दुर्योधन का धृतराष्ट्र को अपने दुख और चिन्ता का कारण बताना

महाभारत सभा पर्व के ‘द्यूत पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 50 के अनुसार दुर्योधन का धृतराष्ट्र को अपने दुख और चिन्ता का कारण बताने का वर्णन इस प्रकार है[1]-

धृतराष्ट्र का पुन: दुर्योधन को समझाना

जनमेजय ने पूछा- मुने! भाइयों में वह महाविनाशकारी द्यूत किस प्रकार आरम्भ हुआ, जिसमें मेरे पितामह पाण्डवों को उस महान संकट का सामना करना पड़ा? ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ महर्षे! वहाँ कौन-कौन से राजा सभासद् थे? किसने द्यूतक्रिडा का अनुमोदन किया और किसने निषेध? ब्रह्मन्! मैं इस प्रसंग को आपके मुख से विस्तार पूर्वक सुनना चाहता हूँ। विप्रवर! यह द्यूत ही समस्त भूमण्डल के विनाश का मुख्य कारण है। सौति कहते है- राजा के इस प्रकार पूछने पर व्यासजी के प्रतापी शिष्य वेदतत्त्वज्ञ वैशम्पायनजी वह सब प्रसंग सुनाने लगे। वैशम्पायनजी ने कहा- भरतवंश शिरोमणे! महाराज जनमेजय! यदि तुम्हारा मन यह सब सुनने में लगता है तो पुन: विस्तार के साथ इस कथा को सुनो। विदुर का विचार जानकर अम्बिका नन्दन राजा धृतराष्ट्र ने एकान्त में दुर्योधन से पुन: इस प्रकार कहा- ‘गान्धारीनन्दन! जूए का खेल नहीं होना चाहिये, विदुर इसे अच्छा नहीं बताते हैं। महाबुद्धिमान विदुर हमें कोई ऐसी सलाह नहीं देंगे, जिससे हम लोगों का अहित होने वाला हो। ‘विदुर जो कहते हैं, उसी को मैं अपना सर्वोततम हित मानता हूँ। बेटा! तुम भी वही सब करो। मेरी समझ में तुम्हारे लिये यही हितकर है। ‘उदार बुद्धिवाले इन्द्रगुरु देवर्षि भगवान बृहस्पति ने परम बुद्धिमान देवराज इन्द्र को जिस शास्त्र का उपदेश दिया था, वह सब उसके रहस्य सहित महाज्ञानी विदुर जानते हैं। बेटा! मैं भी सदा विदुर की बात मानता हूँ। कुरुकुुल में सबसे श्रेष्ठ और मेधावी विदुर माने गये हैं तथा वृष्णिवंश में पूजित उद्धव को परम बुद्धिमान बताया गया है। अत: बेटा! जूआ खेलने से कोई लाभ नही है। जूए में वैर विरोध की सम्भावना दिखायी देती है। ‘वैर-विरोध होने से राज्य का नाश हो जाता है, अत: पुत्र! जूए का आग्रह छोड़ दो। पिता माता को चाहिये कि वे पुत्र को उत्तम कर्त्तव्य की शिक्षा दें, इसीलिये मैंने ऐसा कहा है। ‘बेटा! तुम अपने बाप दादों के पद पर प्रतिष्ठित हो, तुमने वेदों का स्वाध्याय किया है, शास्त्रों की विद्वत्ता प्राप्त की है और घर में सदा तुम्हारा लालन पालन हुआ है। ‘महाबाहो! तुम अपने भाइयों में बड़े हो, अत: राजा के पद पर स्थित हो, तुम्हें किस कल्याणमय वस्तु की प्राप्ति नहीं होती है? दूसरे लोगों के लिये जो अलभ्य है, वह उत्तम भोजन और वस्त्र तुम्हें प्राप्त हैं। फिर तुम क्यों शोक करते हो? महाबाहो! तुम्हारे बाप दादों का यह महान राष्ट्र धन-धान्य से सम्पन्न है। ‘स्वर्ग में देवराज इन्द्र की भाँति तुम इस लोक में सदा सब पर शासन करते हुए शोभा पाते हो। तुम्हारी उत्तम बुद्धि प्रसिद्ध है। फिर तुम्हें शोक की कारण भूत यह दु:ख दायिनी चिन्ता कैसे प्राप्त हुई है? यु मुझसे बताओ’।[1]

दुर्योधन का अपने पिता से अपना दु:ख बताना

दुर्योधन बोला- मैं अच्छा खाता हूँ और अच्छा पहिनता हूँ, इतना ही देखते हुए जो पापी पुरुष शत्रुओं के प्रति ईर्ष्या नहीं करता, वह अधम बताया गया है। राजेन्द्र! यह साधारण लक्ष्मी मुझे प्रसन्न नहीं कर पाली। मैं तो कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर की उस जगमगाती हुई लक्ष्मी को देखकर व्यथित हो रहा हूँ। सारी पृथ्वी युधिष्ठिर के अधीन हो गयी है, फिर भी मैं पाषाणतुल्य हूँ, जो कि ऐसा दु:ख प्राप्त होने पर भी जीवित हूँ और आप से बातें करता हूँ।[1] नीप, चित्रक, कुुकुर, कारस्कर तथा लोहजंघ आदि क्षत्रिय नरेश युधिष्ठिर के घर में सेवकों की भाँति सेवा करते हुए शोभा पा रहे थे। हिमालय प्रदेश तथा समुद्री द्वीपों के रहने वाले और रत्नों की खानों के सभी अधिपति म्लेच्छजातीय नरेश युधिष्ठिर के घर में प्रवेश करने नहीं पाते थे, उन्हें महल से दूर ही ठहराया गया था। महाराज! मुझे अन्य सब भाइयों से ज्येष्ठ और श्रेष्ठ मानकर युधिष्ठिर ने सत्कार पूर्वक रत्नों की भेंट लेने के काम पर नियुक्त कर दिया था। भारत! वहाँ भेंट लाये हुए नरेशों के द्वारा उपस्थित श्रेष्ठ और बहुमूल्य रत्नों की जो राशि एकत्र हुई थी, उसका आर-पार दिखायी नहीं देता था। उस रत्नराशि को ग्रहण करते करते जब मेरा हाथ थक गया, तब मेरे थक जाने पर राजा लोग रत्न राशि लिये बहुत दूर तक खड़े दिखायी देने लगते थे।[2]-

दुर्योधन का धृतराष्ट्र को भवन में हुई घटनाओं के बारे में बताना

भारत! बिन्दु सरोवर से लाये हुए रत्नों द्वारा मयासुर ने एक कृत्रिम पुष्करिणी का निर्माण किया था, जो स्फटिकमणि की शिलाओं से आच्छादित है। वह मुझे जल से भरी हुई सी दिखायी दी। भारत! जब मैं उसमें उतरने के लिये वस्त्र उठाने लगा, तब भीमसेन ठठाकर हँस पड़े। शत्रु की विशिष्ट समृद्धि से मैं मूढ़ सा हो रहा था और रत्नों से रहित तो था ही। उस समय वहाँ यदि मैं समर्थ होता तो भीमसेन को वहीं मार गिराता। राजन्! यदि मैं भीमसेन को मारने का उद्योग करता तो मेरी भी शिशुपाल की सी ही दशा हो जाती, इसमें संशय नहीं है। भारत! शत्रु केे द्वारा किया हुआ उपहास मुझे दज्ध किये देता है। नरेश्वर! मैंने पुन: एक वैसी ही बाबली को देखकर, जो कमलों से सुशोभित हो रही थी, समझा कि यह भी पहली पुष्करिणी की भाँति स्फटिकशिला से पाटकर बराबर कर दी गयी होगी, पंरतु वह वास्तव में जल से परिपूर्ण थी, इसलिेय मैं भ्रम से उसमें गिर पड़ा। वहाँ श्रीकृष्ण अर्जुन के साथ मेरी ओर देखकर जोर जोर से हँसने लगे। स्त्रियों सहित द्रौपदी भी मेरे हृदय में चोट पहुँचाती हुई हँस रही थी। मेरे सब कपड़े जल में भीग गये थे, अत: राजा की आज्ञा से सेवकों ने मुझे दूसरे वस्त्र दिये। यह मेरे लिये बड़े दु:ख की बात हुई। महाराज! एक और वन्चना मुझे सहनी पड़ी, जिसे बताता हूँ, सुनिये। एक जगह बिना द्वार के ही द्वार की आकृति बनी हुई थी, मैं उसी में निकलने लगा, अत: शिला से टकरा गया। जिससे मेरे ललाट में बड़े जोर की चोट लगी। उस समय नकुल और सहदेव ने दूर से मुझे टकराते देख निकट आकर अपने हाथों से मुझे पकड़ लिया और दोनों भाई साथ रहकर मेरे लिये शोक करने लगे। वहाँ सहदेव ने मुझे आश्यर्च में डालते हुए बार-बार यह कहा- ‘राजन्! यह दरवाजा है, इधर चलिये'। महाराज! वहाँ भीमसेन ने मुझे ‘धृतराष्टपुत्र’ कहकर सम्बोधित किया और हँसते हुए कहा- ‘राजन्! इधर दरवाजा है’। मैंने उस सभा में जो-जो रत्न देखे हैं, उनके पहले कभी नाम भी नहीं सुने थे, अत: इन सब बातों के लिये मेरे मन में बड़ा संताप हो रहा है।[2]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत सभा पर्व अध्याय 50 श्लोक 1-19
  2. 2.0 2.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 50 श्लोक 20-36

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