धृतराष्ट्र की चिन्ता और उनका संजय के साथ वार्तालाप

महाभारत सभा पर्व के ‘द्यूत पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 81 के अनुसार धृतराष्ट्र की चिन्ता और उनका संजय के साथ वार्तालाप का वर्णन इस प्रकार है[1]-

कौरवों विनाश की बात से धृतराष्ट्र का चिन्तित होना

वैशम्‍पायनजी कहते हैं - जनमेजय! अब पाण्‍डव जूए में हारकर वन में चले गये, तब राजा धृतराष्‍ट्र को बड़ी चिन्‍ता हुई। महाराज धृतराष्‍ट्र को लंबी साँस खींचते और अद्विग्रचित्‍त होकर चिन्‍ता में डूबे हुए देख संजय ने इस प्रकार कहा। संजय बोले - पृथ्‍वीनाथ! यह धन-रत्‍नों से सम्‍पन्‍न वसुधा का राज्‍य पाकर और पाण्‍डवों पाण्‍डवों को अपने देश से निकालकर अब आप क्‍यों शोकमग्र हो रहे हैं ? धृतराष्‍ट्र ने कहा - जिन लोगों का युद्धकाल बलवान् महारथी पाण्‍डवों से वैर होगा, वे शोकमग्र हुए बिना कैसे रह सकते हैं ?[1]

संजय द्वारा धृतराष्ट्र को उनके पुत्रों की गलती बताना

संजय बोले - राजन्! यह आपकी अपनी ही की हुई करतूत है, जिससे यह महान् वैर उपस्थित हुआ है और इसी के कारण सम्‍पूर्ण जगत् का सगे-सम्‍बन्धियों सहित विनाश हो जायेगा। भीष्‍म, द्रोण और विदुर ने बार-बार मना किया तो भी आपके मूढ़ और निर्लज पुत्र दुर्योधन ने सूतपुत्र प्रातिकामी को यह आदेश देकर भेजा कि तुम पाण्‍डवों की प्‍यारी पत्‍नी धर्मचारिणी द्रौपदी को सभा में ले आओ। देवता लोग जिस पुरुष को पराजय देना चाहते हैं, उसकी बुद्धि ही पहले हर लेते हैं, इससे व‍ह सब कुछ उल्‍टा ही देखने लगता है। विनाशकाल उपस्थित होने पर जब बुद्धि मलिन हो जाती हैं, उस समय अन्‍याय ही न्‍याय के समान जान पड़ता है और वह हृदय से किसी प्रकार नहीं निकलता। उस समय उस पुरुष के विनाश के लिये अनर्थ ही अर्थरूप से और अर्थ भी अनर्थ रूप से उसके सामने उपस्थित होते हैं और निश्‍चय ही अर्थरूप में आया हुआ अनर्थ ही उसे अच्‍छा लगता है। काल डंडा या तलवार लेकर किसी का सिर नहीं काटता। काल का बल इतना ही है कि वह प्रत्‍येक वस्‍तु के विषय में मनुष्‍य की विपरीत बुद्धि कर देता है। पांचाल राजकुमारी द्रौपदी तपस्विनी है। उसका जन्‍म किसी मानवी स्‍त्री के गर्भ से नहीं हुआ है, वह अग्नि के कुल में उत्‍पन्‍न हुई और अनुपम सुन्‍दरी है। वह सब धर्मों को जानने वाली तथा यशस्विनी है। उसे भरी सभा में खींचकर लाने वाले दुष्‍टों ने भयंकर तथा रोंगटे खड़े कर देने वाले घमासान युद्ध की सम्‍भावना उत्‍पन्‍न कर दी है। अधर्मपूर्वक जूआ खेलने वाले दुर्योधन के सिवा कौन है, जो द्रौपदी को सभा में बुला सके। सुन्‍दर शरीर वाली पांचाल राजकुमारी स्‍त्रीधर्म से युक्‍त (रजस्‍वला) थी। उसका वस्‍त्र रक्‍त से सना हुआ था। वह एक ही साड़ी पहने हुए थी। उसने सभा में आकर पाण्‍डवों को देखा। उन पाण्‍डवों के धन, राज्‍य, वस्‍त्र और लक्ष्‍मी सब का अपहरण हो चुका था। वे सम्‍पूर्ण मनोवाच्छित भोगों से वच्चित हो दाससभा को प्राप्‍त हो गये थे। धर्म के बन्‍धन में बँधे रहने के कारण वे पराक्रम दिखाने में भी असमर्थ- से हो रहे थे। उनकी यह दशा देखकर कृष्‍णा क्रोध और दु:ख में डूबी गयी। वह तिरस्‍कार के योग्‍य कदापि न थी, तो भी कौरवों की सभा में दुर्योधन और कर्ण ने उसे कटू वचन सुनाये। राजन्! ये सारी बातें मुझे महान् दु:ख को निमन्‍त्रण देने वाली जान पड़ती हैं।[1]

धृताराष्ट्र और संजय का वार्तालाप

धृतराष्‍ट्र ने कहा - संजय! द्रौपदी के उन दीनतापूर्ण नेत्रों द्वारा यह सारी पृथ्‍वी दग्‍ध हो सकती थी।[1] संजय! उसके अभिशाप से मेरे सभी पुत्रों का आज ही संहार हो जाता, परंतु उसने सब कुछ चुपचाप सह लिया। जिस समय रूप और यौवन से सुशोभित होने वाली पाण्‍डवों की धर्मपरायणा धर्मपत्‍नी कृष्‍णा सभा में लायी गयी, उस समय वहाँ उसे देखकर भारतवंश की सभी स्त्रियाँ गान्‍धारी के साथ मिलकर बड़े भयानक स्‍वर से विलाप एवं चीत्‍कार करने लगीं। ये सारी स्त्रियाँ प्रजावर्ग की स्त्रियाँ के साथ मिलकर रात दिन सदा इसी के लिये शोक करती रहती हैं। उस दिन द्रौपदी का वस्‍त्र खींचे जाने के कारण सब ब्राह्मण कुपित हो उठे थे, अत: सायंकाल हमारे घरों में उन्‍होंने अग्निहोत्र तक नहीं किया। उस समय प्रलयकालीन मेघों की भयानक गर्जना के समान भारी आवाज के साथ बड़े जोर की आँधी चलने लगी। वज्रपात का-सा अत्‍यन्‍त कर्कश शब्‍द होने लगा। आकाश से उल्‍काएँ गिरने लगीं तथा राहु ने बिना पर्व के ही सूर्य को ग्रस लिया और प्रजा के लिये अत्‍यन्‍त घोर भय उपस्थित कर दिया। इसी प्रकार हमारी रथशालाओं में आग लग गयी और रथों की ध्‍वजाएँ जलकर खाक हो गयीं, जो भरतवंशियों के लिये अमड्रल की सूचना देने वाली थीं। दुर्योधन के अग्निहोत्र गृह में गीदडियाँ आकर भयंकर स्‍वर से हुँआ-हुँआ करने लगी। उनकी आवाज सुनते ही चारों दिशाओं में गधे रेंकने लगे। संजय! यह सब देखकर द्रोण के साथ भीष्‍म, कृपाचार्य, सोमदत्त और महामना बाह्रीक वहाँ से उठकर चल गये। तब मैंने विदुर की प्रेरणा से वहाँ यह बात कही - ‘मैं कृष्‍णा को मनोवाछित वर दूँगा। वह जो कुछ चाहे, माँग सकती है’। तब वहाँ पांचाली ने यह वर मांगा कि पाण्‍डव लोग दासभाव से मुक्‍त हो जायँ। मैंने भी रथ और धनुष आदि के सहित पाण्‍डवों को उनकी समस्‍त सम्‍पति के साथ इन्‍द्रप्रस्‍थ लौट जाने की आज्ञा दे दी थी।[2]

धृतराष्ट्र का संजय को विदुर की नीति युक्त बात बताना

तदनन्‍तर सब धर्मो के ज्ञाता परम बुद्धिमान विदुर ने कहा-‘भरतवंशियो! यह कृष्‍णा जो तुम्‍हारी सभा में लायी गयी, यही तुम्‍हारे विनाश का कारण होगा। यह जो पाचाल राज की पुत्री है, वह परम उत्तम लक्ष्‍मी ही है। देवताओं की आज्ञा से ही पाचाली इन पाण्‍डवों की सेवा करती है। ‘कुन्‍ती के पुत्र अमर्ष में भरे हुए है। द्रौपदी को जो यहाँ इस प्रकार क्‍लेश दिया गया है, इसे वे कदापि सहन नहीं करेंगे। सत्‍यप्रतिज्ञ भगवान श्रीकृष्‍ण से सुरक्षित महान् धनुर्धर वृष्णिवंशी अथवा महारथी पांचाल वीर भी इसे नहीं सहेंगे। अर्जुन पांचाल वीरों से घिरे हुए अवश्‍य आयँगे। ‘उनके बीच में महाधनुर्धर महाबली भीमसेन होंगे, जो दण्‍डपाणि यमराज की भाँति गदा घुमाते हुए युद्ध के लिये आयँगे। ‘उस समय परम बुद्धिमान अर्जुन के गाण्‍डीव धनुष की टंकार सुनकर और भीमसेन की गदा का महान् वेग देखकर कोई भी राजा उनका सामना करने में समर्थ न हो सकेंगे। ‘अत: मुझे तो पाण्‍डवों के साथ सदा शान्ति बनाये रखने के ही नीति अच्‍छी लगती है। उनके साथ युद्ध करना मुझे पसंद नही है। मैं पाण्‍डवों को सदा ही कौरवों से अधिक बलवान् मानता हूँ। ‘क्‍योकि महान् तेजस्‍वी और बलवान् राजा जरासंघ को भीमसेन ने बाहुरूपी शस्‍त्र से ही युद्ध में मार गिराया था। ‘भरतवंश शिरोमणे! अत: पाण्‍डवों के साथ आप को शान्ति ही बनाये रखनी चाहिये। दोनों पक्षों के लिये यही उचित है। आप नि:शंक होकर यही उपाय करें। ‘महाराज! ऐसा करने पर आप परम कल्‍याण के भागी होंगे। ‘ संजय! इस प्रकार विदुर ने मुझसे धर्म और अर्थयुक्‍त बातें कही थी; किंतु पुत्र का हित चाहने वाला होकर भी मैंने उनकी बात नहीं मानी।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 महाभारत सभा पर्व अध्याय 81 श्लोक 1-18
  2. 2.0 2.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 81 श्लोक 19-39

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