युधिष्ठिर को भेंट में मिली वस्तुओं का दुर्योधन द्वारा वर्णन

महाभारत सभा पर्व के ‘द्यूत पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 51 के अनुसार युधिष्ठिर को भेंट में मिली वस्तुओं का दुर्योधन द्वारा वर्णन इस प्रकार है[1]-

दुर्योधन का पाण्डवों के धन के विषय में धृतराष्ट्र को बताना

दुर्योधन बोला- भारत! मैंने पाण्डवों के यज्ञ में राजाओं के द्वरा भिन्न-भिन्न देशों से लाये हुए जो उत्तम धनरत्न देखे थे, उन्हें बताता हूँ, सुनिये। भरत कुलभूषण! आप सच मानिये, शत्रुओं का वह वैभव देखकर मेरा मन मूढ़ सा हो गया था। मैं इस बात को न जान सका कि यह धन कितना है और किस देश से लाया गया है। काम्बोज नरेश ने भेड़ के ऊन, बिल में रहने वाले चूहे आदि के रोएँ तथा बिल्लियों की रोमावलियों से तैयार किये हुए सुवर्ण चित्रित बहुत से सुन्दर वस्त्र और मृगचर्म भेंट में दिये थे। तीतर पक्षी की भाँति चितकबरे और तोते के समान नाकवाले तीन सौ घोड़े दिये थे। इसके सिवा तीन तीन सौ ऊँटनियाँ और खच्चरियाँ भी दी थीं, जो पीलु, शमी और इंगुद खाकर मोटी ताजी हुई थीं। महाराज! ब्राह्मण लोग तथा गाय-बैलों का पोषण करने वाले वैश्य और दास कर्म के योग्य शूद्र आदि सभी महात्मा धर्मराज की प्रसन्नता के लिये तीन स्वर्ब के लागत की भेंट लेकर दरवाजे पर रोके हुए खड़े थे। ब्राह्मण लोग तथा हरी भरी खेती उपजाकर जीवन निर्वाह करने वाले और बहुत से गाय बैल रखने वाले वैश्य सैकड़ों दलों में इकठ्ठे होकर सोने के बने हुए सुन्दर कलश एवं अन्य भेंट सामग्री लेकर द्वार पर खड़े थे। परंतु भीतर प्रवेश नहीं कर पाते थे। द्विजों में प्रधान राजा कुणिन्द ने परम बुद्धिमान धर्मराज युधिष्ठिर को बड़े प्रेम से एक शंख निवेदन किया। उस शंख को सब भाइयों ने मिलकर किरीटधारी अर्जुन को दे दिया। उसमें सोने का हार जड़ा हुआ था और एक हजार स्वर्ण मुद्राएँ मढ़ी गयी थीं। अर्जुन ने उसे सादर ग्रहण किया। वह शंख अपने तेज से प्रकाशित हो रहा था। साक्षात विश्वकर्मा ने उसे रत्नों द्वारा विभूषित किया था। वह बहत ही सुन्दर और दर्शनीय था। साक्षात धर्म ने उस शंख को बार-बार नमस्कार करके धारण किया था। अन्नदान करनेपर वह शंख अपने आप बज उठता था। उस समय उस शंख ने बड़े जोर से अपनी ध्वनि का विस्तार किया। उसके गम्भीर नाद से समस्त भूमिपाल तेजोहीन होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। केवल धृष्टद्युम्न, पाँच पाण्डव, सात्यकि तथा आठवें श्रीकृष्ण धैर्य पूर्वक खड़े रहे। ये सब के सब एक दूसरे का प्रिय करने वाले तथा शौर्य से सम्पन्न हैं। इन्होंने मुझ को तथा दूसरे भूमिपालों को मूर्च्छित हुआ देख जोर जोर से हँसना आरम्भ किया। उस समय अर्जुन ने अत्यन्त प्रसन्न होकर एक श्रेष्ठ ब्राह्मण को पाँच सौ हष्ट पुष्ट बैल दिये। वे बैल गाड़ी का बोझ ढोने में समर्थ थे और उनके सींगों में सोना मढ़ा गया था। भारत! राजा सुमुख ने अजात शत्रु युधिष्ठिर के पास भेंट की प्रमुख वस्तुएँ भेजी थीं। कुणिन्द ने भाँति-भाँति के वस्त्र और सुवर्ण दिये थे। काश्मीर नरेश ने मीठे तथा रसीले शुद्ध अंगूरों के गुच्छे भेंंट किये थे। साथ ही सब प्रकार की उपहार सामग्री लेकर उन्होंने पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर की सेवा में उपस्थित की थी। कितने ही यवन मन के समान वेगशाली पर्वतीय घोड़े, बहुमूल्य, आसन, नूतन, सूक्ष्म, विचित्र दर्शनीय और कीमती कम्बल, भाँति-भाँति के रत्न तथा अन्य वस्तुएँ लेकर राजद्वार पर खेड़े थे, फिर भी अंदर नहीं जाने पाते थे। कलिंग नरेश श्रुतायु ने उत्तम मणिरत्न भेंट किये।[1]

दुर्योधन द्वारा युधिष्ठिर को भेंट में मिली वस्तुओं का वर्णन

इसके सिवा, उन्होंने दूसरे भूपालों से दक्षिण समुद्र के निकट से सैंकड़ों उत्तरीय वस्त्र, शंख, रत्न तथा अन्य उपहार सामग्री लेकर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर को समर्पित की। पाण्ड्य नरेश ने मलय और दुर्दर पर्वत के श्रेष्ठ चन्दन के छियानवे भार युधिष्ठिर को भेंट किये। फिर उतने ही शंख भी समर्पित किये। चोल और केरल देश के नरेशों ने असंख्य चन्दन, अगुरु तथा मोती, वैदूर्य तथा चित्रक नामक रत्न धर्मराज युधिष्ठिर को अर्पित किये। राजा अश्मक ने बछड़ों सहित दस हजार दुधारू गौएँ भेंट कीं, जिनके सींगों में सोना मढ़ा हुआ था और गले में सोने के आभूषण पहनाये गये थे। उनके थन घड़ों के समान दिखायी देते थे। सिन्धु नरेश ने सवुर्ण मालाओं से अलंकृत पचीस हजार सिन्धुदेशीय घोड़े उपहार में दिये थे। सौवीरराज ने हाथी जुते हुए रथ प्रदान किये, जो तीन सौसे कम न रहे होंगे। उन रथों को सुवर्ण, मणि तथा रत्नों से सजाया गया था। वें दोपहर के सूर्य की भाँति जगमगा रहे थे। उनसे जो प्रभा फैल रही थी, उसकी कहीं भी उपमा न थी। इन रथों के सिवा, उन्होंने अन्य सब प्रकार की भी उपहार सामग्री युधिष्ठिर को भेंट की थी। नरश्रेष्ठ भरत नन्दन! अवन्ती नरेश नाना प्रकार के सहस्रों रत्न, हार, श्रेष्ठ अंगद (बाजूबंद), भाँति-भाँति के अन्यान्य आभूषण, दस हजार दासियों तथा अन्यान्य उपहार सामग्री साथ लेकर राजसभा के द्वार पर खड़े थे और भीतर जाकर युधिष्ठिर का दर्शन पाने के लिये उत्सुक हो रहे थे। दशार्ण नरेश, चेदिराज तथा पराक्रमी राजा शूरसेन ने सब प्रकार की उपहार सामग्री लाकर युधिष्ठिर को समर्पित की। राजन्! काशी नरेश ने भी बड़ी प्रसन्नता के साथ अस्सी हजार गौएं, आठ सौ गजराज तथा नाना प्रकार के रत्न भेंट किये। विदेहराज कृतक्षण तथा कोसल नरेश बृहद्वल ने चौदह-चौदर हजार उत्तम घोड़े दिये थे। वस आदि नरेशों सहित राजा शैब्य तथा मालवों सहित त्रिगर्तराज ने युधिष्ठिर को बहुत से रत्न भेंट किये, उनमें से एक-एक भूपाल ने असंख्य हार, श्रेष्ठ मोती तथा भाँति-भाँति के आभूषण समर्पित किये थे। कार्पासिक देश में निवास करने वाली एक लाख दासियाँ उस यज्ञ में सेवा कर रही थीं। वे सब की सब श्यामा तथा तन्वंगी थीं। उन सबके केश बड़े-बड़े थे और वे सभी सोने के आभूषणों से विभूषित थीं। महाराज! भरुकच्छ (भड़ौच) निवासी शूद्र श्रेष्ठ ब्राह्मणों के उपयोग में आने योज्य रंकुमृग के चर्म तथा अन्य सब प्रकार की भेंट सामग्री लेकर उपस्थित हुए थे। वे अपने साथ गान्धारदेश के बहुत से घोड़े भी लाये थे। जो समुद्रतटवर्ती गृहोद्यान में तथा सिन्ध के उस पार रहते हैं, वर्धाद्वारा इन्द्र के पैदा किये हुए तथा नदी के जल से उत्पन्न हुए नाना प्रकार के धान्यों द्वारा जीवन निर्वाह करते हैं, वे वैराम, पारद, आभीर तथा कितव जाति के लोग नाना प्रकार के रत्न एवं भाँति-भाँति की भेंट सामग्री- बकरी, भेड़, गाय, सुवर्ण, गधे, ऊँट, फल से तैयार किया हुआ मधु तथा अनेक प्रकार के कम्बल लेकर राज द्वार पर रोक दिये जाने के कारण (बाहर ही) खड़े थे और भीतर नहीं जाने पाते थे। प्राग्ज्यातिषपुर के अधिपति तथा म्लेच्छों के स्वामी शूरवीर एवं बलावान् महारथी राजा भगदत्त यवनों के साथ पधारे थे और वायु के समान वेग वाले अच्छी जाति के शीघ्रगामी घोड़े तथा सब प्रकार की भेंट सामगी लेकर राजद्वार पर खड़े थे। (अधिक भीड़ के कारण) उनका प्रवेश भी रोक दिया गया था।[2]
उस समय प्राग्ज्योतिष नरेश भगदत्त हीरे और पद्मराग आदि मणियों के आभूषण तथा विशुद्ध हाथी दाँत की मूँछ वाले खड्ग देकर भीतर गये थे। द्वयक्ष, व्यक्ष, ललाटाक्ष, औष्णीक, अन्तवास, रोमक, पुरुषादक तथा एकपाद- इन देशों के राजा नाना दिशाओं से आकर राजद्वार पर रोक दिये जाने के कारण खड़े थे, यह मैंने अपनी आँखों देखा था। ये राजालोग भेंट सामग्री लेकर आये थे और अपने साथ अनेक रंग वाले बहुत से दूरगामी गधे (खच्चर) लाये थे, जिनकी गर्दन काली और शरीर विशाल थे। उनकी संख्या दस हजार थी। वे सभी रासभ सिखलाये हुए तथा सम्पूर्ण दिशाओं में विख्यात थे। उनकी लंबाई, चौड़ाई और ऊँचाई जैसी होनी चाहिये, वैसी ही थीञ उनका रंग भी अच्छा था। वे समस्त रासभ वड्क्षु नदी के तट पर उत्पन्न हुए थे। उक्त राजा लोग युधिष्ठिर को भेंट के लिये बहुत सा सोना और चाँदी देते थे और देकर युधिष्ठिर के यज्ञ मण्डप में प्रविष्ट होते थे। एक पाददेशीय राजाओं ने इन्द्रगोप (बीरबहूटी) के समान लाल, तोते के समान हरे, मन के समान वेगशाली इन्द्रधनुष के तुल्य बहुरंगे, संध्या काल के बादलों के सदृश लाल ओर अनेक वर्ण वाले महावेगशाली जंगली घोड़े एवं बहुमूल्य सुवर्ण उन्हें भेंट में दिये। चीन, शंक, ओड, वनवासी बर्बर, वार्ष्णेय, हार, हूण, कृष्ण, हिमालय प्रदेश, नीप और अनूप देशों के नाना रूपधारी राजा वहाँ भेंट देने के लिये आये थे, किंतु रोक दिये जाने के कारण दरवाजे पर ही खड़े थे। उन्होंने अनेक रूप वाले दस हजार गधे भेंट के लिये वहाँ प्रस्तुत किये थे, जिनकी गर्दन काली और शरीर विशाल, जो सौ कोस तक लगातार चल सकते थे। वे सभी सिखलाये हुए तथा सब दिशााअें में विख्यात थे। जिनकी लंबाई चौड़ाई पूरी थी, जिनका रंग सुन्दर और स्पर्श सुखद था, ऐसे बाह्वीक चीन के बने हुए, ऊनी, हिरन के रोम समूह से बने हुए, रेशमी, पाटके, विचित्र गुच्छेदार तथा कमल के तुल्य कोमल सहस्रों चिकने वस्त्र, जिनमें कपास का नाम भी नहीं था तथा मुलायम मृगचर्म- ये सभी वस्तुएँ भेंट के लिये प्रस्तुत थीं। तीखी और लंबी तलवारें, ऋष्टि, शक्ति, फरसे, अपरान्त (पश्चिम) देश के बने हुए तीखे परशु, भाँति-भाँति के रस और गन्ध, सहस्रों रत्न तथा सम्पूर्ण भेंट सामग्री लेकर शंक, तुषार, कंक, रोमश तथा शृंगी देश के लोग राजद्वार पर रोके जाकर खड़े थे। दूर तक जाने वाले बड़े-बड़े हाथी, जिनकी संख्या एक अर्बुद थी एवं घोड़े, जिनक संख्या कई सौ अर्बुद थी और सुवण जो एक पद्म की लागत का था। इन सबको तथा भाँति-भाँति की दूसरी उपहरा सामग्री को साथ लेकर कितने ही नेरश राजद्वार पर रोके जाकर भेंट देने के लिये खड़े थे। बहुमूल्य आसन, वाहन, रत्न तथा सुवर्ण से जटित हाथी दाँत की बनी हुई शय्याएं, विचित्र कवच, भाँति-भाँति के शस्त्र, सुवर्ण भूषित, व्याघ्र चर्म से आच्छादित और सुशिक्षित घोड़ों से जुते हुए अनेक प्रकार के रथ, हाथियों पर बिछाने योग्य विचित्र कम्बल, विभिन्न प्रकार के रत्न, नाराच, अर्धनाराच तथा अनेक तरह के शस्त्र- इन सब बहुमूल्य वस्तुओं को देकर पूर्वदेश के नरपति गण महात्मा पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर के यज्ञ मण्डप में प्रविष्ट हुए थे।[3]

दुर्योधन का यज्ञ में राजाओं द्वारा दिये गये धन का का वर्णन

दुर्योधन बोला- अनघ! राजाओं द्वारा युधिष्ठिर के यज्ञ के लिये दिये हुए जिस महान् धन का संग्रह वहाँ हुआ था, वह अनेक प्रकार का था। मैं उसका वर्णन करता हूँ, सुनिये। मेरु और मंदराचल के बीच में प्रवाहित होने वाली शैलोदा नदी के दोनों तटों पर छिद्रों में वायु के भर जाने से वेणु की तहर बजने वाले बाँसों की रमणीय छाया में जो लोग बैठते और विश्राम करते हैं, वे खस, एकासन, अर्ह, प्रदर, दीर्घवेण, पारद, पुलिन्द, तंगण और परतंगण आदि नरेश भेंट में देने के लिये पिपीलिकाओं (चींटियों) द्वारा निकाले हुए 'पिपीलिक' नाम वाले सुवर्ण के ढेर के ढेर उठा लाये थे। उसका माप द्रोण से किया जाता था। इतना ही नहीं, वे सुन्दर काले रंग के चँवर तथा चन्द्रमा के समान श्वेत दूसरे चामर एवं हिमालय के पुष्पों से उत्पन्न हुआ स्वादिष्ट मधु भी प्रचुर मात्रा में लाये थे। उत्तरकुरु देश से गंगाजल और माला के योग्य रत्न तथा उत्तर कैलास से प्राप्त हुई अतीव बलसम्पन्न ओषधियाँ एवं अन्य भेंट की सामग्री साथ लेकर आये हुए पर्वतीय भूपालगण अजातशत्रु राजा युधिष्ठिर के द्वार पर रोके जाकर विनीतभाव से खड़े थे। पिताजी! मैंने देखा कि जो राजा हिमालय के परार्ध भाग में निवास करते हैं, जो दायगिरि के निवासी हैं, जो समुद्रतटवर्ती करूष देश में रहते हैं तथा जो लौहित्यपर्वत के दोनों और वास करते हैं, फल और मूल ही जिनका भोजन है, वे चर्म वस्त्रधारी क्रूरता पूर्वक शास्त्र चलाने वाले और क्रूर कर्मा किरात नरेश भी वहाँ भेंट लेकर आये थे। राजन्! चन्दन और अगुरुकाष्ट तथा कृष्णागुरु कोष्ठ के अनेक भार, चर्म, रत्न, सवुर्ण तथा सुगन्धित पदार्थो की राशि और दस हजार किरात देशीय दासियाँ, सुन्दर-सुन्दर पदार्थ, दूर देशों के मृग और पक्षी तथा पर्वतों से संगृहित तेजस्वी सुवर्ण एवं सम्पूर्ण भेंट सामग्री लेकर आये हुए राजा लोग द्वार पर जाने के कारण खड़े थे। किरात, दरद, दर्व, शूर, यमक, औदुम्बर, दुर्विभाग, पारद, वाह्विक, काश्मीर, कुमार, घोरक, हंसकायन, शिवि, त्रिगर्त, यौधेय, भद्र, केकय, अम्बष्ठ, कौकुर, तार्क्ष्य, वस्त्रप, पह्वव, वशातल, मौलेय, क्षुद्रक, मालव, शौण्डिक, कुक्कर, शक, अंग, वंग,पुण्ड, शाणवत्य तथा गाय- ये उत्तम कुल में उत्पन्न श्रेष्ठ एवं शस्त्रधारी क्षत्रिय राज कुमार सैकड़ों की संख्या में पड्क्तिबद्ध खड़े होकर अजातशत्रु युधिष्ठिर को बहुत धन अर्पित कर रहे थे। भारत! वंग, कलिंग, मगध, ताम्रलिप्त, पुण्डक, दौवालिक, सागरक, पत्रोर्ण, शैशव तथा कर्णप्रवारगण आदि बहुत से क्षत्रिय नरेश वहाँ दरवाजे पर खड़े थे तथा राजाज्ञा से द्वारपालगण उन सबको यह संदेश देते थे कि आप लोग अपने लिये समय निश्चित कर लें। फिर उत्तम भेंट सामग्री अर्पित करें। इसके बाद आप लोगों को भीतर जाने का मार्ग मिल सकेगा। तदनन्तर एक-एक क्षमाशील और कुलीन राजा ने काम्यक सरोवर के निकट उत्पन्न हुए एक-एक हजार हाथियों की भेंट देरक द्वार के भीतर प्रवेश किया। उन हाथियों के दाँत हलदण्ड के समान लंबे थे। उनको बाँधने की रस्स् सोने की बनी हुई थी। उन हाथियों का रंग कमल के समान सफेद था। उनकी पीठ पर झूल पड़ा हुआ था। वे देखने में पर्वताकार और उन्मत्त प्रतीत होते थे। ये तथा और भी बहुत से भूपालगण अनेक दिशाओं से भेंट लेकर आये थे। दूसरे-दूसरे महामना नरेशों ने भी वहाँ रत्नों की भेंट अर्पित की थी।[4]

श्रीकृष्ण द्वारा यज्ञ में दिये गये उपहार

इन्द्र के अनुगामी गन्धर्वराज चित्ररथ ने चार सौ दिव्य अश्व दिये, जो वायु के समान वेगशाली थे। तुम्बुरु नामक गन्धर्वराज ने प्रसन्नतापूर्वक सौ घोड़े भेंट किये, जो आम के पत्ते के समान हरे रंग वाले तथा सुवर्ण की मालाओं से विभूषित थे। महाराज! शूकर देश के पुण्यात्मा राजा ने कई सौ गजरत्न भेंट किये। मत्स्य देश के राजा विराट ने सुवर्ण मालाओं से विभूषित दो हजार मतवाले हाथी उपहार के रूप में दिये। राजन्! राजा वसुदान ने पांशुदेश से छब्बीस हाथी, वेग और शक्ति से सम्पन्न दो हजार सुवर्ण मालाभूषित जवान घोड़े और सब प्रकार की दूसरी भेंट सामग्री भी पाण्डवों को समर्पित की। राजन्! राजा द्रुपद ने चौदह हजार दासियाँ, दस हजार सपतीक दास, हाथी जुते हुए छब्बीस रथ तथा अपना सम्पूर्ण राज्य कुन्ती पुत्रों को यज्ञ के लिये समर्पित किया था। वृष्णि कुलभूषण वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन का आदर करते हुए चौदह हजार उत्तम हाथी दिये। श्रीकृष्ण अर्जुन के आत्मा हैं और अर्जुन श्रीकृष्ण के आत्मा हैं। अर्जुन श्रीकृष्ण से जो कह देंगे, वह सब के नि:संदेह पूर्ण करेंगे। श्रीकृष्ण अर्जुन के लिये परमधाम को भी त्याग सकते हैं। इसी प्रकार अर्जुन भी श्रीकृष्ण के लिये अपने प्राणों तक का त्याग कर सकते हैं।[5]

दुर्योधन द्वारा युधिष्ठिर के आपार धन व वस्तुओं का वर्णन

मलय तथा दर्दुरपर्वत से वहाँ के राजा लोग सोने के घोड़ों में रखे हुए सुगन्धित चन्दन रस तथा चन्दन एवं अगुरु के ढेर भेंट के लिये लेकर आये थे। चोल और पाण्ड्य देशों के नरेश चमकीले मणि रत्न, सुवर्ण तथा महीन वस्त्र लेकर उपस्थित हुए थे, परंतु उन्हें भी भीतर जाने के लिये रास्ता नहीं मिला। सिंहल देश के क्षत्रियों ने समुद्र का सारभूत वैदूर्य, मोतियों के ढेर तथा हाथियों के सैकड़ों झूल अर्पित किये। वे सिंहल देशीय वीर मणियुक्त वस्त्रों से अपने शरीरों को ढके हुए थे। उनके शरीर का रंग काला था और उन की आँखों के कोने लाल दिखायी देते थे। उन भेंट सामग्रियों को लेकर वे सब लोग दरवाजे पर रोके हुए खेड़े थे। ब्राह्मण, विजित क्षत्रिय, वैश्य तथा सेवा की इच्छा वाले शूद्र प्रसन्नतापूर्वक वहाँ उपहार अर्पित करते थे। सभी म्लेच्छ तथा आदि, मध्य और अन्त में उत्पन्न सभी वर्ण के लोग विशेष्ज्ञ प्रेम और आदर के साथ युधिष्ठिर के पास भेंट लेकर आये थे। अनेक देशों में उत्पन्न और विभिन्न जाति के लोगों के अगामन से युधिष्ठिर के यज्ञ मण्डप में मानो यह सम्पूर्ण लोक ही एकत्र हुआ जान पड़ता था। मेरे शत्रुओं के घर में राजाओं द्वारा लाये हुए बहुत से छोटे-बड़े उपहरों को देखकर दु:ख से मुझे मरने की इच्छा होती थी। राजन्! पाण्डवों के वहाँ जिन लोगों का भरण-पोषण होता है, उनकी संख्या मैं आपको बता रहा हूँ। राजा युधिष्ठिर उन सबके लिये कच्चे-पक्के भोजन की व्यवस्था करते हैं। युधिष्ठिर के यहाँ तीन पद्म दस हजार हाथी सवार और घुड़ सवार, एक अर्बुद (दस करोड़) रथारोही तथा असंख्य पैदल सैनिक हैं। युधिष्ठिर के यज्ञ में कहीं कच्चा अन्न तौला जा रहा था, कहीं पक रहा था, कहीं परोसा जाता था और कहीं ब्राह्मणों के पुण्याह वाचन की ध्वनि सुनायी पड़ती थी।[5] मैंने युधिष्ठिर के यज्ञ मण्डप में सभी वर्ण के लोगों में से किसी को ऐसा नही देखा, जो खा पीकर आभूषणों से विभूषित और सत्कृत न हुआ हो। राजा युधिष्ठिर घर में बसने वाले जिन अठ्ठासी हजार स्न्नातकों का भरण भोषण करते हैं, उनमें से प्रत्येेक की सेवा में तीस तीस दास दासी उपस्थित रहते हैं। वे सब ब्राह्मण भोजन से अत्यन्त तृप्त एवं संतुष्ट हो राजा युधिष्ठिर को उनके (काम-क्राधादि) शत्रुओं के विनाश के लिये आशीर्वाद देते हैं। इसी प्रकार युधिष्ठिर के महल में दूसरे दस हजार ऊर्ध्वरेता यति भी सोने की थालीयों में भोजन करते हैं। राजन्! उस यज्ञ में द्रौपदी प्रतिदिन स्वयं पहले भोजन न करके इस बात की देखभाल करती थी कि कुबड़े और बौनों से लेकर सब मुनष्यों में किसने खाया है और किसने अभी तक भोजन नहीं किया है। भारत! कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर को दो ही कुल के लोग कर नहीं देते थे। सम्बन्ध के कारण पांचाल और मित्रता के कारण अन्धक एवं वृष्णि।[6]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 51 भाग 1
  2. महाभारत सभा पर्व अध्याय 51 भाग 2
  3. महाभारत सभा पर्व अध्याय 51 भाग 3
  4. महाभारत सभा पर्व अध्याय 52 श्लोक 1-22
  5. 5.0 5.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 52 श्लोक 23-43
  6. महाभारत सभा पर्व अध्याय 52 श्लोक 44-49

संबंधित लेख

महाभारत सभा पर्व में उल्लेखित कथाएँ


सभाक्रिया पर्व
श्रीकृष्ण की आज्ञानुसार मयासुर द्वारा सभा भवन निर्माण | श्रीकृष्ण की द्वारका यात्रा | मयासुर का भीम-अर्जुन को गदा और शंख देना | मय द्वारा निर्मित सभा भवन में युधिष्ठिर का प्रवेश
लोकपाल सभाख्यान पर्व
नारद का युधिष्ठिर को प्रश्न रूप में शिक्षा देना | युधिष्ठिर की दिव्य सभाओं के विषय में जिज्ञासा | इन्द्र सभा का वर्णन | यमराज की सभा का वर्णन | वरुण की सभा का वर्णन | कुबेर की सभा का वर्णन | ब्रह्माजी की सभा का वर्णन | राजा हरिश्चंद्र का माहात्म्य
राजसूयारम्भ पर्व
युधिष्ठिर का राजसूयविषयक संकल्प | श्रीकृष्ण की राजसूय यज्ञ की सम्मति | जरासंध के विषय में युधिष्ठिर, भीम और श्रीकृष्ण की बातचीत | जरासंध पर जीत के विषय में युधिष्ठिर का उत्साहहीन होना | श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन की बात का अनुमोदन | युधिष्ठिर को जरासंध की उत्पत्ति का प्रसंग सुनाना | जरा राक्षसी का अपना परिचय देना | चण्डकौशिक द्वारा जरासंध का भविष्य कथन
जरासंध वध पर्व
श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीम की मगध यात्रा | श्रीकृष्ण द्वारा मगध की राजधानी की प्रशंसा | श्रीकृष्ण और जरासंध का संवाद | जरासंध की युद्ध के लिए तैयारी | जरासंध का श्रीकृष्ण के साथ वैर का वर्णन | भीम और जरासंध का भीषण युद्ध | भीम द्वारा जरासंध का वध | जरासंध द्वारा बंदी राजाओं की मुक्ति
दिग्विजय पर्व
पाण्डवों की दिग्विजय के लिए यात्रा | अर्जुन द्वारा अनेक राजाओं तथा भगदत्त की पराजय | अर्जुन का अनेक पर्वतीय देशों पर विजय पाना | किम्पुरुष, हाटक, उत्तरकुरु पर अर्जुन की विजय | भीम का पूर्व दिशा में जीतने के लिए प्रस्थान | भीम का अनेक राजाओं से भारी धन-सम्पति जीतकर इन्द्रप्रस्थ लौटना | सहदेव द्वारा दक्षिण दिशा की विजय | नकुल द्वारा पश्चिम दिशा की विजय
राजसूय पर्व
श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ की दीक्षा लेना | राजसूय यज्ञ में राजाओं, कौरवों तथा यादवों का आगमन | राजसूय यज्ञ का वर्णन
अर्घाभिहरण पर्व
राजसूय यज्ञ में ब्राह्मणों तथा राजाओं का समागम | भीष्म की अनुमति से श्रीकृष्ण की अग्रपूजा | शिशुपाल के आक्षेपपूर्ण वचन | युधिष्ठिर का शिशुपाल को समझाना | भीष्म का शिशुपाल के आक्षेपों का उत्तर देना | भगवान नारायण की महिमा | भगवान नारायण द्वारा मधु-कैटभ वध | वराह अवतार की संक्षिप्त कथा | नृसिंह अवतार की संक्षिप्त कथा | वामन अवतार की संक्षिप्त कथा | दत्तात्रेय अवतार की संक्षिप्त कथा | परशुराम अवतार की संक्षिप्त कथा | श्रीराम अवतार की संक्षिप्त कथा | श्रीकृष्ण अवतार की संक्षिप्त कथा | कल्कि अवतार की संक्षिप्त कथा | श्रीकृष्ण का प्राकट्य | कालिय-मर्दन एवं धेनुकासुर वध | अरिष्टासुर एवं कंस वध | श्रीकृष्ण और बलराम का विद्याभ्यास | श्रीकृष्ण का गुरु को दक्षिणा रूप में उनके पुत्र का जीवन देना | नरकासुर का सैनिकों सहित वध | श्रीकृष्ण का सोलह हजार कन्याओं को पत्नीरूप में स्वीकार करना | श्रीकृष्ण का इन्द्रलोक जाकर अदिति को कुण्डल देना | द्वारकापुरी का वर्णन | रुक्मिणी के महल का वर्णन | सत्यभामा सहित अन्य रानियों के महल का वर्णन | श्रीकृष्ण और बलराम का द्वारका में प्रवेश | श्रीकृष्ण द्वारा बाणासुर पर विजय | भीष्म के द्वारा श्रीकृष्ण माहात्म्य का उपसंहार | सहदेव की राजाओं को चुनौती
शिशुपाल वध पर्व
युधिष्ठिर को भीष्म का सान्त्वना देना | शिशुपाल द्वारा भीष्म की निन्दा | शिशुपाल की बातों पर भीम का क्रोध | भीष्म द्वारा शिशुपाल के जन्म का वृतांत्त का वर्णन | भीष्म की बातों से चिढ़े शिशुपाल का उन्हें फटकारना | श्रीकृष्ण द्वारा शिशुपाल वध | राजसूय यज्ञ की समाप्ति | श्रीकृष्ण का स्वदेशगमन
द्यूत पर्व
व्यासजी की भविष्यवाणी से युधिष्ठिर की चिन्ता | दुर्योधन का मय निर्मित सभा भवन को देखना | युधिष्ठिर के वैभव को देखकर दुर्योधन का चिन्तित होना | पाण्डवों पर विजय प्राप्त करने के लिए दुर्योधन-शकुनि की बातचीत | दुर्योधन का द्यूत के लिए धृतराष्ट्र से अनुरोध | धृतराष्ट्र का विदुर को इन्द्रप्रस्थ भेजना | दुर्योधन का धृतराष्ट्र को अपने दुख और चिन्ता का कारण बताना | युधिष्ठिर को भेंट में मिली वस्तुओं का दुर्योधन द्वारा वर्णन | दुर्योधन द्वारा युधिष्ठिर के अभिषेक का वर्णन | दुर्योधन को धृतराष्ट्र का समझाना | दुर्योधन का धृतराष्ट्र को उकसाना | द्यूतक्रीडा के लिए सभा का निर्माण | धृतराष्ट्र का युधिष्ठिर को बुलाने के लिए विदुर को आज्ञा देना | विदुर और धृतराष्ट्र की बातचीत | विदुर और युधिष्ठिर बातचीत तथा युधिष्ठिर का हस्तिनापुर आना | जुए के अनौचित्य के सम्बन्ध में युधिष्ठिर-शकुनि संवाद | द्यूतक्रीडा का आरम्भ | जुए में शकुनि के छल से युधिष्ठिर की हार | धृतराष्ट्र को विदुर की चेतावनी | विदुर द्वारा जुए का घोर विरोध | दुर्योधन का विदुर को फटकारना और विदुर का उसे चेतावनी देना | युधिष्ठिर का धन, राज्य, भाई, द्रौपदी सहित अपने को भी हारना | विदुर का दुर्योधन को फटकारना | दु:शासन का सभा में द्रौपदी को केश पकड़कर घसीटकर लाना | सभासदों से द्रौपदी का प्रश्न | भीम का क्रोध एवं अर्जुन को उन्हें शान्त करना | विकर्ण की धर्मसंगत बात का कर्ण द्वारा विरोध | द्रौपदी का चीरहरण | विदुर द्वारा प्रह्लाद का उदाहरण देकर सभासदों को विरोध के लिए प्रेरित करना | द्रौपदी का चेतावनी युक्त विलाप एवं भीष्म का वचन | दुर्योधन के छल-कपटयुक्त वचन और भीम का रोषपूर्ण उद्गार | कर्ण और दुर्योधन के वचन एवं भीम की प्रतिज्ञा | द्रौपदी को धृतराष्ट्र से वर प्राप्ति | कौरवों को मारने को उद्यत हुए भीम को युधिष्ठिर का शान्त करना | धृतराष्ट्र का युधिष्ठिर को सारा धन लौटाकर इन्द्रप्रस्थ जाने का आदेश
अनुद्यूत पर्व
दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पुन: द्युतक्रीडा के लिए पाण्डवों को बुलाने का अनुरोध | गान्धारी की धृतराष्ट्र को चेतावनी किन्तु धृतराष्ट्र का अस्वीकार करना | धृतराष्ट्र की आज्ञा से युधिष्ठिर का पुन: जुआ खेलना और हारना | दु:शासन द्वारा पाण्डवों का उपहास | भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव की भीषण प्रतिज्ञा | विदुर का पाण्डवों को धर्मपूर्वक रहने का उपदेश देना | द्रौपदी का कुन्ती से विदा लेना | कुन्ती का विलाप एवं नगर के नर-नारियों का शोकातुर होना | वनगमन के समय पाण्डवों की चेष्टा | प्रजाजनों की शोकातुरता के विषय में धृतराष्ट्र-विदुर का संवाद | शरणागत कौरवों को द्रोणाचार्य का आश्वासन | धृतराष्ट्र की चिन्ता और उनका संजय के साथ वार्तालाप

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः