु, पूजनीय तथा अर्घ्यनिवेदन के सर्वथा योग्य भगवान श्रीकृष्ण की पूजा का हृदय से अनुमोदन करें’। सहदेव ने महामानी और बलावान राजाओं के बीच खड़े होकर अपना पैर दिखाया था, तो भी जो बुद्धिमान एवं श्रेष्ठ नरेश थे, उनमें से कोई कुछ न बोला। उस समय सहदेव के मस्तक पर आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी और अदृश्यरूप से खड़े हुए देवताओं ने ‘साधु’, ‘साधु’, कहकर उनके साहस की प्रशंसा की। तदनन्तर कभी पराजित न होने वाले भगवान श्रीकृष्ण की महिमा के ज्ञाता, भूत, वर्तमान और भविष्य- तीनों कालों की बातें बताने वाले, सब लोगों के सभी संशयों का निवारण करने वाले तथा सम्पूर्ण लोकों से परिचित देवर्षि नारद समस्त उपस्थित प्राणियों के बीच स्पष्ट शब्दों में बोले- ‘जो मानव कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण की पूजा नहीं करेंगे, वे जीते जी ही मृतक तुल्य समझे जायँगे। ऐसे लोगों से कभी बातचीत नहीं करनी चाहिये’।[1]
सहदेव द्वारा अन्य ब्राह्मणों का सत्कार
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! वहाँ आये हुए ब्राह्मणों और क्षत्रियों में विशिष्ट व्यक्तियों को पहचानने वाले नरदेव सहदेव ने क्रमश: पूज्य व्यक्तियों की पूजा करके वह अर्घ्यनिवेदन का कार्य पूरा कर दिया।[1]
शिशुपाल का क्रोधित हो युद्ध के लिये सहदेव को ललकारना
इस प्रकार श्रीकृष्ण का पूजन सम्पन्न हो जाने पर शत्रु विजयी शिशुपाल ने क्रोध से अत्यन्त लाल आँखें करके समस्त राजाओं से कहा-‘भूमिपालो! मैं सबका सेनापति बनकर खड़ा हूँ। अब तुम लोग किस चिन्ता में पड़े हो। आओ, हम सब लोग युद्ध के लिये सुसज्जित हो पाण्डवों और यादवों की सम्मिलित सेना का सामना करने के लिये डट जायँ’। इस प्रकार उन सब राजाओं को युद्ध के लिये उत्साहित करके चेदिराज ने युधिष्ठिर के यज्ञ में विघ्न डालने के उदेश्य से राजाओं से सलाह की। शिशुपाल के इस प्रकार बुलाने पर उसके सेनापतित्व में सुनीथ आदि कुछ प्रमुख नरेशगण चले आये। वे सब के सब अत्यन्त क्रोध से भर रहे थे एवं उनके मुख की कान्ति बदली हुई दिखायी देती थी। उन सबने यह कहा कि ‘युधिष्ठिर के अभिषेक और श्रीकृष्ण की पूजा का कार्य सफल न हो, वैसा प्रयत्न करना चाहिये’। इस निर्णय एवं निष्कर्ष पर पहुँचकर वे सभी नरेश क्रोध से मोहित हो गये। सहदेव की बातों से अपमान का अनुभव करके अपनी शक्ति की प्रबलता का विश्वास करके राजाओं ने उपर्युक्त बातें कहीं थीं। अपने सगे सम्बन्धियों के मना करने पर भी उनका क्रोध से तमतमाता हुआ शरीर उन सिंहों के समान सुशोभित हुआ, जो मांस से वन्चित कर दिये जाने के कारण दहाड़ रहे हों। राजाओं का वह समुदाय अक्षय समुद्रा की भाँति उमड़ रहा था। उसका कहीं अन्त नहीं दिखायी देता था। सेवाएं ही उसकी अपार जलराशि थीं। उसे इस प्रकार शपथ करते देख भगवान श्रीकृष्ण ने यह समझ लिया कि अब ये नरेश युद्ध के लिये तैयार हैं।[1]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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