कर्ण का सारथि बनने के विषय में शल्य का घोर विरोध करना

महाभारत कर्ण पर्व के अंतर्गत 32वें अध्याय में कर्ण का सारथि बनने के विषय में शल्य का दुर्योधन से घोर विरोध करने का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

शल्य का सारथि न बनने के लिये दुर्योधन से विरोध करना

संजय कहते हैं- राजन! जब दुर्योधन की बात यह सुनकर शल्य को बड़ा क्रोध हुआ। वे अपनी भौंहों को तीन जगह से टेढ़ी करके बारंबार हाथ हिलाने लगे। महाबाहु शल्य को अपने कुल, ऐश्वर्य, शास्त्र ज्ञान और बल का बड़ा अभिमान था। वे क्रोध से लाल हुए विशाल नेत्रों को घुमाकर इस प्रकार बोले। शल्य ने कहा- गान्धारीपुत्र! मुत मेरा अपमान कर रहे हो, निश्चय ही तुम्हारे मन में मेरे प्रति संदेह है, तभी तुम निर्भय होकर कह रहे हो कि आप 'सारथि का कार्य कीजिये'। तुम कर्ण को मुझसे श्रेष्ठ मानकर उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हो; परंतु युद्धस्थल में राधापुत्र कर्ण को मैं अपने समान नहीं गिनता हूँ। राजन! तुम शत्रुसेना के अधिक-से-अधिक भाग को मेरे हिस्से में दे दो, मैं उसे जीतकर जैसे आया हूँ, वैसे लौट जाऊँगा। अथवा कुरुनन्दन! आज मैं अकेला ही युद्ध करूँगा। तुम संग्राम में शत्रुओं को दग्ध करते हुए मेरे पराक्रम को देख लेना।

शल्य का दुर्योधन से अपने बल का वर्णन करना

कौरव्य! मेरे जैसा पुरुष अपने मन में कुछ कामनाएँ रखकर युद्ध में प्रवृत्त नहीं होता है। अतः तुम मुझ पर संदेह न करो। तुम्हें युद्ध में किसी प्रकार मेरा अपमान नहीं करना चाहिये। तुम मेरी मोटी और वज्र के समान गँठीली इन सुदृढ़ भुजाओं का तो देखो। मेरे इस विचित्र धनुष और विषधर सर्प के समान इन विषैले बाणों की ओर तो दृष्टिपात करो। गान्धारीकुमार! वायु के समान वेगशाली उत्तम घोड़ों से जुते हुए मेरे इस सजे-सजाये रथ और सुवर्णपत्र से मढ़ी हुई गदा पर भी दृष्टि डालो। राजन! मैं सारी पृथ्वी को विदीर्ण कर सकता हूँ, पर्वतों को तोड़-फोड़कर बिखेर सकता हूँ और अपने तेज से समुद्रों को भी सूखा सकता हूँ।[1]

नरेश्वर! इस प्रकार शत्रुओं का दमन करने में पूर्णतया समर्थ होने पर भी तुम मुझे इस नीच सूतपुत्र कर्ण के सारथि के काम पर कैसे नियुक्त कर सकते हो? राजेन्द्र! तुम्हें मुझे नीच कर्म में नहीं लगाना चाहिये। मैं श्रेष्ठ होकर अत्यन्त नीच पापी पुरुष की दासता नहीं कर सकता। जो पुरुष प्रेमवश अपने पास आकर अपनी आज्ञा के अधीन रहने वाले किसी श्रेष्ठतम पूरुष को नीचतम मनुष्य के अधीन कर देता है, उसे उच्च को नीच और नीच को उच्च करने का महान पाप लगता है। ब्रह्मा जी ने ब्राह्मणों को अपने मुख से, क्षत्रियों को भुजाओं से, वैश्यों को जाँघों से और शूद्रों को पैरों से उत्पन्न किया है, ऐसा श्रुति का मत है। भारत! इन्हीं से अनुलोम और विलोम क्रम से विभिन्न वर्णों के पारस्परिक संयोग से अन्य जातियाँ उत्पन्न हुई हैं। इनमें क्षत्रिय-जाति के लोग सबकी रक्षा करने वाले, सबसे कर लेने वाले और दान देने वाले बताये गये हैं। ब्राह्मण यज्ञ कराने, वेद पढ़ाने और विशुद्ध दान ग्रहण करने के द्वारा जीवन-निर्वाह करते हुए सम्पूर्ण जगत पर अनुग्रह करने के तिये इस भूतल पर ब्रह्मा जी के द्वारा स्थापित किये गये हैं। कृषि, पशुपालन और धर्मानुसार दान देना वैश्यों का कर्म है तथा शूद्र लोग ब्राह्मण और ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों की सेवा के काम में नियुक्त किये गये हैं। सूत जाति के लोग ब्राह्मणों और क्षत्रियों के सेवक नियुक्त किये गये हैं, क्षत्रिय सूतों का सेवक हो, यह कोई किसी प्रकार कहीं नहीं सुन सकता। मैं राजर्षियों के कुल में उत्पन्न हुआ मूद्धार्भिषिक्त नरेश हूँ, विश्वविख्यात महारथी हूँ, सूतों द्वारा सेव्य और वन्दीजनों क्षरा स्तुति योग्य हूँ ऐसा प्रतिष्ठित एवं शत्रुसेना का संहार करने में समर्थ होकर मैं यहाँ युद्धस्थल में एक सूतपुत्र के सारथि का कार्य कदापि नहीं कर सकता। गान्धारीननदन! आज इस अपमान को पाकर अब मैं किसी प्रकार युद्ध नहीं करूँगा। अतः तुमसे आज्ञा चाहता हूँ। आज ही अपने घर को लौट जाऊँगा।[2]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 32 श्लोक 21-39
  2. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 32 श्लोक 40-59

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