महाभारत सभा पर्व के ‘द्यूत पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 62 के अनुसार धृतराष्ट्र को विदुर की चेतावनी का वर्णन इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
शकुनि का छल से जीतने पर विदुर का धृतराष्ट्र को विनाश चेतवानी देना
वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय! इस प्रकार जय सर्वस्व का अपहरण करने वाली वह भयानक द्यूतक्रीडा चल रही थी, उसी समय समस्त संशयों का निवारण करने वाले विदुरजी बोल उठे। विदुरजी ने कहा - भरत कुलतिलक महाराज धृतराष्ट्र! मरणासन्न रोगी को जैसे ओषधि अच्छी नहीं लगती, उसी प्रकार आप लोगों को मेरी शास्त्रसम्मत बात भी अच्छी नहीं लगेगी। फिर भी मैं आपसे जो कुछ कह रहा हूँ, उसे अच्छी तरह सुनिये और समझिये। यह भरतवंश का विनाश करने वाला पापी दुर्योधन पहले जब गर्भ से बाहर निकला था, गीदड़ के समान जोर-जोर से चिल्लाने लगा था; अत: यह निश्चय ही आप सब लोगों के विनाश कारण बनेगा। राजन्! दुर्योधन के रूप में आपके घर के भीतर एक गीदड़ निवास कर रहा है; परंतु आप मोहवश इस बात को समझ नहीं पाते। सुनिये, मैं आपको शुक्राचार्य की कही हुई नीति की बात बतलाता हूँ। मधु बेचने वाला मनुष्य जब कहीं ऊँचे वृक्ष आदि पर मधु का छत्ता देख लेता ह, तब वहाँ से गिरने की सम्भावना की ओर ध्यान नहीं देता। वह ऊँचे स्थान पर चढ़कर या तो मधु पाकर मग्न हो जाता है अथवा उस स्थान से नीचे गिर जाता है। वैसे ही यह दुर्योधन जूए के नशे में इतना उन्मत्त हो गया है कि मधुमत्त पुरुष की भाँति अपने ऊपर आने वाले संकट को नहीं देखता। महारथी पाण्डवों के साथ वैर करके हमें पतन के गर्त में गिरकर मरना पड़ेगा, इस बात को समझ नहीं पा रहा है। महाप्राज्ञ! मुझे मालूम है कि भोजवंश के एक नरेश ने पूर्वकाल में पुरवासियों के हित की इच्छा से अपने कुमार्गगामी पुत्र का परित्याग कर दिया था। अन्धकों, यादवों और भोजों ने मिलकर कंस को त्याग दिया तथा उन्हीं के आदेश से शत्रुघाती श्रीकृष्ण ने उसको मार डाला। इस प्रकार उसके मारे जाने से समस्त बन्धु-बान्धव सदा के लिये सुखी हो गये हैं। आप भी आज्ञा दें तो ये सव्यसाची अर्जुन इस दुर्योधन को बंदी बना ले सकते हैं। इसी पापी के कैद हो जाने से समस्त कौरव सुख और आनन्द से रह सकते हैं। राजन्! दुर्योधन कौवा है और पाण्डव मोर। इस कौवे को देकर आप विचित्र पंख वाले मयूरों को खरीद लीजिये। इस गीदड़ के द्वारा इन पाण्डव रूपी शेरों को अपनाइये। शोक के समुद्र में डूबकर प्राण न दीजिये। समूचे कुल की भलाई के लिये एक मनुष्य को त्याग दे, गाँव के हित के लिये एक कुल को छोड़ दे, देश की भलाई के लिये एक गाँव को त्याग दे और आत्मा के उद्धार के लिये सारी पृथ्वी का ही परित्याग कर दे।[1]
विदुर का कथा सुनाना
सबके मनोभावों को जानने वाले तथा सब शत्रुओं के लिये भयंकर सर्वज्ञ शुक्राचार्य ने जम्भ दैत्य को त्याग करने के समय समस्त बडे़-बड़े असुरों से यह कथा सुनायी थी। एक वन में कुछ पक्षी रहते थे, जो अपने मुख से सोना उगला करते थे। एक दिन जब वे अपने घोंसलों में आराम से बैठे थे, उस देश के राजा ने उन्हें लोभवश मरवा डाला। शत्रुओं को संताप देने वाले नरेश! उस राजा को एक साथ बहुता-सा सुवर्ण पा लेने की इच्छा थी। उपभोग- के लोभ ने उसे अंधा बना दिया था।[1]
अत: उसने उस धन के लोभ से उन पक्षियों वध करके वर्तमान और भविष्य दोनों लाभों का तत्काल नाश कर दिया। राजन्! इसी प्रकार आप पाण्डवों का सारा धन हड़प लेने के लोभ से उनके साथ द्रोह न करें। अन्यथा उन पक्षियों की हिंसा करने वाले राजा की भाँति आपको भी मोहवश पश्यत्ताप करना पड़ेगा। इस द्रोह से आपका उसी तरह सर्वनाश हो जायगा, जैसे बंसी का काँटा निगल लेने से मछली का नाश हो जाता है। भरतकुलभूषण! जैसे माली उद्यान के वृक्षों को बार-बार खींचता रहता है और समय-समय पर उनसे खिले पुष्पों को चुनता भी रहता है, उसी प्रकार आप पाण्डवरूपी वृक्षों को स्नेहजल से सींचते हुए उनसे उत्पन्न होने वाले धनरूपी पुष्पों को लेते रहिये। जैसे कोयला बनाने वाला वृक्षों को जलाकर भस्म कर देता है, उसी प्रकार आप इन्हें जड़ मूल सहित जलाने की चेष्टा न कीजिये। कहीं ऐसा न हो कि पाण्डवों के साथ विरोध करने के कारण आपको पुत्र, मन्त्री और सेना के साथ यमलोक में जाना पड़े। भरतवंशीय राजन्! देवताओं सहित साक्षात् देवराज इन्द्र ही क्यों न हों, जब कुन्तीपुत्र संगठित होकर युद्ध के लिये तैयार होंगे, उनका मुकाबला कौन कर सकता है?[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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