सहदेव द्वारा दक्षिण दिशा की विजय

महाभारत सभा पर्व के ‘दिग्विजय पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 31 के अनुसार सहदेव द्वारा दक्षिण दिशा की विजय का वर्णन इस प्रकार है[1]-

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! सहदेव भी धर्मराज युधिष्ठिर से सम्मानित हो दक्षिण दिशा पर विजय पाने के लिये विशाल सेना के साथ प्रस्थित हुए। शक्तिशाली सहदेव ने सबसे पहले समस्त शूरसेन निवासियों को पूर्णरूप से जी लिया, फिर मत्स्यराज विराट को अपने अधीन बनाया। राजाओं के अधिपति महाबली दन्तवक्र को भी परास्त किया और उसे कर देने वाला बनाकर फिर उसी राज्य पर प्रतिष्ठित कर दिया। इसके बाद राजा सुकुमार तथा सुमित्र को वश में किया। इसी प्रकार अपर मत्स्यों और लुटेरों पर भी विजय प्राप्त की। तदनन्तर निषाद देश तथा पर्वत प्रवर गोश्रृंग को जीतकर बुद्धिमान सहदेव ने राजा श्रेणिमान् को वेगपूर्वक परास्त किया। फिर नरराष्ट्र को जीतकर राजा कुन्तिभोज पर धावा किया। परंतु कुन्तिभोज ने प्रसन्नता के साथ ही उसका शासन स्वीकार कर लिया। इसके बाद चर्मण्वती के तटपर सहदेव ने जम्भूके के पुत्र को देखा, जिसे पूर्ववैरी वासुदेव ने जीवित छोड़ दिया था। भारत! उस जम्भू पुत्र ने सहदेव के साथ घोर संग्राम किया, पंरतु सहदेव उसे युद्ध में जीतकर दक्षिण दिशा की ओ बढ़ गये। वहाँ महाबली माद्रीकुमार ने सेक और अपन सेक देशों पर विजय पायी और उन सबसे नाना प्रकार के रत्न भेंट में लिये। तत्पश्चात सेकाधिपति को साथ ले उन्होंने नर्मदा की और प्रस्थान किया। अश्विनीकुमार के पुत्र प्रतापी सहदेव ने वहाँ युद्ध में विशाल सेना से घिरे हुए अवन्ती के राजकुमार विन्द और अनुविन्द को परास्त किया। वहाँ से रत्नों की भेंट लेकर वे भोजकट नगर में गये। अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले राजन! वहाँ दो दिनों तक युद्ध होता रहा। माद्रीनन्दन ने उस संग्राम में दुर्धर्ष वीर भीष्म को परास्त करके कोसलाधिपति, वेधानदी के राजाओं को भी समर में पराजित किया। तत्पश्चात नाटकेयों और हेरम्बकों को भी युद्ध में हाराया। महाबली पाण्डुनन्दन सहदेव ने मारंध तथा रम्याग्राम को बलपूर्वक परास्त करके नाचीन, अर्बुक तथा समस्त वनेचर राजाओं को जीत लिया। तदनन्तर महाबली माद्री कुमार ने राजा वाताधिप को वश में किया। फिर पुलिन्दों को संग्राम में हराकर नकुल के छोटे भाई सहदेव दक्षिण दिशा में और आगे बढ़ गये। तत्पश्चात उन्होंने पाण्ड्य नरेश के साथ एक दिन युद्ध किया। उन्हें जीतकर महाबाहु सहदेव दक्षिणापथ की ओर गये और लोक विख्यात किष्किन्धा नामक गुफा में जा पहुँचे। वहाँ वानरराज मैन्द और द्विविद के साथ उन्होंने सात दिनों तक युद्ध किया, किंतु उन दोनों का कुछ बिगाड़ न हो सका। तब वे दोनों महात्मा वानर अत्यन्त प्रसन्न हो सहदेव से प्रेमपर्वूक बोले-‘पाण्डव प्रवर! तुम सब प्रकार के रत्नों की भेंट लेकर जाओ। परम बुद्धिमान धर्मराज के कार्य में कोई विघ्न नही पड़ना चाहिये।’ तदनन्तर वे नरश्रेष्ठ वहाँ से रत्नों की भेंंट लेकर माहिष्मती पुरी को गये और वहाँ राजा नील के[2] साथ घोर युद्ध किया। शत्रुवीरों का नाश करने वाले पाण्डुपुत्र सहदेव बड़ेे प्रतापी थे। उनसे राजा नील का जो महान युद्ध हुआ, वह कायरों को भयभीत करने वाला, सेनाओं का विनाशक और प्राणों को संशय में डालने वाला था। भगवान अग्निदेव राजा नील की सहायता कर रहे थे।[1] उस समय सहदेव की सेना में रथ, घोड़े, हाथी, मनुष्य औ कवच सभी आग से जलते दिखायी देने लगे। जनमेजय! इससे कुरुनन्दन सहदेव के मन में बड़ी घबराहट हुई। वे इसका प्रतीकार करने में असमर्थ हो गये।

जनमेजय ने पूछा- ब्रह्मन! सहदेव तो यज्ञ के लिये ही चेष्टा कर रहे थे, फिर भगवान अग्नि देव उस युद्ध में उनके विरोधी कैसे हो गये? वैशम्पायनजी ने कहा- जनमेजय! सुनन में आया है कि महिष्मती नगरी में निवास करने वाले भगवान अग्निदेव किसी समय उस नील राजा की कन्या सुदर्शना के प्रति आसक्त हो गये। राजा नील के एक कन्या थी, जो अनुपम सुन्दरी थी। वह सदा अपने पिता के अग्निहोत्रगृह में अग्नि को प्रज्वलित करने के लिये उपस्थित हुआ करती थी। पंखे से हवा करने पर भी अग्निदेव तब तक प्रज्वलित नहीं होते थे, जब तक कि वह सुन्दरी अपने मनोहर ओष्ठसम्पुट से फूँक मारकर हवा न देती थी। तत्पश्चात भगवान अग्नि उस सुदर्शन नाम की राजा कन्या को चाहने लगे। इस बात को राजा नील और सभी नागरिक जान गये। तदनन्तर एक दिन ब्राह्मण का रूप धारण करके इच्छानुसार घूमते हुए अग्निदेव उस सर्वांग सुन्दरी कमलनयनी कन्या के पास आये और उसके प्रति कामभाव प्रकट करने लगे। धर्मात्मा राजा नील ने शास्त्र के अनुसार उस ब्राह्मण पर शासन किया। तब क्रोध से भगवान अग्निदेव अपने रूप में प्रज्वलित हो उठे। उन्हें इस रूप में देखकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने पृथ्वी पर मस्तक रखकर अग्निदेव को प्रणाम किया। तत्पश्चात विवाह के योग्य समय आने पर राजा ने उस कन्या को ब्राह्मण रूपधारी अग्निदेव की सेवा में अर्पित कर दिया और उनके चरणों में सिर रखकर नमस्कार किया। राजा नील की सुन्दरी कन्या को पत्नी रूप में ग्रहण करके भगवान अग्नि ने राजा पर अपना कृपाप्रसाद प्रकट किया। वे उनकी अभीष्ट सिद्धि में सर्वोत्तम सहायक हो राजा से वर माँगने का नुरोध करने लगे। राजा ने अपनी सेना के प्रति अभयदान माँगा। राजन्! तभी से जो कोई नरेश अज्ञानवश उस पुरी को बलपूर्वक जीतना चाहते, उन्हें अग्निदेव जला देते थे। कुरुश्रेष्ठ जनमेजय! उस समय माहिष्मतीपुरी में युवती स्त्रियाँ इच्छानुसार ग्रहण करने के योग्य नही रह गयी थीं (क्योंकि वे स्वतन्त्रता से ही वर का वरण किय करती थीं)। अग्निदेव ने स्त्रियों के लिये यह वर दे दिया था कि अपने प्रतिकूल होने के कारण ही कोई स्त्रियों को वर का स्वयं ही वरण करने से रोक नहीं सकता। इससे वहाँ की स्त्रियाँ स्वेच्छापर्वूक वर का वरण करने के लिये विचरण किया करती थीं। भरतश्रेष्ठ जनमेजय! तभी से सब राजा (जो इस रहस्य से परिचित थे) अग्नि के भय के कारण माहिष्मतीपुरी पर चढ़ाई नहीं करते थे। राजन्! धर्मात्मा सहदेव अग्नि से व्याप्त हुई अनी सेना को भय से पीड़ित देख पर्वत की भाँति अविचल भाव से खड़े रहे, भय से कम्पित नहीं हुए। उन्होंने आचमन करके पवित्र हो अग्निदेव से इस प्रकार कहा। सहदेव बोले- कृष्णवर्त्मन्! हमारा यह आयोजन तो आप ही के लिये है, आपको नमस्कार है। पावक! आप देवताओं के मुख हैं, यज्ञस्वरूप हैं। आप सबको पवित्र करने के कारण पावक हैं और हव्य (हवनीय पदार्थ) को वहन करने के कारण हव्यवाहन कहलाते हैं। वेद आपके लिये ही जात अर्थात प्रकट हुए हैं, इसीलिये आप जातवेदा हैं।[3] विभावसो! आप ही चित्रभानु, सुरेश और अनल कहलाते हैं। आप सदा स्वर्गद्वार का स्पर्श करते हैं। आप आहुति दिये हुए पदार्थों को खाते हैं, इसलिये हुताशन हैं। प्रज्वलित होने से ज्वलन और शिखा (लपट) धारण करने से शिखी हैं। आप ही वैश्वानर, पिंगेश, प्लवंग और भूरितेजस नाम धारण करते हैं। आपने ही कुमार कार्तिकेय को जन्म दिया है, आप ही ऐश्वर्यसम्पन्न होने के कारण भगवान हैं। श्रीरुद्र वीर्य धारण करने से आप रुद्रर्गीा कहलाते हैं। सुवर्ण के उत्पादक होने से आपका नाम हिरण्यकृत है। आप अग्नि मुझे तेज दें, वायुदेव प्राणशक्तित प्रदान करें, पृथ्वी मुझ में बल का आधान करें और जल मुझे कल्याण प्रदान करें। जल को प्रकट करने वाले महान् शक्ति सम्पन्न जातवेदा सुरेश्वर अग्निदेव! आप देवताओं के मुख है, अपने सत्य के प्रभाव से आप मुझे पवित्र कीजिये। ऋषि, ब्राह्मण, देवता तथा असुर भी सदा यज्ञ करते समय आप में आहुति डालते हैं, अपने सत्य के प्रभाव से आप मुझे पवित्र करें। देव! धूम आपका ध्वज है, आप शिखा धारण करने वाले हैं, वायु से आपका प्राकट्य हुआ है। आप समस्त पापों के नाशक हैं। सम्पूर्ण प्राणियों के भीतर आप सदा विराजमान हैं। अपने सत्य के प्रभाव से आप मुझे पवित्र कीजिये। भगवन्! मैंने पवित्र होकर प्रेमभाव से आपका इस प्रकार स्तवन किया है। अग्निदेव! आप मुणे तुष्टि, पुष्टि, श्रवण-शक्ति एवं शास्त्रज्ञान और प्रीति प्रदान करें।

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! जो द्विज इस प्रकार इन श्लोक रूप आग्रेय मंत्रों का पाठ करते हुए (अन्त में स्वाहा बोलकर) भगवान अग्निदेव को आहुति समर्पित करता है, वह सदा समृद्धिशाली और जितेन्द्रिय होकर सब पापों से मुक्त हो जाता है। सहदेव बोले- हव्यवाहन! आपको यज्ञ में यह विघ्न नहीं डालना चाहिये। भारत! ऐसा कहकर नरश्रेष्ठ माद्रीकुमार सहदेव धरती पर कुश बिछाकर अपनी भयभीत और उद्विग्न सेना के अग्रभाग में विधिपूर्वक अग्नि के सम्मुख धरना देकर बैठ गये। जैसे महासागर अपनी तटीाूमि का उल्लंघन नहीं करता, उसी प्रकार अग्निदेेव सहदेव को लाँघकर उनकी सेना में नहीं गये। वे कुरुकुल को आनन्दित करने वाले नरदेव सहदेव के पास धीरे-धीरे आकर उन्हें सान्त्वना देते हुए यह वचन बोले- ‘कौरव्य! उठो, उठो, मैंने यह तुम्हारी परीक्षा की है। तुम्हारे और धर्मपुत्र युधिष्ठिर के सम्पूर्ण अभिप्राय को मैं जानता हूँ। परंतु भरतसत्तम! राजा नील के कुल में जब तक उनकी वंशपरम्परा चलती रहेगी, तब तक मुण्े इस माहिष्मतीपुरी की रक्षा करनी होगी। पाण्डुकुमार! साथ ही मैं तुम्हारा मनोरथ भी पूर्ण करूँगा।’ भरतश्रेष्ठ! जनमेजय! यह सुनकर माद्रीकुमार सहदेव प्रसन्नचित हो वहाँ से उठे ओर हाथ जोड़कर एवं सिर झुकाकर उन्होंने अग्निदेव का पूजन किया। अग्नि के लौट जाने पर उन्हीं की आज्ञा से राजा नील उस समय वहाँ आये और उन्होंने योद्धाओं के अधिपति पुरुसिंह सहदेव का सत्कारपूर्वक पूजन किया। राजा नील की वह पूजा ग्रहण कर और उन पर कर लगाकर विजयी माद्रीकुमार सहदेव दक्षिण दिशा की ओर बढ़ गये। फिर त्रिपुरी के राजा अमितौजा को वश में करके महाबाहु सहदेव ने पौरवेश्वर को वेगपूर्वक बंदी बना लिया। तदनन्तर बड़े भारी प्रयत्न के द्वारा विशाल भुजाओं वाले माद्रीकुमार ने सुराष्ट्रदेश के अधिपति कौशिकाचार्य आकृति को वश में किया। महाराज! सुराष्ट्र में ही ठहरकर धर्मात्मा सहदेव ने भोजकट निवासी रुक्मी तथा विशाल राज्य के अधिपति परम बुद्धिमान साक्षात इन्द्रसखा भीष्मक के पास दूत भेजा। पुत्र सहित भीष्मक ने वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण की ओर दृष्टि रखकर प्रेमपूर्वक ही सहदेव का शासन स्वीकार कर लिया। तदनन्तर योद्धाओं के अधिपति सहदेव वहाँ से रत्नों की भेंट लेकर पुन: आगे बढ़ गये। महाबलशाली महातेजस्वी माद्रीकुमार ने शूर्पारक और तालाकट नामक देशों को जीतते हुए दण्डकारण्य को अपने अधीन कर लिया। तत्पश्चात समुद्र के द्विपों में निवास करने वाले म्लेच्छजातीय राजाओं, निषादों तथा राक्षसों, कर्णप्रावरणों[4] को भी परास्त किया। कालमुख नाम से प्रसिद्ध जो मनुष्य और राक्षस दोनों के संयोग से उत्पन्न हुए योद्धा थे, उन पर भी विजय प्राप्त की। समूचे कोलगिरि, सुरभीपत्तन, ताम्रद्वीप, रामकपर्वत तथा तिमिंगिल नरेश को भी अपने वश में करके परम बुद्धिमान सहदेव ने एक पैर के पुरुषों, केरलों, वनवासियों, संजयन्ती नगरी तथा पाखण्ड और करहाटक देशों का दूतों द्वारा संदेश देकर ही अपने अधीन कर लिया और उन सबसे कर वूसल किया।[5]

पाण्ड्य, द्रविड, उण्ड्र, केरल, आन्ध्र, तालवन, कलिंग, उष्ट्रकर्णिक, रमणीय आटवीपुरी तथा यवनों के नगर- इन उबको उन्होंने दूतों द्वारा ही वश में कर लिया और सबको कर देने के लिये विवश किया। वहाँ से समुद्र तट पर पहुँचकर पाण्डुनन्दन सहदेव ने सेना का पड़ाव डाला। भारत! तदनन्तर महाबाहु सहदेव ने अत्यन्त बुद्धिमान मन्त्रणा देने में कुशल सचिवों के साथ बैठकर बहुत देर तक विचारविमार्श किया। राजेन्द्र जनमेजय! उन सबकी सम्मति को आदर देते हुए माद्रीकुमार ने अपने भतीजे राक्षसराज घटोत्कच का तुरंत चिन्तन किया। उनके चिन्तर करते ही वह बड़े डील-डौलवाला विशाल काय राक्षस दिखायी दिया। उसने सब प्रकार के आभूषण धारण कर रक्खे थे। उसके शरीर का रंग मेघों की काल घटा के समान था। उसके कानों में तपाये हुए सुवर्ण के कुण्डल झिलमिला रहे थे। उसके गले मेें हार और भुजाओं मे केयूर की विचित्र शोभा हो रही थी। कटिभाग में वह किंकिणी की मणियों से विभूषित था। उसके कण्ठ में सुवर्ण की माला, मस्तक पर किरीट और कमर में करधनी की शोभा हो रही थी। उसके दाढ़े बहुत बड़ी थीं, सिर के बाल ताँबे के समान लाल थे, मूँछ दाढ़ी- जो अपने कानों से ही शरीर को ढक लें उनहें ‘कर्णप्रावरण’ कहते हैं। प्राचीन काल में ऐसी जाति के लोग थे, जिनके कान पैरों तक लटकते थे। के बाल हरे दिखायी देते थे एवं आँखें बड़ी भयंकर थीं। उसकी भुजाओं में सोने के बाजूबंद चमक रहे थे। उसने अपने सब अंगों में लाल चन्दन लगा रखा था। उसके पकड़े बहुत महीन थे। वह बलावान राक्षस अपने वेग से समूची पृथ्वी को हिलाता हुआ सा वहाँ पहुँचा।। राजन्! उस पर्वताकार घटोत्कच को आता देख वहाँ के सब लोग भय के मारे भाग खड़े हुए, मानो किसी सिंह के भय से जंगल के मृग आदि क्षुद्र पशु भाग रहे हों। घटोत्कच माद्रीनन्दन सहदेव के पास आया, मानो रावण ने महर्षि पुलस्त्य के पास पदार्पण किया हो। महाराज! तदनन्तर घटोत्कच सहदेव को प्रणाम करके उनके सामने विनीतभाव से हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और बोला ‘मेरे लिये क्या आज्ञा है?’ घटोत्कच मेरुपर्वत के शिखर जैसा जान पड़ता था। उसको आया देख पाण्डुनन्दन सहदेव ने दोनों भुजाओं में भरकर उसे हृदय से लगा लिया और बार-बार उसका मस्तक सूँघा। तत्पश्चात उसका स्वागत सत्कार करके मन्त्रियों सहित सहदेव बड़े प्रसन्न हुए और इस प्रकार बोले।

सहदेव ने कहा- वत्स! तुम मेरी आज्ञा से कर लेने के लिये लंकापुरी में जाओं और वहाँ राक्षसराज महात्मा विभीषण से मिलकर राजसूयज्ञ के लिए भाँति-भाँति के बहुत से रत्न प्राप्त करो। महाबली वीर! उनकी ओर से भेंट से मिली हुई सब वस्तुएँ लेकर शीघ्र यहाँ लौट आओ। बेटा यदि विभीषण तुम्हें भेंट न दें, तो उन्हें अपनी शक्ति का परिचय देते हुए इस प्रकार कहना- ‘कुबेर के छोटे भाई लंकेश्वर! कुन्तीकुमार युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण के बाहुबल को देखकर भाइयों सहित राजसूयज्ञ आरम्भ किया है। आप इस समय इन बातों को अच्छी तरह जान लें। आपका कल्याण हो, अब मैं यहाँ से चला जाऊँगा।’ इतना कहकर तुम शीर्घ लौट आना, अधिक विलम्ब मत करना। वैशम्पायनजी कहते हैं- महाराज जनमेजय! पाण्डुकुमार सहदेव के ऐसा कहने पर घटोत्कच बहुत प्रसन्न हुआ और ‘तथास्तु’ कहकर सहदेव की परिक्रमा करके दक्षिणा दिशा की ओर चल दिया। इस प्रकार समुद्र के तटपर पहुँचकर बुद्धिमान शत्रुदमन धर्मात्मा माद्रवतीकुमार ने महात्मा पुलस्तयनन्दन विभीषण के पास प्रेमपूर्वक घटोत्कच को अपना दूत बनाकर भेजा।[6] राजन! लंका की ओर जात हुए घटोत्कच ने समुद्र को देखा। वह कछुओं, मगरों, नाकों तथा मत्स्य आदि जल जन्तुओं से भरा हुआ था। उसमें ढेर के ढेर शंख सीपियाँ छा रही थीं। भगवान श्रीराम के द्वारा बनवाये हुए पुल को देखकर घटोत्कचको भगवान के पराक्रम का चिन्तन हो आया और उस सेतुतीर्थ को प्रणाम करके उसने समुद्र के दक्षिणतट की ओर दृष्टिपात किया। राजेन्द्र! तत्पश्चात दक्षिणतअ पर पहुँचकर घटोत्कच ने लंकापुरी देखी, जो स्वर्ग के समान सुन्दर थी। उसके चारों ओर चहारदीवारी बनी थी। सुन्दर फाटक उस रमणीय पुरी की शोभा बढ़ाते थे। सफेद और लाल रंग के हजारों महलों से वह लंकापुरी भरी हुई थी। वहाँ के गवाक्ष (जंगले) सोने के बने हुए थे और उनके भीतर मोतियों की जाली लगी हुई थी। कितने ही गवाक्ष सोने, चाँदी तथा हाथी दाँत की जालियों से सुशोभित थे। कितनी ही अठ्ठालिकाएँ तथा गोपुर उस नगरी की शोैभा बढ़ाते थे। स्थान-स्थान पर सोने के फाटक लगे हुए थे। वहाँ दिव्य दुन्दुभियों की गम्भीर घ्वनि गूँजती रहती थी। बहुत से उद्यान और वन उस नगरी की श्रीवृद्धि कर रहे थे। उसमं चारों ओर फूलों की सुगन्ध छा रही थी। वहाँ की लंबी-चौड़ी सड़कें बहुत सन्दर थीं। भाँति-भाँति के रत्नों से भरी पुरी लंका इन्द्र की अमरावतीपुरी को भी लज्जित कर रही थी। घटोत्कच ने राक्षसों से सेवित उस लंकापुरी में प्रवेश किया और देखा, झुंड के झुंड राक्षस त्रिशूल और भाले लिये विचर रहे हैं। वे सभी युद्ध में कुशल है और नाना प्रकार के वेष धारण करते हैं। घटोत्कच ने वहाँ की नारियों को भी देखा। वे सब की सब बड़ी सुन्दर थीं। उनके अंगों में दिव्य वस्त्र, दिव्य आभूषण तथा दिव्य हार शोभा दे रहे थे। उनके नेत्रों के किनारे मदिरा के नशे से कुछ लाल हो रहे थे। उनके नितम्ब और उरोज उभरे हुए तथा मांसल थे। भीमसेन पुत्र घटोत्कच को वहाँ आया देख लंकानिवासी राक्षसों को बड़ा हर्ष और विस्मय हुआ। इधर घटोत्कच इन्द्रभवन में समान मनोहर राजमहल के द्वार पर जा पहुँचा और द्वारपाल से इस प्रकार बोला। घटोत्कच ने कहा- कुरुकुल में एक श्रेष्ठ राजा हो गये हैं। वे महाबली नरेश ‘पाण्डु’ के नाम से विख्यात थे। उनके सबसे छोटे पुत्र का नाम ‘सहदेव’ है। वे अपने बड़े भाई युधिष्ठिर का राजसूयज्ञ सम्पन्न कराने के लिये कटिबद्ध हैं। धर्मराज युधिष्ठिर के सहायक भगवान श्रीकृष्ण हैं। सहदेव ने कुरुराज युधिष्ठिर के लिये कर लेने के निमित्त मुझे दूत बनाकर यहाँ भेजा है। मैं पुलस्त्यनन्दन महाराज विभीषण से मिलना चाहता हूँ। तुम शीघ्र जाकर उन्हें मेरे आगमन की सूचना दो। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! घटोत्कच का वह वचन सुनकर वह द्वारपाल ‘बहुत अच्छा’ कहकर सूचना देने के लिये राजभवन के भीतर गया। वहाँ उसने हाथ जोड़कर दूत की कही हुई सारी बातें कह सुनायीं। द्वारपाल की बात सुनकर धर्मात्मा राक्षसराज विभीषण ने उससे कहा- ‘दूत को मेरे समीप ले आओ।’ राजेन्द्र! धर्मज्ञ महात्मा विभीषण की ऐसी आज्ञा होने पर द्वारपाल बड़ी उतावली के साथ बाहर निकला और घटोत्कच से बोला-। ‘दूत! आओ। महाराज से मिलने के लिये राजभवन में शीघ्र प्रवेश करो।’ द्वारपाल का कथन सुनकर घटोत्कच ने राजभवन में प्रवेश किया।[7] तदनन्तर उसमें प्रवेश करके उसने राक्षसराज विभीषण का महल देखा, जो अपनी उज्ज्वल आभा से कैलाश के समान जान पड़ता था। उसका फाटक तपकर शुद्ध किये हुए सोने से तैयार किया गया था। चहारदीवारी से घिरा हुआ वह राजमन्दिर अने गोपुरों से सुशोभित हो रहा था। उसमें बहुत सी अठ्ठालिकाएँ तथा महल बने हुए थे। भाँति-भाँति के रत्न उस राजभवन की शोभा बढ़ाते थे।। तपाये हुए सुवण, रजत (चाँदी) तथा स्फटिकमणि के बने हुए खम्भे नेत्र और मन को बरबस अपनी ओर खींच लेते थे। उन खम्भों में हीरे और वैडूर्य जड़े हुए थे। सुनहरे रंग की विविध ध्वजा पताकाओं से उस भवय भवन की विचित्र शोभा हो रही थी।। विचित्र मालाओं से अलंकृत तथा विशुद्ध स्वर्णमय वेदिकाओं से विभूषित वह राजभवन बड़ा रमणीय दिखायी दे रहा था। उस महल की इन सारी मनोरम विशेषताओं को देखकर घटोत्कच ने ज्यो ही भीतर प्रवेश किया, त्यों ही उसके कानों में मृदंग की मधुर ध्वनि सुनायी पड़ी।। वहाँ वीणा के तार झंकृत हो रहे थे और उसके लय पर गीत गाया जा रहा था, जिसका एक-एक अक्षर समताल के अनुसार उच्चारित हो रहा था। सैकड़ों वाद्यों के साथ दिव्य दुन्दुभियों का मधुर घोष गूँज रहा था। भरतश्रेष्ठ! वह मधुर शब्द सुनकर घटोत्कच के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने अनेक मनोरम कक्षाओं को पार करके द्वारपाल के साथ जा सुन्दर स्वर्णसिंहासन पर बैठे हुए महात्मा विभीषण का दर्शन किया। उनका सिंहासन सूर्य के समान प्रकाशित हो रहा था और उसमें मोती तथा मणि आदि रतन जड़े हुए थे। दिव्य आभूष्णों से राक्षसराज विभीषण अंगों क विचित्र शोभा हो रही थी। उनका रूप दिव्य था। वे दिव्य माला और दिव्य वस्त्र धारण करके दिव्य गन्ध से अभिषिक्त हो बड़े सुन्दर दिखायी दे रहे थे। उनकी अंगकान्ति सूर्य तथा अग्नि के समान उद्भासित हो रही थी। जैसे इन्द्र के पास बहुत से देवता बैठते हैं, उसी प्रकार विभीषण के समीप उनके सचिव बैठे थे। बहुत से दिव्य सुन्दर महारथी यक्ष अपनी स्त्रियों के साथ मंगलयुक्त वाणी द्वारा विभीषण का विधिपूर्वक पूजन कर रहे थे। दो सुन्दरी नारियाँ सुवणर्मय दण्ड से विभूषित बहुमूल्य चँवर तथा व्यजन लेकर उनके मस्मक पर डुला रही थीं। राक्षसराज विभीषण कुबरे और वरुण के समान राज लक्ष्मी से सम्पन्न एवं अद्भुत दिखायी देते थे। उनके अंगों से दिव्य प्रभा छिटक रही थी। वे सदा धर्म में स्थित रहते थे। वे मन ही मन इक्ष्वाकुवंशशिरोमणी श्रीरामचन्द्रजी का स्मरण करते थे। राजन! उन राक्षसराज विभीषण को देख घटोत्कच ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया। और जैसे महापराक्रमी चित्रराि इन्द्र के सामने नम्र रहते हैं, उसी प्रकार महाबली घटोत्कच भी विनीत भाव से उनके सम्मुख खड़ा हो गया। राक्षसराज विभीषण ने उस दूत को आया हुआ देख उसका यथायोग्य सम्मान करके सान्त्वनापूर्ण वचनों में कहा।

विभीषण ने पूछा- दूत! जो महाराज मुझ से कर लेना चाहते हैं, वे किसके कुल में उत्पन्न हुए हैं। उनके समस्त भाइयों तथा ग्राम ओर देश का परिचय दो। मैं तुम्हारे विषय में भी जानना चाहता हूँ तथा तुम जिस कार्य के लिये कर लेने आये हो, उस समस्त कार्य के विषय में भी मैं यथार्थरूप से सुनना चाहता हूँ। तुम मेरी पूछी हुई इन सब बातों को विस्तारपूर्वक पृथक-पृथक बताओ।[8] तदनन्तर उसमें प्रवेश करके उसने राक्षसराज विभीषण का महल देखा, जो अपनी उज्ज्वल आभा से कैलाश के समान जान पड़ता था। उसका फाटक तपकर शुद्ध किये हुए सोने से तैयार किया गया था। चहारदीवारी से घिरा हुआ वह राजमन्दिर अने गोपुरों से सुशोभित हो रहा था। उसमें बहुत सी अठ्ठालिकाएँ तथा महल बने हुए थे। भाँति-भाँति के रत्न उस राजभवन की शोभा बढ़ाते थे। तपाये हुए सुवण, रजत (चाँदी) तथा स्फटिकमणि के बने हुए खम्भे नेत्र और मन को बरबस अपनी ओर खींच लेते थे। उन खम्भों में हीरे और वैडूर्य जड़े हुए थे। सुनहरे रंग की विविध ध्वजा पताकाओं से उस भवय भवन की विचित्र शोभा हो रही थी। विचित्र मालाओं से अलंकृत तथा विशुद्ध स्वर्णमय वेदिकाओं से विभूषित वह राजभवन बड़ा रमणीय दिखायी दे रहा था। उस महल की इन सारी मनोरम विशेषताओं को देखकर घटोत्कच ने ज्यो ही भीतर प्रवेश किया, त्यों ही उसके कानों में मृदंग की मधुर ध्वनि सुनायी पड़ी। वहाँ वीणा के तार झंकृत हो रहे थे और उसके लय पर गीत गाया जा रहा था, जिसका एक-एक अक्षर समताल के अनुसार उच्चारित हो रहा था। सैकड़ों वाद्यों के साथ दिव्य दुन्दुभियों का मधुर घोष गूँज रहा था। भरतश्रेष्ठ! वह मधुर शब्द सुनकर घटोत्कच के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने अनेक मनोरम कक्षाओं को पार करके द्वारपाल के साथ जा सुन्दर स्वर्णसिंहासन पर बैठे हुए महात्मा विभीषण का दर्शन किया। उनका सिंहासन सूर्य के समान प्रकाशित हो रहा था और उसमें मोती तथा मणि आदि रतन जड़े हुए थे। दिव्य आभूष्णों से राक्षसराज विभीषण अंगों क विचित्र शोभा हो रही थी। उनका रूप दिव्य था। वे दिव्य माला और दिव्य वस्त्र धारण करके दिव्य गन्ध से अभिषिक्त हो बड़े सुन्दर दिखायी दे रहे थे। उनकी अंगकान्ति सूर्य तथा अग्नि के समान उद्भासित हो रही थी। जैसे इन्द्र के पास बहुत से देवता बैठते हैं, उसी प्रकार विभीषण के समीप उनके सचिव बैठे थे। बहुत से दिव्य सुन्दर महारथी यक्ष अपनी स्त्रियों के साथ मंगलयुक्त वाणी द्वारा विभीषण का विधिपूर्वक पूजन कर रहे थे। दो सुन्दरी नारियाँ सुवणर्मय दण्ड से विभूषित बहुमूल्य चँवर तथा व्यजन लेकर उनके मस्मक पर डुला रही थीं। राक्षसराज विभीषण कुबरे और वरुण के समान राज लक्ष्मी से सम्पन्न एवं अद्भुत दिखायी देते थे। उनके अंगों से दिव्य प्रभा छिटक रही थी। वे सदा धर्म में स्थित रहते थे। वे मन ही मन इक्ष्वाकुवंशशिरोमणी श्रीरामचन्द्रजी का स्मरण करते थे। राजन! उन राक्षसराज विभीषण को देख घटोत्कच ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया। और जैसे महापराक्रमी चित्रराि इन्द्र के सामने नम्र रहते हैं, उसी प्रकार महाबली घटोत्कच भी विनीत भाव से उनके सम्मुख खड़ा हो गया। राक्षसराज विभीषण ने उस दूत को आया हुआ देख उसका यथायोग्य सम्मान करके सान्त्वनापूर्ण वचनों में कहा।

विभीषण ने पूछा- दूत! जो महाराज मुझ से कर लेना चाहते हैं, वे किसके कुल में उत्पन्न हुए हैं। उनके समस्त भाइयों तथा ग्राम ओर देश का परिचय दो। मैं तुम्हारे विषय में भी जानना चाहता हूँ तथा तुम जिस कार्य के लिये कर लेने आये हो, उस समस्त कार्य के विषय में भी मैं यथार्थरूप से सुनना चाहता हूँ। तुम मेरी पूछी हुई इन सब बातों को विस्तारपूर्वक पृथक-पृथक बताओ।[9] उन्होंने सहदेव के लिये हाथी के पीठ पर बिछाने योग्य विचित्र कम्बल (कालीन) तथा हाथी दाँत और सुवर्ण के बने हुए पलंग दिये, जिनमें सोने तथा रत्न जड़े हुए थे। इसके सिवा बहुत से विचित्र और बहुमूल्य आभूषण भी भेंट किये। सुन्दर मूँगे, भाँति-भाँति के मणिरत्न, सोने के बर्तन, कलश, घड़े, विचित्र कड़ाहे और हजारों जलपात्र समर्पित किये। इनके सिवा चाँदी के भी बहुत से ऐस बर्तन दिये, जिनमें चित्रकारी की गयी थीं। कुछ से शस्त्र भेंट किये, जिनमें सुवर्ण, मणि और मोती जड़े हुए थे। यज्ञ के फाटक पर लगाने योग्य चौदह ताड़ प्रदान किये। सुवर्णमय कमलपुष्प और मणिजटित शिविकाएँ भी दीं। बहुमूल्य मुकुट, सुनहले कुण्डल, सोने के बने हुए अनेकानेक पुष्प, सोने के ही हार तथा चन्द्रमा के समान उज्ज्वल एवं विचित्र शतावर्त शंख भेंट किये। श्रेष्ठ चन्दन, अनेेक प्रकार के सुवर्ण तथा रत्न, महँगे वस्त्र, बहुत से कम्बल, अनेक जाति के रत्न तथा और भी भाँति-भाँति के बहुमूल्य पदार्थ राजा विभीषण ने सहदेव को भेंट किये। तथा उन्होंने नाना प्रकार के रत्न, चन्दन, अगुरु के काष्ठ, दिव्य आभूषण, बहुमूल्य वस्त्र और विशेष मूल्यवान मणि रत्न भी उसके साथ भिजवाये। तदनन्तर घटोत्कच ने हाथ जोड़कर राजा विभीषण को प्रणाम किया और उनकी परिक्रमा करके वहाँ से प्रस्थान किया। राजन! घटोत्कच के साथ अट्टासी निशाचर उन सब रत्नों को पहुँचाने के लिये प्रसन्नतापूर्वक आये। इस प्रकार उन सब रत्नों को साथ ले घटोत्कच ने राक्षसों के साथ लंका से सहदेव के पड़ाव की ओर प्रस्थान किया और समुद्र लाँघकर वे सब के सब पाण्डुनन्दन सहदेव के निकट आ पहुँचे।
राजन्! सहदेव ने रत्न लेकर आये हुए भयंकर निशाचरों तथा घटोत्कच को भी देखा। उस समय उन राक्षसों को देखकर द्राविड़ सैनिक भयभीत हो सब और भागने लगे। इतने में ही भीमसेन कुमार घटोत्कच माद्रीनन्दन सहदेव के पास आ हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। पाण्डुकुमार सहदेव वह रत्न राशि देखकर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने घटोत्कच को दोनों हाथों से पकड़कर गले लगाया और दूसरे राक्षसों की ओर देखकर भी बड़ी प्रसन्नता प्रकट की। इसके बाद समस्त द्राविड़ सैनिकों को विदा करके सहदेव वहाँ से लौटने की तैयारी करने लगे। तैयारी पूरी हो जाने पर प्रतापी और बुद्धिमान सहदेव इन्द्रपस्थ की ओर चल दिये। इस प्रकार बलपूर्वक जीतकर तथा सामनीति से समझा बुझाकर सब राजाओं को अपने अधीन करके उन्हें करद बनाकर शत्रुदमन माद्रीनन्दन इन्द्रप्रस्थ में वापस आ गये। रत्नों का भारी भार साथ लिये निशाचरों के साथ सहदेव ने इन्द्रप्रस्थ नगर में प्रवेश किया। उस समय वे पैरों की धमक से सारी पृथ्वी को कम्पित करते हुए से चल रहे थे। राजन्! युधिष्ठिर को देखते ही सहदेव हाथ जोड़ नम्रता पूर्वक उनके चरणों में पड़ गये। फिर विनीत भाव से उनके समीप खड़े हो गये। उस समय युधिष्ठिर ने भी उनका बहुत सम्मान किया। लंका से प्राप्त हुई अत्यन्त दुर्लभ एवं प्रचुर धनराशियों को देखकर राजा युधिष्ठिर बड़ प्रसन्न और विस्मित हुए। भरतश्रेष्ठ जनमेजय! उस धनराशि में सहस्र कोटि से भी अधिक सुवर्ण था। विचित्र मणि एवं रत्न थे। गाय, भैंस, भेड़ और बकरियों की संख्या भी अधिक थी। राजन्! इन सबको महात्मा धर्मराज की सेवा में समर्पित करके कृतकृत्य हो सहदेव सुख पूर्वक राजधानी में रहने लगे।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 31 श्लोक 1-23
  2. यह इक्ष्वाकुवंशीय दुर्जय का पुत्र था। इसका दूसरा नाम दुर्योधन था। यह राजा बड़ा धर्मात्मा था। इसकी कथा अनुशासन पर्व के दूसरे अध्याय में आती है।
  3. महाभारत सभा पर्व अध्याय 31 श्लोक 24-42
  4. जो अपने कानों से ही शरीर को ढक लें उनहें ‘कर्णप्रावरण’ कहते हैं। प्राचीन काल में ऐसी जाति के लोग थे, जिनके कान पैरों तक लटकते थे।
  5. महाभारत सभा पर्व अध्याय 31 श्लोक 43-70
  6. महाभारत सभा पर्व अध्याय 31 श्लोक 71-73
  7. महाभारत सभा पर्व अध्याय 31 श्लोक 74/1
  8. महाभारत सभा पर्व अध्याय 31 श्लोक 74/2
  9. महाभारत सभा पर्व अध्याय 31 श्लोक 74/3

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