- महाभारत सभा पर्व के ‘लोकपाल सभाख्यान पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 12 के अनुसार राजा हरिश्चंद्र का माहात्म्य का वर्णन इस प्रकार है[1]-
युधिष्ठिर बोले- वक्ताओं में श्रेष्ठ भगवान! जैसा आपने मुझ से वर्णन किया है, उस के अनुसार सूर्य पुत्र यम की सभा में ही अधिकांश राजा लोगों की स्थिति बतायी गयी है। प्रभो! वरुण की सभा में तो अधिकांश नाग, दैत्येन्द्र, सरिताएँ और समुद्र ही बताये गये है। इसी प्रकार धनाध्यक्ष कुबेर की सभा में यक्ष, गुह्यक, राक्षस, गन्धर्व, अप्सरा तथा भगवान शंकर की उपस्थिति का वर्णन हुआ है। ब्रह्माजी की सभा में आपने महर्षियों, सम्पूर्ण देवगणों तथा समस्त शास्त्रों की स्थिति बतायी है। परंतु मुने! इन्द्र की सभा में आपने अधिकांश देवताओं की ही उपस्थिति का वर्णन किया है और थोड़े से विभिन्न गन्धर्वों एवं महर्षियों की भी स्थिति बतायी है। महामुने! महात्मा देवराज इन्द्र की सभा में आपने राजर्षियों में से एक मात्र हरिश्वन्द्र का ही नाम लिया है। नियमपूर्वक व्रत का पालन करने वाले महर्षे! उन्होंने कौन-सा कर्म अथवा कौन- सी तपस्या की है, जिस से वे महान यशस्वी होकर देवराज इन्द्र से स्पर्धा कर रहे हैं। विप्रवर! आपने पितृलोक में जाकर मेरे पिता महाभाग पाण्डु को भी देखा था, किस प्रकार वे आप से मिले थे? भगवान! उन्होंने आप से क्या कहा? यह मुझे बताइये। सुवत! आप से यह सब कुछ सुनने के लिये मेरे मन में बड़ी उत्कण्ठा है।
नारद जी ने कहा - शक्तिशाली राजेन्द्र! तुम ने जो राजर्षि हरिश्चन्द्र के विषय में मुझ से पूछा है, उस के उत्तर में मैं उन बुद्धिमान नरेश का माहात्म्य बता रहा हूँ, सुनो। इक्ष्वाकु कुल में त्रिशंकु नाम से प्रसिद्ध एक राजा हो गये हैं। वीर त्रिशंकु अयोध्या के स्वामी थे और वहाँ विश्वामित्र मुनि के साथ रहा करते थे। उन की पत्नी का नाम सत्यवती था, वह केकय-कुल में उत्पन्न हुई थी। कुरुनन्दन! रानी सत्यवती के धर्मानुकुल गर्भ रहा। फिर समयानुसार जन्म मास प्राप्त होने पर महाभागा रानी ने एक निष्पाप पुत्र को जन्म दिया, उस का नाम हुआ हरिश्चन्द्र। वे त्रिशंकु कुमार ही लोक विख्यात राजा हरिश्चन्द्र कहे गये हैं। राजा हरिश्चन्द्र बड़े बलवान और समस्त भूपालों के सम्राट थे। भूमण्डल सभी नरेश उन की आज्ञा पालन करने के लिये सिर झुकाये खड़े रहते थे। जनेश्वर! उन्होंने एक मात्र स्वर्ण विभूषित जैत्र नामक रथ पर चढ़कर अपने शस्त्रों के प्रताप से सातों द्वीपों पर विजय प्राप्त कर ली। महाराज! पर्वतों और वनों सहित इस सारी पृथ्वी को जीतकर राजा हरिश्चन्द्र ने राजसूय नामक महान यज्ञ का अनुष्ठान किया। राजा की आज्ञा से समस्त भूपालों ने धन लाकर भेंट किये और उस यज्ञ में ब्राह्मणों को भोजन परोसन का कार्य किया। महाराज हरिश्चन्द्र ने बड़ी प्रसन्नता के साथ उस यज्ञ में याचकों को, जितना उन्हों ने माँगा, उससे पाँच गुना अधिक धन दान किया। जब अग्नि देव के विसर्जन का अवसर आया, उस समय उन्होंने विभिन्न दिशाओं से आये हुए ब्राह्मणों को नाना प्रकार के धन एवं रत्न देकर तृप्त किया। नाना प्रकार के भक्ष्य-भोज्य पदार्थ, मनोवान्छित वस्तुओं का पुरस्कार तथा रत्न राशि का दान देकर तृप्त एवं संतुष्ट किये हुए ब्राह्मणों ने राजा हरिश्चंद्र को आशीर्वाद दिये। इसीलिये वे अन्य राजाओें की अपेक्षा अधिक तेजस्वी और यशस्वी हुए है।[1]
राजन! भरत श्रेष्ठ! यही कारण है कि उन सहस्रों राजाओं की अपेक्षा महाराज हरिश्चन्द्र अधिक सम्मानपूर्वक इन्द्र सभा में विराजमान होते हैं - इस बात को तुम अच्छी तरह जान लो। नरेश्वर! प्रतापी हरिश्चन्द्र उस महायज्ञ को समाप्त करके जब सम्राट के पद पर अभिषिक्त हुए, उस समय उन की बड़ी शोभा हुई। भरत कुलभूषण! दूसरे भी जो भूपाल राजसूय नामक महायज्ञ का अनुष्ठान करते हैं, वे देवराज इन्द्र के साथ रहकर आनन्द भोगते हैं। भरतवर्ष! जो लोग संग्राम में पीठ दिखाकर वहीं मृत्यु का वरण कर लेते हैं, वे भी देवराज इन्द्र की उस सभा में जाकर वहाँ आनन्द का उपभोग करते हैं। तथा जो लोग कठोर तपस्या के द्वारा यहाँ अपने शरीर का त्याग करते हैं, वे भी उस इन्द्र सभा में जाकर तेजस्वी रूप धारण करके सदा प्रकाशित होते रहते हैं। कौरवनन्दन कुन्ती कुमार! तुम्हारे पिता पाण्डु ने राजा हरिश्चन्द्र की सम्पत्ति देखकर अत्यन्त चकित हो तुम से कहने के लिये संदेश दिया है। नरेश्वर! मुझे मनुष्य लोक में आता जान उन्होंने प्रणाम करके मुझ से कहा- ‘देवर्षें! आप युधिष्ठिर से यह कहियेगा- ‘भारत! तुम्हारे भाई तुम्हारी आज्ञा के अधीन हैं, तुम सारी पृथ्वी को जीतने में समर्थ हो; अतः राजसूय नामक श्रेष्ठ यज्ञ का अनुष्ठान करो। ‘तुम-जैसे पुत्र के द्वारा वह यज्ञ सम्पन्न होने पर मैं भी शीघ्र ही राजा हरिश्चन्द्र की भाँति बहुत वर्षों तक इन्द्र भवन में आनन्द भोगूँग।’ तब मैंने पाण्डु से कहा -‘एवमस्तु, यदि मैं भूलोक में जाऊँगा तो आप के पुत्र राजा युधिष्ठिर से कह दूँगा।’ पुरुष सिंह पाण्डु नन्दन! तुम अपने पिता के संकल्प को पूरा करो। ऐसा करने पर तुम पूर्वजों के साथ देवराज इन्द्र के लोक में जाओगे। राजन! इस महान यज्ञ में बहुत-से विघ्न आने की सम्भावना रहती है; क्योंकि यज्ञनाशक ब्रह्म राक्षस इस का छिद्र ढूँढ़ते रहते हैं। तथा इसका अनुष्ठान होने पर कोई एक ऐसा निमित्त भी बन जाता है, जिससे पृथ्वी पर विनाशकारी युद्ध उपस्थित हो जाता है, जो क्षत्रियों के संहार और भूमण्डल के विनाश का कारण होता है। राजेन्द्र! यह सब सोच-विचारकर तुम्हें जो हितकर जान पड़े, वह करो। चारों वर्णों की रक्षा के लिये सदा सावधान और उद्यत रहो। संसार में तुम्हारा अभ्युदय हो, तुम आनन्दित रहो और धन से ब्राह्मणों को तृप्त करो। तुम ने मुझ से जो कुछ पूछा था, वह सब मैंने विस्तारपूर्वक बता दिया। अब मैं यहाँ से द्वारका जाऊँगा, इस के लिये तुम से अनुमति चाहता हूँ।
वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! कुन्ती कुमारों से ऐसा कहकर नारद जी जिन ऋषियों के साथ आये थे, उन्हीं से घिरे हुए पुनः चले गये। नारद जी के चले जाने पर कुरुश्रेष्ठ कुन्ती नन्दन राजा युधिष्ठिर अपने भाइयों के साथ राजसूय नामक श्रेष्ठ यज्ञ के विषय में विचार करने लगे।[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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