धृतराष्ट्र का युधिष्ठिर को सारा धन लौटाकर इन्द्रप्रस्थ जाने का आदेश

महाभारत सभा पर्व के ‘द्यूत पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 73 के अनुसार धृतराष्ट्र का युधिष्ठिर को सारा धन लौटाकर इन्द्रप्रस्थ जाने का आदेश का वर्णन इस प्रकार है[1]-

युधिष्ठिर और धृतराष्ट्र का संवाद=

युधिष्ठिर बोले- राजन्! आप हमारे स्‍वामी हैं। आज्ञा दीजिये, हम क्‍या करें। भारत! हम लोग सदा आपकी आज्ञा के अधीन रहना चाहते हैं। धृतराष्‍ट्र ने कहा - अजातशत्रों! तुम्हारा कल्‍याण हो। तुम मेरी आज्ञा से हारे हुए धन के साथ बिना किसी विन्‍न-बाधा के कुशलपूर्वक अपनी राजधानी कों जाओ और अपने राज्‍य का शासन करो। मुझे वृ‍द्ध की यही आज्ञा है। एक बात और है, उस पर भी ध्‍यान देना। मेरी कही हुई सारी बातें तुम्‍हारे हित और परम मण्‍डल के लिये होगी। तात युधिष्ठिर! तुम धर्म की सूक्ष्‍म गति को जानते हो। महामते! तुममें विनय है। तुमने बडे़-बूढ़ों की उपासना की है। जहाँ बुद्धि है, वहीं शान्ति है। भारत! तुम शान्‍त हो जाओ। (जो कुछ हुआ है, उसे भूल जाओ। ) पत्‍थर या लोहे पर कुल्‍हाड़ी नहीं पड़ती। लोग उसे लकड़ी पर ही चलाते हैं। जो पुरुष वैर को याद नहीं रखते, गुणों को ही देखते हैं, अवगुणों को नहीं तथा किसी से विरोध नहीं रखते, वे ही उत्तम पुरुष कहे गये हैं। साधु पुरुष दूसरों के सत्‍कमों (उपकारादि) को ही याद रखते हैं, उनके किये हुए वैर को नही। वे दूसरों की भलाई तो करते हैं; परंतु उनसे बदला लेने-की भावना नहीं रखते। युधिष्ठिर! नीच मनुष्‍य साधारण बातचीत में भी कटुवचन बोलने लगते हैं। जो स्‍वयं पहले कटुवचन न कहकर प्रत्‍युत्तर में कठोर बातें कहते हैं, वे मध्‍यम श्रेणी के पुरुष हैं। पंरतु जो घीर एवं श्रेष्‍ठ पुरुष हैं, वे किसी के कटुवचन बोलने या न बोलने पर भी अपने मुख से कभी कठोर एवं अहितकर बात नहीं निकालते। महात्‍मा पुरुष अपने अनुभव को सामने रखकर दूसरों के सुख-दु:ख को भी अपने समान जानते हुए उनके अच्‍छे बर्तावों को ही याद रखते हैं, उनके द्वारा किये हुए वैर-विरोध- को नहीं सत्‍पुरुष आर्य मर्यादा को कभी भंग नहीं करते। उनके दर्शन-से सभी लोग प्रसन्‍न हो जाते हैं।[1]

धृतराष्ट्र का युधिष्ठिर को इन्द्रप्रस्थ लौटने की आज्ञा देना

युधिष्ठिर! कौरव- पाण्‍डवों के समागम में तुमने श्रेष्‍ठ पुरुषों के समान ही आचरण किया है। तात! दुर्योधन जो कठोर बर्ताव किया है, उसे तुम अपने हृदय में मत लाना। भारत! तुम तो उत्तम गुण ग्रहण करने की इच्‍छा से अपनी माता गान्‍धारी तथा यहाँ बैठे हुए मुझ अंधे बूढ़े ताऊ की ओर देखो। मैंने सोच-समझकर भी इस जूए की इसलिये उपेक्षा कर दी - उसे रोकने की चेष्‍टृा नहीं की कि मैं मित्रों और सुहृदों से मिलना चाहता था और अपने पुत्रों के बलाबल को देखना चा‍हता था। राजन्! जिनके तुम शासक हो और सब शास्‍त्रों में निपुण परम बुद्धिमान विदुर जिनके मन्‍त्री हैं, वे कुरुवंशी कदापि शोक के योग्‍य नहीं हैं। तुम में धर्म है, अर्जुन में धैर्य है, भीमसेन में पराक्रम है और नरश्रेष्‍ठ नकुल- सहदेव में श्रद्धा एवं विशुद्ध गुरुसेवा का भाव है। अजातशत्रो! तुम्‍हारा भला हो। अब तुम खाण्‍डवप्रस्‍थ को जाओ। दुर्योधन आदि बन्‍धुओं के प्रति तुम्‍हें अच्‍छे भाई का-सा स्‍नेह भाव रहे और तुम्‍हारा मन सदा धर्म में लगा रहे। वैशम्‍पायनजी कहते हैं - भरतश्रेष्‍ठ! राजा धृतराष्‍ट्र के इस प्रकार कहने पर धर्मराज युधिष्ठिर पूज्‍य वर धृतराष्‍ट्र के आदेश को स्‍वीकार करके भाईयों के सहित वहाँ से विदा हो गये। वे मेघ के समान शब्‍द करने वाले रथों पर द्रौपदी के साथ बैठकर प्रसन्‍न मन से नगरों में उत्तम इन्‍द्रप्रस्‍थ को चले दिये।[1]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत सभा पर्व अध्याय 73 श्लोक 1-18

संबंधित लेख

महाभारत सभा पर्व में उल्लेखित कथाएँ


सभाक्रिया पर्व
श्रीकृष्ण की आज्ञानुसार मयासुर द्वारा सभा भवन निर्माण | श्रीकृष्ण की द्वारका यात्रा | मयासुर का भीम-अर्जुन को गदा और शंख देना | मय द्वारा निर्मित सभा भवन में युधिष्ठिर का प्रवेश
लोकपाल सभाख्यान पर्व
नारद का युधिष्ठिर को प्रश्न रूप में शिक्षा देना | युधिष्ठिर की दिव्य सभाओं के विषय में जिज्ञासा | इन्द्र सभा का वर्णन | यमराज की सभा का वर्णन | वरुण की सभा का वर्णन | कुबेर की सभा का वर्णन | ब्रह्माजी की सभा का वर्णन | राजा हरिश्चंद्र का माहात्म्य
राजसूयारम्भ पर्व
युधिष्ठिर का राजसूयविषयक संकल्प | श्रीकृष्ण की राजसूय यज्ञ की सम्मति | जरासंध के विषय में युधिष्ठिर, भीम और श्रीकृष्ण की बातचीत | जरासंध पर जीत के विषय में युधिष्ठिर का उत्साहहीन होना | श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन की बात का अनुमोदन | युधिष्ठिर को जरासंध की उत्पत्ति का प्रसंग सुनाना | जरा राक्षसी का अपना परिचय देना | चण्डकौशिक द्वारा जरासंध का भविष्य कथन
जरासंध वध पर्व
श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीम की मगध यात्रा | श्रीकृष्ण द्वारा मगध की राजधानी की प्रशंसा | श्रीकृष्ण और जरासंध का संवाद | जरासंध की युद्ध के लिए तैयारी | जरासंध का श्रीकृष्ण के साथ वैर का वर्णन | भीम और जरासंध का भीषण युद्ध | भीम द्वारा जरासंध का वध | जरासंध द्वारा बंदी राजाओं की मुक्ति
दिग्विजय पर्व
पाण्डवों की दिग्विजय के लिए यात्रा | अर्जुन द्वारा अनेक राजाओं तथा भगदत्त की पराजय | अर्जुन का अनेक पर्वतीय देशों पर विजय पाना | किम्पुरुष, हाटक, उत्तरकुरु पर अर्जुन की विजय | भीम का पूर्व दिशा में जीतने के लिए प्रस्थान | भीम का अनेक राजाओं से भारी धन-सम्पति जीतकर इन्द्रप्रस्थ लौटना | सहदेव द्वारा दक्षिण दिशा की विजय | नकुल द्वारा पश्चिम दिशा की विजय
राजसूय पर्व
श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ की दीक्षा लेना | राजसूय यज्ञ में राजाओं, कौरवों तथा यादवों का आगमन | राजसूय यज्ञ का वर्णन
अर्घाभिहरण पर्व
राजसूय यज्ञ में ब्राह्मणों तथा राजाओं का समागम | भीष्म की अनुमति से श्रीकृष्ण की अग्रपूजा | शिशुपाल के आक्षेपपूर्ण वचन | युधिष्ठिर का शिशुपाल को समझाना | भीष्म का शिशुपाल के आक्षेपों का उत्तर देना | भगवान नारायण की महिमा | भगवान नारायण द्वारा मधु-कैटभ वध | वराह अवतार की संक्षिप्त कथा | नृसिंह अवतार की संक्षिप्त कथा | वामन अवतार की संक्षिप्त कथा | दत्तात्रेय अवतार की संक्षिप्त कथा | परशुराम अवतार की संक्षिप्त कथा | श्रीराम अवतार की संक्षिप्त कथा | श्रीकृष्ण अवतार की संक्षिप्त कथा | कल्कि अवतार की संक्षिप्त कथा | श्रीकृष्ण का प्राकट्य | कालिय-मर्दन एवं धेनुकासुर वध | अरिष्टासुर एवं कंस वध | श्रीकृष्ण और बलराम का विद्याभ्यास | श्रीकृष्ण का गुरु को दक्षिणा रूप में उनके पुत्र का जीवन देना | नरकासुर का सैनिकों सहित वध | श्रीकृष्ण का सोलह हजार कन्याओं को पत्नीरूप में स्वीकार करना | श्रीकृष्ण का इन्द्रलोक जाकर अदिति को कुण्डल देना | द्वारकापुरी का वर्णन | रुक्मिणी के महल का वर्णन | सत्यभामा सहित अन्य रानियों के महल का वर्णन | श्रीकृष्ण और बलराम का द्वारका में प्रवेश | श्रीकृष्ण द्वारा बाणासुर पर विजय | भीष्म के द्वारा श्रीकृष्ण माहात्म्य का उपसंहार | सहदेव की राजाओं को चुनौती
शिशुपाल वध पर्व
युधिष्ठिर को भीष्म का सान्त्वना देना | शिशुपाल द्वारा भीष्म की निन्दा | शिशुपाल की बातों पर भीम का क्रोध | भीष्म द्वारा शिशुपाल के जन्म का वृतांत्त का वर्णन | भीष्म की बातों से चिढ़े शिशुपाल का उन्हें फटकारना | श्रीकृष्ण द्वारा शिशुपाल वध | राजसूय यज्ञ की समाप्ति | श्रीकृष्ण का स्वदेशगमन
द्यूत पर्व
व्यासजी की भविष्यवाणी से युधिष्ठिर की चिन्ता | दुर्योधन का मय निर्मित सभा भवन को देखना | युधिष्ठिर के वैभव को देखकर दुर्योधन का चिन्तित होना | पाण्डवों पर विजय प्राप्त करने के लिए दुर्योधन-शकुनि की बातचीत | दुर्योधन का द्यूत के लिए धृतराष्ट्र से अनुरोध | धृतराष्ट्र का विदुर को इन्द्रप्रस्थ भेजना | दुर्योधन का धृतराष्ट्र को अपने दुख और चिन्ता का कारण बताना | युधिष्ठिर को भेंट में मिली वस्तुओं का दुर्योधन द्वारा वर्णन | दुर्योधन द्वारा युधिष्ठिर के अभिषेक का वर्णन | दुर्योधन को धृतराष्ट्र का समझाना | दुर्योधन का धृतराष्ट्र को उकसाना | द्यूतक्रीडा के लिए सभा का निर्माण | धृतराष्ट्र का युधिष्ठिर को बुलाने के लिए विदुर को आज्ञा देना | विदुर और धृतराष्ट्र की बातचीत | विदुर और युधिष्ठिर बातचीत तथा युधिष्ठिर का हस्तिनापुर आना | जुए के अनौचित्य के सम्बन्ध में युधिष्ठिर-शकुनि संवाद | द्यूतक्रीडा का आरम्भ | जुए में शकुनि के छल से युधिष्ठिर की हार | धृतराष्ट्र को विदुर की चेतावनी | विदुर द्वारा जुए का घोर विरोध | दुर्योधन का विदुर को फटकारना और विदुर का उसे चेतावनी देना | युधिष्ठिर का धन, राज्य, भाई, द्रौपदी सहित अपने को भी हारना | विदुर का दुर्योधन को फटकारना | दु:शासन का सभा में द्रौपदी को केश पकड़कर घसीटकर लाना | सभासदों से द्रौपदी का प्रश्न | भीम का क्रोध एवं अर्जुन को उन्हें शान्त करना | विकर्ण की धर्मसंगत बात का कर्ण द्वारा विरोध | द्रौपदी का चीरहरण | विदुर द्वारा प्रह्लाद का उदाहरण देकर सभासदों को विरोध के लिए प्रेरित करना | द्रौपदी का चेतावनी युक्त विलाप एवं भीष्म का वचन | दुर्योधन के छल-कपटयुक्त वचन और भीम का रोषपूर्ण उद्गार | कर्ण और दुर्योधन के वचन एवं भीम की प्रतिज्ञा | द्रौपदी को धृतराष्ट्र से वर प्राप्ति | कौरवों को मारने को उद्यत हुए भीम को युधिष्ठिर का शान्त करना | धृतराष्ट्र का युधिष्ठिर को सारा धन लौटाकर इन्द्रप्रस्थ जाने का आदेश
अनुद्यूत पर्व
दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पुन: द्युतक्रीडा के लिए पाण्डवों को बुलाने का अनुरोध | गान्धारी की धृतराष्ट्र को चेतावनी किन्तु धृतराष्ट्र का अस्वीकार करना | धृतराष्ट्र की आज्ञा से युधिष्ठिर का पुन: जुआ खेलना और हारना | दु:शासन द्वारा पाण्डवों का उपहास | भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव की भीषण प्रतिज्ञा | विदुर का पाण्डवों को धर्मपूर्वक रहने का उपदेश देना | द्रौपदी का कुन्ती से विदा लेना | कुन्ती का विलाप एवं नगर के नर-नारियों का शोकातुर होना | वनगमन के समय पाण्डवों की चेष्टा | प्रजाजनों की शोकातुरता के विषय में धृतराष्ट्र-विदुर का संवाद | शरणागत कौरवों को द्रोणाचार्य का आश्वासन | धृतराष्ट्र की चिन्ता और उनका संजय के साथ वार्तालाप

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः