दत्तात्रेय अवतार की संक्षिप्त कथा

महाभारत सभा पर्व के ‘अर्घाभिहरण पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 38 के अनुसार दत्तात्रेय अवतार की संक्षिप्त कथा का वर्णन इस प्रकार है[1]-


दत्तात्रेय द्वारा हैहयराज अर्जुन को वर देना=

युधिष्ठिर! अब तुम मनुष्यों में श्रीहरि के जो अवतार हुए हैं, उनका वृत्तान्त सुनो। महाराज! अब मैं पुन: भगवान विष्णु के दत्तात्रेय नामक अवतार का वर्णन करता हूँ। दत्तात्रेय महान् यशस्वी महर्षि थे। एक समय की बात है, सारे वेद नष्ट से हो गये। वैदिक कर्मो और यज्ञ यागादिकों का लोप हो गया। चारों वर्ण एक में मिल गये ओर सर्वत्र वर्णसंकरता फैल गयी। धर्म शिथिल हो गया एवं अधर्म दिनों दिन बढ़ने लगा। सत्य दब गया और सब ओर असत्य ने सिक्का जमा लिया। प्रजा क्षीण होने लगी और धर्म को अधर्म द्वारा हर तरह से पीड़ा (हानि) पहुँचने लगी। ऐसे समय में महात्मा दत्तात्रेय ने यज्ञ और कर्मानुष्ठान की विधि सहित सम्पूर्ण वेदों का पुनरुद्धार किया और पुन: चारों वर्णों को पृथक-पृथक अपनी अपनी मर्यादा में स्थापित किया। इन्होंने ही हैहयराज अर्जुन को वर दिया था। दैहयराज अर्जुन ने अपनी सेवाओं द्वारा दत्तात्रेयजी को प्रसन्न कर लिया था। वह अच्छी तरह सेवा में संलग्न हो वन में मुनिवर दत्तात्रेय की परिचर्या में लगा रहता था। उसने दूसरों का दोष देखना छोड़ दिया था। वह ममता और अहंकार से रहित था। उसने दीर्घकाल तक दत्तात्रेयजी की अराधना करके उन्हें संतुष्ट किया। दत्तात्रेयजी आप्त पुरुषों से भी बढ़कर आप्त पुरुष थे। बड़े-बड़े विद्वान उनकी सेवा में रहते थे। विद्वानु सहस्रबाहु अर्जुन ने उन ब्रह्मर्षि से ये निम्नांकित वर प्राप्त किये। अमरत्व छोड़कर उसके माँगे हुए सभी वर विद्वान ब्राह्मण दत्तात्रेयजी ने दे दिये। उसने चार वरों के लिये महर्षि से प्रार्थना की थी और उन चारों का ही महर्षि ने अभिनन्दन किया था। (वे वर इस प्रकार हैं- हैहयराज बोला-) ‘मैं श्रीमान्, मनस्वी, बलवान, सत्यवादी, अदोषदर्शी तथा सहुस्त्र भुजाओं से विभूषित होऊँ, यह मेरे लिये पहला वर है। ‘मैं जरायुज और अण्डज जीवों के साथ-साथ समस्त चराचर जगत का धर्मपूर्वक शासन करना चाहता हूँ’ मेरे लिये दूसरा वह यही हो। ‘मैं अनेक प्रकार के यज्ञों द्वारा देवताओं, ऋषियों, पितरों तथा ब्राह्मण अतिथियों का यजन करूँ और जो लोग मेरे शत्रु हैं, उन्हें समरांगण में तीखे बाणों द्वारा मारकर यम लोक पहुँचा दूँ।’ भगवन दत्तात्रेय! मेरे लिये यही तीसरा वर हो। ‘जिसके समान इहलोक या स्वर्गलोक में कोई पुरुष न था, न है और न होगा ही, वही मेरा वध करने वाला हो’ (यह मेरे लिये चौथा वर हो)। वह अर्जुन राजा कृतवीर्य का ज्येष्ठ पुत्र था युद्ध में महान शौर्य का परिचय देता था। उसने माहिष्मती नगरी में दस लाख वर्षो तक निरन्तर अभ्युदशील होकर राज्य किया। जैसे आकाश में सूर्य देव सदा प्रकाशमान होते हैं, उसी प्रकार कृतवीर्य अर्जुन सारी पृथ्वी और समुदी द्वीपों को जीतकर इस भूतल पर अपने पुण्यकर्मों से प्रकाशित हो रहा था। शक्तिशाली सहस्रबाहु ने इन्द्रद्वीप, कशेरुद्वीप, ताम्रद्वीप, गभस्तिमान द्वीप, गन्धर्वद्वीप, वरुणद्वीप और सौम्याक्ष द्वीप को, जिन्हें उसके पूर्वजों ने भी नहीं जीता था, जीतकर अपने अधिकार में कर लिया।[1]

कृतवीर्य अर्जुन द्वारा शासन व लोकहित कार्य

उसका श्रेष्ठ राजभवन बहुत ही सुन्दर और सारा का सारा सुवर्णमय था। उसने अपने राज्य की आय को चार भागों में बाँट रखा था और इस विभाजन के अनुसार ही वह प्रजा का पालन करता था। वह उस आय के एक अंश के द्वारा सेना का संग्रह और संरक्षण करता था, दूसरे आश के द्वारा गृहस्थी का खर्च चलाता था तथा उसका जो तीसरा अंश था, उसके द्वारा राजा अर्जुन प्रजा जनों की भलाई के लिये यज्ञों का अनुष्ठान करता था। वह सबका विश्वासपात्र और परम कल्याणकारी था। वह राजकीय आय के चौथे अंश के द्वारा गाँवों और जंगलों में डाकुओं और लुटेरों को शासन पूर्वक रोकता था। कृतवीर्यकुमार अर्जुन उसी धन को अच्छा मानता था, जिसे उसने अपने बल-पराक्रम द्वारा प्राप्त किया हो। काक या मूषकवृत्ति से जो लोग प्रजा के धन का अपहरण करते थे, उन सबको वह नष्ट कर देता था। उसके राज्य के भीतर गाँवों तथा नगरों में घर के दरवाजे बंद नहीं किये जाते थे। राजन! कार्तवीर्य अर्जुन ही समूचे राष्ट्र का पोषक, स्त्रियों का संरक्षक, बकरियों की रक्षा करने वाला तथा गौओं का पालक था। वही जंगलों में मनुष्यों के खेतों की रक्षा करता था। यह है कृतवीर्य का अद्भुत कार्य, जिसकी मनुष्यों से तुलना नहीं हो सकती है। न पहले का कोई राजा कृतवीर्यकी किसी महत्ता को प्राप्त कर सका और न भविष्य में ही काई प्राप्त कर सकेगा। वह जब समुद्र में चलता था, तब उसका वस्त्र नहीं भींगता था। राजा अर्जुन दत्तात्रेय जी के कृपा प्रसाद से लाखों वर्ष तक पृथ्वी पर शासन करते हुए इस प्रकार राज्य का पालन करता रहा। इस प्रकार उसने लोकहित के लिये बहुत से कार्य किये। भरतश्रेष्ठ! यह मैंने भगवान विष्णु के दत्तात्रेय नामक अवतार का वर्णन किया।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 12
  2. महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 13

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