द्रौपदी का चीरहरण

महाभारत सभा पर्व के ‘द्यूत पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 68 के अनुसार द्रौपदी का चीरहरण का वर्णन इस प्रकार है[1]-

दु:शासन का बलपूर्वक द्रौपदी के वस्त्र उतारना

दु:शासन! यह विकर्ण अत्‍यन्‍त मूढ़ है, तथापि विद्वानों की–सी बातें बनाता है। तुम पाण्‍डवों के और द्रौपदी के भी वस्‍त्र उतार लो। वैशम्‍पायनजी कहते हैं - जनमेजय! कर्ण की बात सुनकर समस्‍त पाण्‍डव अपने-अपने उत्तरीय वस्‍त्र उतारकर सभा में बैठ गये। राजन्! तब दु:शासन ने उस भरी सभा में द्रौपदी का वस्‍त्र बलपूर्वक पकड़कर खींचना प्रारम्‍भ किया। वैशम्‍पायनजी कहते हैं - जनमेजय! जब वस्‍त्र खींचा जाने लगा,ै[1]

द्रौपदी का श्रीकृष्ण का स्मरण करना

तब द्रौपदी ने भगवान श्रीकृष्‍ण का स्‍मरण किया। द्रौपदी ने मन-ही-मन कहा—मैंने पूर्वकाल में महात्‍मा वसिष्‍ठजी की बतायी हुई इस बात कों अच्‍छी तरह समझा है कि भारी विपत्ति पड़ने पर भगवान श्रीहरि का स्‍मरण करना चाहिये। वैशम्‍पायनजी कहते हैं - जनमेजय! ऐसा विचारकर द्रौपदी ने बार-बार ‘गोविन्‍द’ और ‘कृष्‍ण’ का नाम लेकर पुकारा और आपत्ति काल में अभय देने वाले लोक प्रतिता मह नारायण- स्‍वरूप भगवान श्री कृष्‍ण का मन-ही-मीन चिन्‍तन किया। ‘गोविन्‍द! हे द्वारकावासी श्रीकृष्‍ण! हे गोपांगनाओं के प्राणवल्‍लभ केशव! कौरव मेरा अपमान कर रहे हैं, क्‍या आप नहीं जानते ? है नाथ! हे रमानाथ! हे व्रजनाथ! हे संकटनाशन जनार्दन! मैं कौरवरूप समुद्र में डूबी जा रही हूँ, मेरा उद्धार कीजिये। ’सच्च्‍िदानन्‍द स्‍वरूप श्री कृष्‍ण! महायोगिन्! विश्रमात्‍मन्! विश्‍वभावन! गोविन्‍द! कौरवों के बीच में कष्‍ट पाती हुई मुझे शरणागत अबला की रक्षा कीजियें’। राजन्! इस प्रकार तीनों लोकों के स्‍वामी श्‍यामसुन्‍दर श्रीकृष्‍ण का बार-बार चिन्‍तन करके मानिनी द्रौपदी दुखी हो अंचल से मुँह ढककर जोर-जोर से रोने लगी। द्रुपद्रनन्दिनी की वह करूण पुकार सुनकर कृपालु श्रीकृष्‍ण गद्गद हो गये तथा शय्या और आसन छोड़कर दया से द्रवित हो पैदल ही दौड़ पड़े। यज्ञसेन कुमारी कृष्‍णा अपनी रक्षा के लिये श्रीकृष्‍ण, विष्‍णु, हरि और नर आदि भगवन्नामों को जोर-जोर से पुकार रही थी। इसी समय धर्मस्‍वरूप महात्‍मा श्रीकृष्‍ण ने अव्‍यक्‍तरूप से उसके वस्‍त्र में प्रवेश करके भाँति-भाति के सुन्‍दर वस्‍त्रों द्वारा द्रौपदी को आच्‍छादित कर लिया।ै[1]

श्रीकृष्ण द्वारा द्रौपदी की रक्षा

जनमेजय! द्रौपदी के वस्‍त्र खींचे जाते समय उसी तरह के दूसरे-दूसरे अनेक वस्‍त्र प्रकट होने लगे। राजन्! धर्मपालन के प्रभाव से वहाँ भाँति-भाँति के सैकड़ों रंग-बिरेंगे वस्‍त्र प्रकट होते रहे। उस समय वहाँ बड़ा भयंकर कोलाहल मच गया। जगत् में यह अद्भुत हृदय देखकर सब राजा द्रौपदी की प्रशंसा और दु:शासन की निन्‍दा करने लगे। उस समय वहाँ समस्‍त राजओं के बीच हाथ पर मलते हुए भीमसेन ने क्रोध से फड़कते हुए ओठों द्वारा भयंकर गर्जना के साथ यह शाप दिया (प्रतिज्ञा की)। भीमसेनने कहा - देश-देशान्‍तर के निवासी क्षत्रियो! आपलोग मेरी इस बात पर ध्‍यान दें। ऐसी बात आज से पहले न तो किसी ने कही होगी और न दूसरा कोई कहेगा ही। भूमिपालो! यह खोटी बुद्धिवाला दु:शासन भरतवंश के लिये कलंक है। मैं युद्ध में बलपूर्वक इस पापी की छाती फाड़कर इसका रक्‍त पीऊँगा। यदि न पीऊँ अर्थात्—अपनी कही हुई उस बात को पूरा न करूँ, तो मुझे अपने पूर्वज बाप-दादों की श्रेष्‍ठ गति न मिले। वैशम्‍पायनजी कहते हैं - जनमेजय! भीमसेन की यह रोंगटे खडे़ कर देने वाली भयंकर बात सुनकर वहाँ बैठे हुए राजाओं ने धृतराष्‍ट्र पुत्र दु:शासन की निन्‍दा करते हुए भीमसेन की भूरि-भूरि प्रशंसा की। जब सभा में वस्‍त्रों का ढेर लग गया, तब दु:शासन थककर लज्जित हो चुपचाप बैठ गया। उस समय कुन्‍ती पुत्रों की ओर देखकर सभा में उपस्थित नरेशों की ओर से दु:शासन पर रोमाअचकारी शब्‍दों में धिक्‍कार की बौछार होने लगी।[2]



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत सभा पर्व अध्याय 68 श्लोक 32-46
  2. महाभारत सभा पर्व अध्याय 68 श्लोक 47-66

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