कर्ण की शल्य से और अर्जुन की श्रीकृष्ण से वार्ता

महाभारत कर्ण पर्व के अंतर्गत 87वें अध्याय में कर्ण की शल्य से और अर्जुन की श्रीकृष्ण से वार्तालाप का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

कर्ण और अर्जुन के रथों की अद्भुत शोभा

संजय कहते हैं- राजन! पुरुषसिंह कर्ण और अर्जुन का अनुपम द्वैरथ युद्ध देखने की इच्छा से देवता, दानव और गन्धर्व सभी वहाँ खडे़ हो गये। राजन! कर्ण और अर्जुन हर्ष में भरकर जिन रथों पर बैठे हुए थे, उन महामनस्वी वीरों के वे दोनो रथ श्वेत घोड़ों से युक्त, दिव्य और आवश्यक सामग्रियों से सम्पन्न थे। भरतनन्दन! वहाँ एकत्र हुए सम्पूर्ण जगत के वीर पृथक-पृथक शंखध्वनि करने लगे। वीर श्रीकृष्ण और अर्जुन ने तथा शल्य और कर्ण ने भी अपना अपना शंख बजाया। इन्द्र और शम्बरासुर के समान एक दूसरे से डाह रखने वाले उन दोनों वीरों में उस समय घोर युद्ध आरम्भ हुआ, जो कायरों के हृदय में भय उत्पन्न करने वाला था। उन दोनों के रथों पर निर्मल ध्वजाएँ शोभा पा रही थीं, मानों संसार के प्रलयकाल में आकाश में राहु और केतु दोनों ग्रह उदित हुए हों। कर्ण के ध्वज की पताका में हाथी की साँकल का चिह्न था, वह साँकल रत्नसारमयी, सुदृढ़ और विषधर सर्प के समान आकारवाली थी। वह आकाश में इन्द्रधनुष के समान शोभा पाती थी। कुन्तीकुमार अर्जुन के रथ पर मुँह बाये हुए यमराज के समान एक श्रेष्ठ वानर बैठा हुआ था, जो अपनी दाढ़ों से सबको डराया करता था। वह अपनी प्रभा से सूर्य के समान जान पड़ता था। उसकी ओर देखना कठिन था।

गाण्डीवधारी अर्जुन का ध्वज मानो युद्ध का इच्छुक होकर कर्ण के ध्वज पर आक्रमण करने लगा। अर्जुन की ध्वजा का महान वेगशाली वानर उस समय अपने स्थान से उछला और कर्ण की ध्वजा की साँकल पर चोट करने लगा, जैसे गरुड़ अपने पंजो और चोंच से सर्प पर प्रहार कर रहे हों। कर्ण के ध्वज पर जो हाथी की साँकल थी, वह कालपाश के समान जान पड़ती थी। वह लोह निर्मित हाथी की साँकल छोटी-छोटी घण्टियों से विभूषित थी। उसने अत्यन्त कुपित होकर उस वानर पर धावा किया। उन दोनों में घोरतर द्वैरथ युद्धरूपी जूए का अवसर उपस्थित था, इसीलिये उन दोनों की ध्वजाओं ने पहले स्वयं ही युद्ध आरम्भ कर दिया। एक के घोडे़ दूसरे के घोड़ों को देखकर परस्पर लाग-डाँट रखते हुए हिनहिना ने लगे। इसी समय कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण ने शल्य की ओर त्यौरी चढ़ाकर देखा, मानो वे उसे नेत्ररूपी बाणों से बींध रहे हों। इसी प्रकार शल्य ने भी कमलनयन श्रीकृष्ण की ओर दृष्टिपात किया; परंतु वहाँ विजय श्रीकृष्ण की हुई। उन्होंने अपने नेत्ररूपी बाणों से शल्य को पराजित कर दिया।[1] इसी तरह कुन्तीनन्दन धनंजय ने भी अपने दृष्टि द्वारा कर्ण को परास्त कर दिया।

कर्ण और शल्य का संवाद

तदनन्तर कर्ण ने शल्य से मुसकराते हुए कहा- शल्य! सच बताओ, यदि कदाचित आज रणभूमि में कुन्तीपुत्र अर्जुन मुझे यहाँ मार डालें तो तुम इस संग्राम में का क्या करोगे? शल्य ने कहा- कर्ण! यदि श्वेतवाहन अर्जुन आज युद्ध में तुझे मार डालें तो में एकमात्र रथ के द्वारा श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों का वध कर डालूँगा।[2]

अर्जुन और श्रीकृष्ण की वार्तालाप

संजय कहते हैं- रजान! इसी प्रकार अर्जुन ने भी श्रीकृष्ण से पूछा तब श्रीकृष्ण ने हँसकर अर्जुन से यह सत्य बात कहीं- धनंजय! सूर्य अपने स्थान से गिर जाय, समुद्र सूख जाय और अग्नि सदा के लिये शीतल हो जाय तो भी कर्ण तुम्हें मार नहीं सकता। यदि किसी तरह ऐसा हो जाय तो संसार उलट जायगा। मैं अपनी दोनों भुजाओं से ही युद्धभुमि में कर्ण तथा शल्य को मसल डालूँगा।

भगवान श्रीकृष्ण का यह वचन सुनकर कपिध्वज अर्जुन हॅस पड़े और अनायास ही महान कर्म करने वाले भगवान श्रीकृष्ण इस प्रकार बोले- जनार्दन! ये कर्ण और शल्य तो मेंरे ही लिये पर्याप्त नहीं हैं। श्रीकृष्ण! आज रणभूमि में आप देखियेगा, मैं कवच, छत्र, शक्ति, धनुष, बाण, ध्वजा, पताका, रथ, घोडे़ तथा राजा शल्य के सहित कर्ण को अपने बाणों से टुकडे़-टुकडे़ कर डालूँगा। जैसे जंगल में दन्तार हाथी किसी पेड़ को टूक-टूक कर देता है, उसी प्रकार आज ही मैं रथ, घोडे़, शक्ति, कवच तथा अस्त्र-शस्त्र सहित कर्ण को चूर-चूर कर डालूँगा। माधव! आज राधापुत्र कर्ण की स्त्रियों के विधवा होने का अवसर उपस्थित है। निश्चय ही, उन्होंने स्वप्न में अनिष्ट वस्तुओं के दर्शन किये हैं। आप निश्चय ही, आज कर्ण की स्त्रियों को विधवा हुई देखेंगे। इस अदूरर्दशी मूर्ख ने सभा में द्रौपदी को आयी देख बारंबार उसकी तथा हम लोगों की हँसी उड़ायी और हम सब लोगों पर आक्षेप किया। ऐसा करते हुए इस कर्ण ने पहले जो कुकृत्य किया है, उसे याद करके मेरा क्रोध शांत नहीं होता है। गोविन्द! जैसे मतवाला हाथी फले-फूले वृक्ष को तोड़ डालता है, उसी प्रकार आज में इस कर्ण को मथ डालूँगा। आप यह सब कुछ अपनी आँखों देखेंगे। मधुसूदन! आज कर्ण के मारे जाने पर आपको मधुर बाते सुनने को मिलेंगी। हम लोग कहेंगे- वृष्णिनन्दन! बड़े सौभाग्य की बात है कि आज आपकी विजय हुई। जनार्दन! आज आप अत्यन्त प्रसन्न होकर अभिमन्यु की माता सुभद्रा को और अपनी बुआ कुन्ती देवी को सान्त्त्वना देंगे। माधव! आज आप मुख पर आँसुओं की धारा बहाने वाली द्रुपदकुमारी कृष्णा तथा पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर को अमृत के समान मधुर वचनों द्वारार सान्त्वना प्रदान करेंगे।[2]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 87 श्लोक 82-100
  2. 2.0 2.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 87 श्लोक 101-117

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