महाभारत सभा पर्व के ‘द्यूत पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 76 के अनुसार धृतराष्ट्र की आज्ञा से युधिष्ठिर का पुन: जुआ खेलना और हारने का वर्णन इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
धृतराष्ट्र की आज्ञा से युधिष्ठिर का पुन: जुआ खेलना
वैशम्पायनजी कहते हैं - राजन्! धर्मराज युधिष्ठिर इन्द्रप्रस्थ के मार्ग में बहुत दूर तक चले गये थे। उस समय बुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र की आज्ञा से प्रातिकामी उनके पास गया और इस प्रकार बोला- 'भरतकुल भूषण पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर! आपके पिता राजा धृतराष्ट्र ने यह आदेश दिया है कि तुम लौट जाओ। हमारी सभा फिर सदस्यों से भर गयी है और तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है। तुम पासे फेंककर जूआ खेलो'। युधिष्ठिर ने कहा- समस्त प्राणी विधाता की प्ररेणा से शुभ और अशुभ फल प्राप्त करते हैं। उन्हें कोई टाल नहीं सकता। जान पड़ता है, मुझे फिर जूआ खेलना पड़ेगा। वृद्ध राजा धृतराष्ट्र की आज्ञा से जूए के लिये यह बुलावा हमारे कुल के विनाश का कारण है, यह जानते हुए भी मैं उनकी आशा का उल्लंघन नहीं कर सकता। वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय! किसी जानवर का शरीर सुवर्ण का हो, यह सम्भव नहीं; तथापि श्रीराम स्वर्णमय प्रतीत होने वाले मृग के लिये लुभा गये। जिनका पतन था पराभव निकट होता है, उनकी बुद्धि प्राय: अत्यन्त विपरीत हो जाती है। ऐसा कहते हुए पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर भाइयों के साथ पुन: लौट पड़े। वे शकुनि ने माया को जानते थे, तो भी जूआ खेलने क लिये चले आये। महारथी भरतश्रेष्ठ पाण्डव पुन: उस सभा में प्रविष्ट हुए। उन्हें देखकर सुहृदों के मन में बड़ी पीड़ा होने लगी। प्रारब्ध के वशीभूत हुए कुन्तीकुमार सम्पूर्ण लोकों के विनाश के लिये पुन: द्यूतक्रीडा आरम्भ करने के उदेश्य से चुपचाप वहाँ जाकर बैठ गये। शकुनि ने कहा - राजन्! भरतश्रेष्ठ! हमारे बूढे़ महाराज ने आपको जो सारा धन लौटा दिया, वह बहुत अच्छा किया है। अब जूए के लिये एक ही दाँव रखा जायेगा उसे सुनिये - 'यदि आपने हम लोगों को जूए में हरा दिया तो हम मृग-चर्म धारण करके महान् वन में प्रवेश करेंगे। 'और बारह वर्ष वहाँ रहेंगे एवं तेरहवाँ वर्ष हम जन-समूह में लोगों से अज्ञात रहकर पूरा करेंगे और यदि हम तेरहवें वर्ष में लोगों की जानकारी में आ जायँ तो फिर दुबारा बारह वर्ष वन में रहेंगे। 'यदि हम जीत गये तो आपलोग द्रौपदी के साथ बारह वर्षो तक मृगचर्म धारण करते हुए वन में रहें। 'आपको भी तेरहवाँ वर्ष जन समूह में लोगों से अज्ञात रहकर व्यतीत करना पड़ेगा और यदि ज्ञात हो गये तो फिर दुबारा बारह वर्ष वन में रहना होगा। 'तेरहवाँ वर्ष पूर्ण होने पर हम या आप फिर वन से जाकर यथोचित रीति से अपना-अपना राज्य प्राप्त कर सकते है'। भरतवंशी युधिष्ठिर! इसी निश्चय के साथ आप आइये और पुन: पासा फेंककर हम लोगों के साथ जूआ खेलिये। यह सुनकर सब सभासदों ने सभा में अपने हाथ ऊपर उठाकर अत्यन्त उद्विभचित्त हो बड़ी घबराहट के साथ कहा।[1]
युधिष्ठिर को जुआ खेलने के लिए सभी का मना करना
सभासद् बोले - अहो धिक्कार है! ये भाई-बन्धु भी युधिष्ठिर उनके ऊपर आने वाले महान् भय की बात नहीं समझाते। पता नहीं, ये भरतश्रेष्ठ युधिष्ठिर अपनी बुद्धि के द्वारा इस भय को समझें या न समझें। वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय! लोगों की तरह-तरह की बातें सुनते हुए भी राजा युधिष्ठिर लज्जा के कारण तथा धृतराष्ट्र के आज्ञापालन रूप धर्म की दृष्टि से पुन: जूआ खेलने के लिये उद्यत हो गये।[1] परम बुद्धिमान युधिष्ठिर जूए का परिणाम जानते थे, तो भी यह सोचकर कि सम्भवत: कुरुकुल का विनाश बहुत निकट है, वे द्यूतक्रीड़ा में प्रवृत्त हो गये। युधिष्ठिर बोले - शकुने! स्वधर्मपालन में संलग्न रहने वाला मेरे-जैसा राजा जूए के लिये बुलाये जाने पर कैसे पीछे हट सकता था, अत: मैं तुम्हारे साथ खेलता हूँ। वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय! उस समय धर्मराज युधिष्ठिर प्रारम्भ के वशीभूत हो गये थे। महाराज! उन्हें भीष्म, द्रोण और बुद्धिमान विदुर जी दुबारा जूआ खेलने से रोक रहे थे। युयुत्सु, कृपाचार्य तथा संजय भी मना कर रहे थे। गान्धारी, कुन्ती, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, वीर विकर्ण, द्रौपदी, अश्वत्थामा, सोमदत्त तथा बुद्धिमान बाहलिक भी बार-बार रोक रहे थे तो भी राजा युधिष्ठिर भावी के वश होने के कारण जूए से नहीं हटे।[2]
युधिष्ठिर का जुए में पुन: हारना
शकुनि ने कहा - राजन् हम लोगों के पास बैल, घोडे़ और बहुत-सी दुधारू गौएँ हैं। भेड़ और बकरियों की तो गिनती ही नहीं है। हाथी, खजाना, दास-दासी तथा सुवर्ण सब कुछ हैं। फिर भी (इन्हें छोड़कर) एकमात्र वनवास का निश्चय ही हमारा दाँव है। पाण्डवों! आप लोगों या हम, जो भी हारेंगे, उन्हें वन में जाकर रहना होगा। केवल तेरहवें वर्ष हमें किसी जनसमूह में अज्ञात भाव से रहना होगा। नरश्रेष्ठगण! हम इसी निश्चय के साथ जूआ खेलें। भारत! वनवास की शर्त रखकर केवल एक ही बार पासा फेंकने से जूए का खेल पूरा हो जायेगा। युधिष्ठिर ने उसकी बात स्वीकार कर ली। तत्पश्चात् सुबलपुत्र शकुनि ने पासा हाथ में उठाया और उसे फेंककर कहा-मेरी जीत हो गयी।[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 महाभारत सभा पर्व अध्याय 76 श्लोक 1-18
- ↑ 2.0 2.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 76 श्लोक 19-24
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