श्रीकृष्ण और अर्जुन को आते देख शल्य और कर्ण की बातचीत

महाभारत कर्ण पर्व के अंतर्गत 79वें अध्याय में संजय ने अर्जुन के कहने श्रीकृष्ण और अर्जुन को कर्ण के पास आते देखकर शल्य और कर्ण की आपस में बातचीत करने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

कृष्ण और अर्जुन को आते देख शल्य और कर्ण का बातचीत करना

संजय बोले- राजन! श्रीकृष्ण जिनके सारथि हैं, उन श्वेतावाहन अर्जुन को आते देख और उन महात्मा की ध्वजा पर दृष्टिपात करके मद्रराज शल्य ने कर्ण से कहा- ‘कर्ण! तुम जिसके विषय मैं पूछ रहे थे, वही यह श्वेत घोड़ों वाला रथ, जिसके सारथि श्रीकृष्ण हैं, समरांगण में शत्रुओं का संहार करता हुआ इधर ही आ रहा है। ये कुन्तीकुमार अर्जुन हाथ मैं गाण्डीव धनुष लिये हुए खडे़ हैं। यदि तुम आज उनको मार डालागे तो वह हम लोगों के लिये श्रेयस्कर होगा। कर्ण! देखो, अर्जुन के धनुष की यह प्रत्यंचा तथा चन्द्रमा और तारों से चिह्नित यह रथ की पताका है, जिसमें छोटी-छोटी घंटिया लगी हैं, वह आकाश मैं बिजली के समान चमक रही है। कुन्तीकुमार अर्जुन की ध्वजा के अग्रभाग मैं एक भयंकर वानर दिखायी देता है, जो सब और देखता हुआ कौरव वीरों का भय बढ़ा रहा है। पाण्डुपुत्र के रथ पर बैठकर घोडे़ हांकते हुए भगवान श्रीकृष्ण के ये चक्र, गदा, शंख तथा शांर्ग धनुष दष्टिगोचर हो रहे हैं। यह युद्ध से कभी पीछे नहीं हटते, उन राजाओं के कटे हुए मस्तकों से यह रणभूमि पटी जा रही है। उन मस्तकों के नेत्र बड़े-बड़े़ और लाल हैं तथा मुख पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर है। रणवीरों की ये अस्त्र-शस्त्रों सहित उठी हुई भुजाएं, जो परिघों के समान मोटी तथा पवित्र सुगन्धयुक्त चन्दन से चर्चित हैं, काटकर गिरायी जा रही हैं। ये कौरवपक्ष के सवारों सहित घोडे़ क्षत-विक्षत हो, अर्जुन के द्वारा गिराये जा रहे हैं। इनकी जीभें और आंखें बाहर निकल आयी हैं। ये गिरकर पृथ्वी पर सो रहे हैं। ये हिमाचल प्रदेश के हाथी, जो पर्वत-शिखरों के समान जान पड़ते हैं, पर्वतों के समान धराशायी हो रहे हैं।

अर्जुन ने इसके कुम्भस्थल काट डाले हैं। ये गन्धर्व-नगर के समान विशाल रथ हैं, जिनसे ये मारे गये राजा लोग उसी प्रकार नीचे गिर रहे हैं, जैसे पुण्य समाप्त होने पर स्वर्गवासी प्राणी विमान से नीचे गिर जाते हैं। किरीटधारी अर्जुन ने शत्रुसेना को उसी प्रकार अत्यन्त व्याकुल कर दिया है, जैसे सिंह नाना जाति के सहस्रों मृगों के झुंड को व्याकुल कर देता हैं। राधापुत्र कर्ण! अर्जुन बड़े-बडे़ राथियों का संहार करते हुए तुम्हें ही प्राप्त करने के लिये इधर आ रहे हैं। ये शत्रुओं के लिये असह्य हैं। तुम इन भरतवंशी वीर का सामना करने करने के लिये आगे बढ़ो। कर्ण! तुम दया और प्रमाद छोड़कर भृगुवंशी परशुराम जी के दिये हुए अस्त्र का स्मरण करो, उनके उपदेश के अनुसार लक्ष्य की ओर दृष्टि रखना, धनुष को अपनी मुट्ठी से दृढ़तापूर्वक पकडे़ रहना और बाणों का संधान करना आदि बातें याद करके मन मैं विजय पाने की इच्छा लिये महारथी अर्जुन का सामना करने के लिये आगे बढ़ो। अर्जुन थोड़ी ही देर मैं बहुत-से शत्रुओं का संहार कर डालते हैं, इसलिये उनके भय से दुर्योधन की यह सेना चारों ओर से छिन्न-भिन्न होकर भागी जा रही है। इस समय अर्जुन का शरीर जैसा उत्तेजित हो रहा है उससे मैं समझता हूँ कि वे सारी सेनाओं को छोड़कर तुम्हारे पास पहुँचने के लिये जल्दी कर रहे हैं। भीमसेन के पीड़ित होने से अर्जुन क्रोध से तमतमा उठे हैं, इसलिये आज तुम्हारे सिवा और किसी से युद्ध करने के लिये वे नहीं रुक सकेंगे।[1]

तुमने धर्मराज युधिष्ठिर को अत्यन्त घायल करके रथहीन कर दिया है। शिखण्डी, द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न, सात्यकि, द्रौपदी के पुत्रों, उत्तमौजा, युधामन्यु तथा दोनों भाई नकुल-सहदेव को भी तुम्हारे हाथों बहुत चोट पहुँची है। यह सब देखकर शत्रुओं को संताप देने वाले कुन्तीकुमार अर्जुन अत्यन्त कुपित-हो उठे हैं। उनके नेत्र रोष से रक्तवर्ण हो गये हैं, अतः वे समस्त राजाओं का संहार करने की इच्छा से एकमात्र रथ के साथ सहसा तुम्हारे ऊपर चढे़ आ रहे हैं। इसमें संदेह नहीं कि वे सारी सेनाओं को छोड़कर बड़ी उतावली के साथ हम लोगों पर टूट पड़े हैं; अतः कर्ण! अब तुम भी इनका सामना करने के लिये आगे बढ़ो, क्योंकि तुम्हारे सिवा दूसरा कोई धनुर्धर ऐसा करने मैं समर्थ नहीं है। इस संसार में मैं तुम्हारे सिवा दूसरे किसी धनुर्धर को ऐसा नहीं देखता, जो समुद्र मैं उठे हुए ज्वार के समान समरांगण में कुपित हुए अर्जुन को रोक सके। मैं देखता हूँ कि अलग-अलग से या पीछे की ओर से उनकी रक्षा का कोई प्रबन्ध नहीं किया गया है। वे अकेले ही तुम पर चढ़ाई कर रहे हैं; अतः देखो, तुम्हें अपनी सफलता के लिये कैसा सुन्दर अवसर हाथ लगा है।

राधापुत्र! रणभूमि में तुम्हीं श्रीकृष्ण और अर्जुन को परास्त करने की शक्ति रखते हो, तुम्हारे ऊपर ही यह भार रखा गया है; इसलिये तुम अर्जुन को रोकने के लिये आगे बढ़ो। तुम भीष्म, द्रोण, अश्वत्थामा तथा कृपाचार्य के समान पराक्रमी हो, अतः इस महासमर मैं आक्रमण करते हुए सव्यसाची अर्जुन को रोको। कर्ण! जीभ लपलपाते हुए सर्प, गर्जते हुए सांड़ और वनवासी व्याघ्र के समान भयंकर अर्जुन का तुम वध करो। देखो! समरभूमि में दुर्योधन की सेना के ये महारथी नरेश अर्जुन के भय से आत्मीयजनों की भी अपेक्षा न रखकर बड़ी उतावली के साथ भागे जा रहे हैं। सूतनन्दन! इस युद्धस्थल मैं तुम्हारे सिवा ऐसा कोई भी वीर पुरुष नहीं है, जो उन भागते हुए नरेशों का भय दूर कर सके। पुरुषसिंह! इस समुद्र- जैसे युद्धस्थल मैं तुम द्वीप के समान हो। ये समस्त कौरव तुमसे शरण पाने की आशा रखकर, तुम्हारे ही आश्रम मैं आकर खड़े हुए हैं। राधानन्दन! तुमने जिस धैर्य से पहले अत्यन्त दुर्जय विदेह, अम्बष्ठ, काम्बोज, नग्नजित तथा गान्धारगणों को युद्ध में पराजित किया था, उसी को पुनः अपनाओ और पाण्डुपुत्र अर्जुन का सामना करने के लिये आगे बढ़ो। महाबाहो! तुम महान पुरुषार्थ में स्थित होकर अर्जुन से सतत प्रसन्न रहने वाले वृष्णिवंशी वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण का भी सामना करो। जैसे पूर्वकाल में तुमने अकेले ही सम्पूर्ण दिशाओं पर विजय पायी थी, इन्द्र की दी हुई शक्ति से भीमपुत्र घटोत्कच का वध किया था, उसी तरह इस सारे बल-पराक्रम आश्रय ले कुन्तीपुत्र अर्जुन को मार डालो।

कर्ण ने कहा- शल्य! इस समय तुम अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित हो और मुझसे सहमत जान पड़ते हो। महाबाहो! तुम अर्जुन से डरो मत। आज मेरी इन दोनों भुजाओं का बल देखो और मेरी शिक्षा की शक्ति पर भी दृष्टिपात करो। आज में अकेला ही पाण्डवों की विशाल सेना का संहार कर डालूंगा। पुरुषसिंह! में तुमसे सच्ची बात कहता हूँ कि युद्धस्थल में उन दोनों वीर श्रीकृष्ण और अर्जुन का वध किये बिना में किसी तरह पीछे नहीं हटूँगा।[2] अथवा उन्हीं दोनों के हाथों मारा जाकर सदा के लिये सो जाऊंगा; क्योंकि रण में विजय अनिश्चित होती है। आज में उन दोनों को मारकर अथवा मारा जाकर सर्वथा कृतार्थ हो जाऊँगा।

शल्य ने कहा- कर्ण! रथियों में प्रमुख वीर अर्जुन अकेले भी हों तो महारथी योद्धा उन्हें युद्ध में अजेय बताते हैं, फिर इस समय तो वे श्रीकृष्ण से सुरक्षित हैं; ऐसी दशा में कौन इन्हें जीतने का साहस कर सकता है?

कर्ण बोला- शल्य! मैंने जहाँ तक सुना है, वहाँ तक संसार में ऐसा श्रेष्ठ महारथी वीर कभी नहीं उत्पन्न हुआ, ऐसे कुन्तीकुमार अर्जुन के साथ में महासमर में युद्ध करूंगा, मेरा पुरुषार्थ देखो। ये रथियों में प्रधान वीर कौरवराजकुमार अर्जुन अपने श्वेत अश्वों द्वारा रणभूमि में विचर रहे हैं। ये आज मुझे मृत्यु के संकट में डाल देंगे और मुझ कर्ण का अन्त होने पर कौरव दल के अन्य समस्त योद्धाओं का विनाश भी निश्चित ही है। राजकुमार अर्जुन के दोनों विशाल हाथों में कभी पसीना नहीं होता, उसमें धनुष की प्रत्यंचा के चिह्न बन गये हैं और वे दोनों हाथ कांपते नहीं हैं। उनके अस्त्र-शस्त्र भी सृदढ़ हैं। वे विद्वान एवं शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाने वाले हैं। पाण्डुपुत्र अर्जुन के समान दूसरा कोई योद्धा नहीं हैं। वे कंकपत्रयुक्त अनेक बाणों को इस प्रकार हाथ में लेते हैं, मानो एक ही बाण हो और उन सबको शीघ्रतापूर्वक धनुष पर रखकर चला देते हैं। वे अमोघ बाण एक कोस दूर जाकर गिरते हैं; अतः इस पृथ्वी पर उनके समान दूसरा योद्धा कौन है? उन वेगशाली और अतिरथी वीर अर्जुन ने अपने दूसरे साथी श्रीकृष्ण के साथ जाकर खाण्डववन में अग्निदेव को तृप्त किया था, जहाँ महात्मा श्रीकृष्ण को तो चक्र मिला और पाण्डुपुत्र सव्यसाची अर्जुन ने गाण्डीव धनुष प्राप्त किया। उदार अन्तःकरण वाले महाबाहु अर्जुन ने अग्निदेव से श्वेत घोड़ों से जुता हुआ गम्भीर घोष करने वाला एवं भयंकर रथ, दो दिव्य विशाल और अक्षय तरकस तथा अलौकिक अस्त्र-शस्त्र प्राप्त किये।

उन्‍होंने इन्द्रलोक में जाकर असंख्य कालकेष नामक सम्पूर्ण दैत्यों का संहार किया और वहाँ देवदत्त नामक शंख प्राप्त किया; अतः इस पृथ्वी पर उनसे अधिक कौन है? जिस महानुभाव ने अस्त्रों द्वारा उत्तम युद्ध करके साक्षात महादेव जी को संतुष्ट किया और उनसे त्रिलोकी का संहार करने में समर्थ अत्यन्त भयंकर पाशुपत नामक महान अस्त्र प्राप्त कर लिया। भिन्न-भिन्न लोकपालों ने आकर उन्हें ऐसे महान अस्त्र प्रदान किये, जो युद्धस्थल में अपना सानी नहीं रखते। उन पुरुषसिंह ने रणभूमि में उन्हीं अस्त्रों द्वारा संगठित होकर आये हुए कालकेय नामक असुरों का शीघ्र ही संहार कर डाला। इसी प्रकार विराटनगर में एकत्र हुए हम सब लोगों को एकमात्र रथ के द्वारा युद्ध में जीतकर अर्जुन ने उस विराट का गोधन लौटा जिया और महारथियों के शरीरों से वस्त्र भी उतार लिये। शल्य! इस प्रकार जो पराक्रम सम्बन्धी गुणों से सम्पन्न, श्रीकृष्ण की सहायता से युक्त और क्षत्रियों में सर्वश्रेष्ठ हैं, उन्हें युद्ध के लिये ललकारना सम्पूर्ण जगत के लिये बहुत बड़े साहस का काम है; इस बात को में स्वयं ही जानता हूँ। अर्जुन उन अनन्त पराक्रमी, उपमारहित, नारायणावतार, हाथों में शंख, चक्र और खड्ग धारण करने वाले, विष्णुस्वरूप, विजयशील, वसुदेवपुत्र महात्मा भगवान श्रीकृष्ण से सुरक्षित हैं; जिनके गुणों का वर्णन सम्‍पूर्ण जगत के लोग मिलकर दस हजार वर्षों में भी नहीं कर सकते।[3]

श्रीकृष्ण और अर्जुन को एक रथ पर मिले हुए देखकर मुझे बड़ा भय लगता हैं, मेरा हृदय घबरा उठता है। अर्जुन युद्ध में समस्त धनुर्धरों से बढ़कर हैं और नारायणस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण भी चक्र-युद्ध में अपना सानी नहीं रखते। पाण्डुपुत्र अर्जुन और वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण दोनों ऐसे ही पराक्रमी हैं। हिमालय भले ही अपने स्थान से हट जाये; किंतु दोनों कृष्ण अपनी मर्यादा से विचलित नहीं हो सकते। वे दोनों ही शौर्यसम्पन्न, बलवान, सुदढ़ आयुघों वाले और महारथी हैं, उसके शरीर सुगठित एवं शक्तिशाली हैं। शल्य! ऐसे अर्जुन और श्रीकृष्ण का सामना करने के लिये मेंरे सिवा दूसरा कौन जा सकता है? मद्रराज! अर्जुन के साथ युद्ध के विषय में जो आज मेरा मनोरथ है, वह अविलम्ब और शीघ्र सफल होगा। यह युद्ध अत्यन्त अदभुत, विचित्र और अनुपम होगा। में युद्धस्थल में इन दोनों को मार गिराऊँगा अथवा वह दोनों ही कृष्ण मुझे मार डालेंगे। राजन! शत्रुहन्ता कर्ण शल्य से ऐसा कहकर रणभूमि में मेघ के समान उच्चस्वर से गर्जना करने लगा। उस समय आपके पुत्र दुर्योधन ने निकट आकर उसका अभिनन्दन किया। उससे मिलकर कर्ण ने कुरुकुल के उस प्रमुख वीर से, महाबाहु कृपाचार्य और कृतवर्मा से, भाईयों सहित गान्धारराज शकुनि से, गुरुपुत्र अश्वत्थामा से, अपने छोटे भाई से तथा पैदल और गजारोही सैनिकों से इस प्रकार कहा- वीरों! श्रीकृष्ण और अर्जुन पर धावा करो, उन्हें आगे बढ़ने से रोको तथा शीघ्र ही सब प्रकार से प्रयत्न करके उन्हें परिश्रम से थका दो। भूमिपालों! ऐसा करो, जिससे तुम्हारे द्वारा अत्यन्त क्षत-विक्षत हुए उन दोनों कृष्णों को आज में सुखपूर्वक मार सकूं।[4]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 79 श्लोक 18-34
  2. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 79 श्लोक 35-51
  3. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 79 श्लोक 52-65
  4. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 79 श्लोक 66-79

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