श्रीकृष्ण का गुरु को दक्षिणा रूप में उनके पुत्र का जीवन देना

महाभारत सभा पर्व के ‘अर्घाभिहरण पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 38 के अनुसार श्रीकृष्ण का गुरु को दक्षिणा रूप में उनके पुत्र का जीवन देने की कथा का वर्णन इस प्रकार है[1]-

सान्दीपनि गुरु का श्रीकृष्ण से गुरुदक्षिणा में पुत्र का जीवन माँगना

उन दोनों भाईयों को अस्त्र विद्या में निपुण देखकर विप्रवर सान्दीपनि ने उन्हें गुरुदक्षिणा देने की आज्ञा दी। सान्दीपनि जी सब विष्यों के विद्वान् थे। उन्होंने श्रीकृष्ण से अपने अभीष्ठ मनोरथ की याचना इस प्रकार की। सान्दीपनिजी बोले- मेरा पुत्र इस समुद्र में नहा रहा था, उस समय ‘तिमि’ नामक जलजन्तु उसे पकड़ कर भीतर ले गया और उसके शरीर को खा गया। तुम दोनों का भला हो। मेरे उस मरे हुए पुत्र को जीवित करके यहाँ ला दो। भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर! इतना कहते-कहते गुरु सान्दीपनि पुत्र शोक से आर्त हो गये।[1]

श्रीकृष्ण द्वारा गुरु के पुत्र को जीवित करना

यद्यपि उनकी माँग बहुत कठिन थीं, तीनों लोकों में दूसरे किसी पुरुष के लिये इस कार्य का साधन करना असम्भव था, तो भी श्रीकृष्ण ने उसे पूर्ण करने की प्रतिज्ञा कर ली। भरतश्रेष्ठ! जिसने सान्दीपनि के पुत्र को मारा था, उस असुर को उन दोनों भाइयों ने युद्ध करके समुद्र में मार गिरया। तदनन्तर अमिततेजस्वी भगवान श्रीकृष्ण के कृपा प्रसाद से सान्दीपनि का पुत्र, जो दीर्घकालसे यमलोक में जा चुका था, पुन: पूर्ववत् शरीर धारण करके जी उठा। वह अशक्य, अचिन्तय और अत्यन्त अद्भुत कार्य देखकर सभी प्राणियों को बड़ा आश्चर्य हुआ। बलराम और श्रीकृष्ण ने अपने गुरु को सब प्रकार के ऐश्वर्य, गाय, घोड़े और प्रचुर धन सब कुछ दिये। तत्पश्चात गुरुपुत्र को लेकर भगवान ने गुरुजी को सौंप दिया। उस पुत्र को आया देख सान्दीपनि के नगर के लोग यह मान गये कि श्रीकृष्ण के द्वारा यह ऐसा कार्य सम्पन्न हुआ है, जो अन्य सब लोगों के लिये असम्भव और अचिन्तय है। भगवान नारायण के सिवा दूसरा कोैन ऐसा पुरुष है, जो इस अद्भुत कार्य को सोचा भी सके (करना तो दूर की बात है)।[1]

श्रीकृष्ण का लोक विख्यात होना

भगवान श्रीकृष्ण ने गदा और परिघ के युद्ध में तथा सम्पूर्ण अस्त्र षस्त्रों के ज्ञान में सबसे श्रेष्ठ स्थान प्राप्त कर लिया। वे समस्त लोकों में विख्यात हो गये। तात युधिष्ठिर! भोज राजकुमार कंस की अस्त्र ज्ञान, बल और पराक्रम में कार्तवीर्य अर्जुन की समानता करता था। भोजवंस के राज्य की वृद्धि करने वाले भोज राजकुमार कंस से भूमण्डल के सब राजा उसी प्रकार दिद्वग्र रहेत थे, जैसे गरुड़ से सर्प। भरतनन्दन! उसके यहाँ धनुष, खड्ग और चमचमाते हुए भाले लेकर विचित्र प्रकार से युद्ध करने वाले एक करोड़ पैदल सैनिक थे। भोजराज के रथी सैनिक, जिनके रथों पर सुवर्णमय ध्वज फहराते रहते थे तथा जो शूरवीर होने के साथ ही युद्ध में कभी पीठ दिखलाने वाले नहीं थे, आठ लाख की संख्या में थे। युधिष्ठिर! कंस के यहाँ युद्ध से कभी पीछे न हटने वाले हाथी सवार भी आठ ही लाख थे। उनके हाथियों की पीठ पर सुवर्ण के चमकीले हौदे कसे होते थे। भोजराज के वे पर्वताकार गजराज विचित्र ध्वजा पताकाओं से सुशोभिात होते थे और सदा संतुष्ट रहते थे। युद्धिष्ठिर! भोजराज कंस के यहाँ आभूषणों से सजी हुई शीघ्रगामिनी हथिनियों की विशाल सेना गजराजों की अपेक्षा दूनी थी। उसके यहाँ सोलह हजार घोड़े ऐसे थे, जिनका रंग पलास के फूल की भाँति लाल था। राजन्! किशोर अवस्था के घोडों का एक दूसरा दल भी मौजूद था, जिसकी संख्या सोलह हजार थी। इन अश्वों के सवार भी बहुत अच्छे थे। इस अवश्वसेना को कोई भी बलपूर्वक दबा नहीं सकता था। कंस का भाई सुनामा इन सबका सरदार था। वह भी कंस के ही समान बलावान् था एवं सदा कंस की रक्षा के लिये तत्पर रहता था। युधिष्ठिर! कंस के यहाँ घोड़ों का एक और भी बहुत बड़ा दल था, जिसमें सभी रंग के घोड़े थे। उस दल का नाम था मिश्रक। मिश्रकों की संख्या साठ हजार बतलायी जाती है। (कंस के सााि होने वाला महान् समर एक भयंकर नदी के समान था।) कंस कारोष ही उस नदी का महान् वेग था। ऊँचे-ऊँचे ध्वज तटवर्ती वृक्षों के समान जान पड़ते थे। मतवाले हाथी बड़ेे-बड़ेे ग्राहों के समान थे। वह नदी यमराज की आज्ञा के अधीन होकर चलती थी। अस्त्र-शस्त्र के समूह उसमें फेन का भ्रम उत्पन्न करते थे। सवारों का वेग उसमें जलप्रवाह सा प्रतीत होता था। गदा और परिघ पाठीन नामक मछलियों के सद्दृश जान पड़ते थे। नाना प्रकार के कवच सवार के समान थे। रथ और हाथी उसमें बड़ी बड़ी भँवरों का दृश्य उपस्थित करते थे। नाना प्रकार का रक्त ही कीचड़ का काम करता था। विचित्र धनुष उठती हुई लहरों के समान जान पड़ते थे। रथ और अश्वों का समूह ह्रद के समान था। योद्धाओं के इधर-उधर दौड़ने या बोलने से जो शब्द होता था, वही उस भयानक समर सरिता का कलकल नाद था। युधिष्ठिर! भगवान नारायण के सिवा ऐसे कंस को कौन मार सकता था? भारत! जैसे हवा बड़े-बड़े बादलों को छिन्न-छिन्न कर देती है, उसी प्रकार इन भगवान श्रीकृष्ण ने इन्द्र के रथ में बैठकर कंस की उपर्युक्त सारी सेनाओं का संहार कर डाला। सभा में विराजमान कंस को मन्त्रियों और परिवार के साथ भारकर श्रीकृष्ण ने मुह्रदों सहित सम्माननीय माता देवकी का समादर किया।[2] जनार्दन ने यशोदा और रोहिणी का भी बारंबार प्रणाम करके उग्रसेन को राजा के पद पर अभिषिक्त किया। उस समय यदुकुल के प्रधान-प्रधान पुरुषों ने इन्द्र के छोटे भाई भगवान श्रीहरि का पूजन किया। तदनन्तर पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने समस्त राजाओं के सहित आक्रमण करने वाले राजा जरासंध को सरोवरों या ह्रदों से सुशोभित यमुना के तट पर परास्त किया।[3]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 21
  2. महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 22
  3. महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 23

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