श्रीकृष्ण का प्राकट्य

महाभारत सभा पर्व के ‘अर्घाभिहरण पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 38 के अनुसार श्रीकृष्ण के प्राकट्य का वर्णन इस प्रकार है[1]-

युधिष्ठिर का भीष्म से कृष्ण जन्म के विषय में पूछना

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! भीष्मजी के इस प्राकर कहने पर आनन्दित करने वाले कुन्ती कुमार धर्मराज युधिष्ठिर पुन: उनसे कहा। युधिष्ठिर बाले- वक्ताओं में श्रेष्ठ नरेन्द्र! मैं यशस्वी भगवान विष्णु के वृष्णिवंश में अवतार ग्रहण करने का वृत्तान्त पुन: (विस्तारपूर्वक) जानना चाहता हूँ। पितामह! परम बुद्धिमान भगवान जनार्दन इस पृथ्वी पर मधुवंश में जिस प्रकार उत्पन्न हुए, वह सब प्रसंग मुझ से कहिये। बैल के समान विशाल नेत्रों वाले लोकरक्षक महातेजवी श्रीकृष्ण ने किस लिये कंस का वध करके गौओं की रक्षा की? बुद्धिमानों में श्रेष्ठ पितामह! उस समय बाल्यावस्था में बालकोचित क्रीड़ाएँ करते समय भगवान गोविन्द ने क्या-क्या लीलाएँ की? यह सब मुझे बताइये। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! राजा युधिष्ठिर के इस प्रकार पूछने पर महापराक्रमी भीष्म ने मधुवंश में भगवान केशव के अवतार लेने की कथा कहनी आरम्भ की।[1]

भीष्म का युधिष्ठिर को श्रीकृष्ण जन्म के समय हुई घटना के बारे में बताना

भीष्म जी बोले- कुरुरत्न युधिष्ठिर! अब मैं वृष्णिवंश में भगवान नारायण के अवतार ग्रहण का यथावत वृत्तान्त कहूँगा। भरत कूलभूषण तात अजातशत्रो! वसुधा की रक्षा करने वाले ये भगवान यहाँ किस प्रकार प्रकट हुए? यह में बतला रहा हूँ, ध्यान देकर सुनो। भगवान के जन्म के समय आनन्दोद्रेक के कारण समुद्र में उत्ताल तरंगें उठने लगीं, पर्वत हिलने लगे और बुझी हुई अग्रियाँ भी सहसा प्रज्वलित हो उठीं। भगवान जनार्दन के जन्मकाल में शीलत, मन्द्र एवं सुखद वायु चलने लगी। धरती की धूल शान्त हो गयी और नक्षत्र प्रकाशित होने लगे। आकाश में देवलोक के नगाड़े जोर-जोर से बजने लगे और वेदगण आ-आकर वहाँ फूलों की वर्षा करने लगे। वे मंगलमयी वाणी द्वारा भगवान मधुसूदन की स्तुति करने लगे। भगवान के अवतार का समय जान महर्षिगण भी अत्यन्त प्रसन्न होकर वहाँ आ पहुँचे। नारद आदि देवर्षियों को उपस्थित देख गन्धर्व और अप्सराएँ नाचने और गाने लगीं। उस समय सहस्र नेत्रों वाले शचीवल्लभ तेजस्वी इन्द्र भगवान गोविन्द की सेवा में उपस्थित हुए और महर्षियों का आदर करते हुए बोले।[1] इन्द्र ने कहा- देव! आप सम्पूर्ण जगत के स्रष्टा हैं। देवताओं के जो कर्तव्य कार्य हैं, उन सबको सम्पूर्ण जगत के हित के लिये सिद्ध करके आप अपने तेज सहित पुन: परमधामा को पधारिये। भीष्मजी कहते हैं- ऐसा कहकर स्वर्गलोक के स्वामी इन्द्र देवर्षियों के साथ अपने लोक को चले गये। राजन्! तदनन्तर वसुदेवजी ने कंस के भय से सूर्य के समान तेजस्वी अपने नवजात बालक श्रीहरि को नन्दगोप के घर में छिपा दिया। श्रीकृष्ण बहुत वर्षों तक नन्दगोप के ही घर में रहे।[2]

कृष्ण की बाल लीलाएँ

एक दिन वहाँ शिशु श्रीकृष्ण एक छकड़े के नीचे सोये थे। माता यशोदा उन्हें वहीं छोड़कर यमुना के तट पर चली गयीं। उस समय श्रीकृष्ण शिशुलीला का प्रदर्शन कतरे हुए अपनी हाथ पैर फेंक-फेंककर मधुर स्वर में रोने लगे। पैरों को ऊपर फेंकते समय भगवान केशव ने पैर के अँगूठे से छकड़े को धक्का दे दिया और इस प्रकार एक ही पाँव से छकड़े को उलटकर गिरा दिया। उसके बाद वे स्वयं औंधे मुँह हो गये और माता का स्तन पीने की इच्छा से जोर-जोर से रोने लगे। शिशु के ही पदाघात से छकड़ा उलटकर गिर गया तथा उस पर रखे हुए सभी मटके और घड़े आदि बर्तन चकनाचूर हो गये। यह देखकर सब लोगों बड़ा आश्चर्य हुआ। भरतनन्दन! शूर से नदेश (मथुरामण्डल) के निवासियों को यह अत्यन्त अद्भुत घटना प्रत्यक्ष दिखायी दी तथा वसुदेव नन्दन श्रीकृष्ण ने (आकाश में स्थित) सब देवताओं के देखते-देखते महान् कार्य एवं विशाल स्तनों वाली पूतना को भी पहले मार डाला था। महाराज! तदनन्तर संकर्षण और विष्णु के स्वरूप बलराम और श्रीकृष्ण दोनों भाई कुछ काल के अनन्तर एक साथ ही घुटनों के बल रेंगने लगे। जैसे चन्द्रमा और सूर्य एक दूसरे की किरणों से बँधकर आकाश में एक साथ विचरते हों, उसी प्रकार बलराम और श्रीकृष्ण सर्वत्र एक साथ चलते फिरते थे। उनकी भुजाएँ सर्प के शरीर की भांँति सुशोभित होती थीं। नरेश्वर! बलराम और श्रीकृष्ण दोनों के अंग धूलि धूसरित होकर बड़ी शोभा पाते। भारत! कभी वे दोनों भाई घुटनों के बल चलते थे, जिससे उनमें घट्टे पड़ गये थे। कभी वे वन में खेला करते और कभी मथते समय दही की घोर लेकर पीया करते थे। एक दिन बालक श्रीकृष्ण एकान्त गृह में छिपकर माखन खा रहे थे। उस समय वहाँ उन्हें कुछ गोपियों ने देख लिया। तब उन यशोदा आदि गोपांगनाओं ने एक रस्सी से श्रीकृष्ण को ऊखल में बाँध दिया। राजन्! उस समय उन्होंने उस ऊखल को यमलार्जुन वृक्षों के बीच में अड़ाकर उन्हें जड़ और शाखाओं सहित तोड़ डाला। वह एक अद्भुत सी घटना घटित हुई। उन वृक्षों पर दो विशालकाय असुर रहा करते थे। वे भी वृक्षों के टूटने के साथ ही अपने प्राणों से हाथ धो बैठे।[2]

श्रीकृष्ण और बलराम की बाल क्रिड़ाएँ

तदनन्तर वे दोनों भाई श्रीकृष्ण और बलराम बाल्यावस्था की सीमा को पार करके उस ब्रजमण्डल में ही सात वर्ष की अवस्था वाले हो गये। बलराम नीले रंग के और श्रीकृष्ण पीले रंग के वस्त्र धारण करते थे। एक के श्रीअंगों पर पीले रंग का अंगराग लगता था और दूसरे के श्वेत रंग का। दोनों भाई काकपक्ष (सिर के पिछले भाग में बड़े-बड़े केश) धारण किये बछड़े चराने लगे।[2] उन दोनों की मुखच्छवि बड़ी मनोहारिणी थी। वे वन में जाकर श्रवण सुखद पर्णवाद्य (पत्तों के बाजे पिपिहरी आदि) बजाया करते थे। वहाँ दो तरुण नागकुमारों की भाँति उन दोनों की बड़ी शोभा होती थी। वे अपने कानों में मोर के पंख लगा लेते, मस्तक पर पल्लवों के मुकुट धारण करते और गले में वनमाला डाल लेते थे। उस समय शाल के नये पौधों की भाँति उन दोनों की बड़ी शोभा होती थी। वे कभी कमल के फूलों के शिरोभूषण धारण करते और कभी बछड़ों की रस्सियों को यज्ञापवीत की भाँति धारण कर लेते थे। वीरवर श्रीकृष्ण और बलराम छींके और तुम्बी लिये वन में घूमते और गोपजनोचित वेणु बजाया करते थे। वे दोनों भाई कहीं ठहर जाते, कहीं वन में एक दूसरे के साथ खेलने लगते और कहीं शय्या बिछाकर सो जाते तथा नींद लेने लगते थे। राजन्! इस प्रकार के मंगलमय बलराम और श्रीकृष्ण बछड़ों की रक्षा करते तथा उस महान् वन की शोभा बढ़ाते हुए सब ओर घूमते और भाँति-भाँति की क्रीड़ाएँ करते थे। कुन्तीनन्दन! तदनन्तर वे दोनों वसुदेव पुत्र वृन्दावन में जाकर गौएँ चराते हुए लीला विहार करने लगे।[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 17
  2. 2.0 2.1 2.2 महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 18
  3. महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 19

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