शिव द्वारा त्रिपुरों का वध करना

महाभारत कर्ण पर्व के अंतर्गत 34वें अध्याय में भगवान शंकर के द्वारा त्रिपुरों के विनाश तथा ब्रह्मा के अद्भुत सारथिकर्म का वर्णन किया गया है, जो इस प्रकार है[1]-

भगवान शिव द्वारा त्रिपुरों का विनाश एवं देवताओं का हर्ष

दुर्योधन बोला- राजन! तदनन्तर जिसकी कहीं उपमा नहीं थी, उस विशाल रथ के द्वारा देवेश्वर महादेव जी समस्त देवताओं से घिरे हुए वहाँ से चल दिये। उस समय उनके अपने पार्षद भी महायशस्वी महादेव जी की पूजा कर रहे थे। शिव के दुर्धर्ष पार्षद नृत्य करते और परस्पर एक दूसरे को डांटते हुए चारों और दौड़ लगाते थे। अन्य कितने ही पार्षद (भूत-प्रेतादि) मांसभक्षी थे। महान भाग्यशाली और उत्तम गुण सम्पन्न तपस्वी ऋषियों, देवताओं तथा अन्य लोगों ने भी सब प्रकार से महादेव जी की विजय के लिए शुभाशंसा की। नरश्रेष्ठ! सम्पूर्ण लोकों को अभय देने वाले देवेश्वर महादेव जी के इस प्रकार प्रस्थान करने पर सारा जगत संतुष्ट हो गया। देवता भी बड़े प्रसन्न हुए। राजन! ऋषिगण नाना प्रकार के स्तोत्रों का पाठ करके देवेश्वर महादेव की स्तुति करते हुए बारंबार उनका तेज बढ़ा रहे थे। उनके प्रस्थान के समय सहस्रों, लाखों और अरबों गन्धर्व नाना प्रकार के बाजे बजा रहे थे। रथ पर आरूढ़ हो वरदायक भगवान शंकर जब असुरों की ओर चले, तब वे विश्वनाथ ब्रह्मा जी को साधुवाद देते हुए मुसकराकर बोले- ‘देव! जिस ओर दैत्य हैं, उधर ही चलिये और सावधान होकर घोड़ों का हाँकिये। आज रणभूमि में जब मैं शत्रुसेना का संहार करने लगूँ, उस समय आप मेरी इन दोनों भुजाओं का बल देखियेगा'[1]

राजन! तब ब्रह्मा जी ने मन और पवन के समान वेगशाली घोड़ों को उसी ओर बढ़ाया, जिस ओर दैत्यों और दानवों द्वारा सुरक्षित वे तीनों पुर थे। वे लोकपूजित अश्व ऐसे तीव्र वेग से चल रहे थे, मानो सारे आकाश को पी जायँगे। उस समय भगवान शिव उन अश्वों के द्वारा देवताओं की विजय के लिये बड़ी शीघ्रता के साथ जा रहे थे। रथ पर आरूढ़ हो जब महादेव जी त्रिपुर की ओर प्रस्थित हुए बड़े जोर से सिंहनाद किया। उस वृषभ का वह अत्यन्त भयंकर सिंहनाद सुनकर बहुत से देवशत्रु तारक नाम वाले दैत्यगण वहीं विनष्ट हो गये। दूसरे जो दैत्य वहाँ खड़े थे, ये युद्ध के लिये महादेव जी के सामने आये। महाराज! तब त्रिशूलधारी महादेव जी क्रोध से आतुर हो उठे। फिर तो समस्त प्राणी भयभीत हो उठे। सारी त्रिलोकी और भूमि कांपने लगी। जब वे वहाँ धनुष पर बाण का संधान करने लगे, तब उसमें चन्द्रमा, अग्नि, विष्णु, ब्रह्मा और रुद्र के क्षोभ से बड़े भयंकर निमित्त प्रकट हुए। धनुष के क्षोभ से वह रथ अत्यन्त शिथिल होने लगा। तब भगवान नारायण ने उस बाण के एक भाग से बाहर निकलकर वृषभ का रूप धारण करके भगवान शिव के विशाल रथ को ऊपर उठाया। जब रथ शिथिल होने लगा और शत्रु गर्जना करने लगे, तब महाबली भगवान शिव ने बड़े वेग से गर्जना की।

मानद! उस समय वे वृषभ के मस्तक और घोड़े की पीठ पर खड़े थे। नरोत्तम! भगवान रुद्र ने वृषभ तथा घोड़े की भी पीठ पर सवार हो उस नगर को देखा। तब उन्होंने वृषभ के खुरों को चीर उन्हें दो भागों में बांट दिया और घोड़े के स्तन काट डाले। राजन! आपका कल्याण हो। तभी से बैलों के दो खुर हो गये और तभी से अद्भुत कर्म करने वाले बलवान रुद्र के द्वारा पीड़ित हुए घोड़ों के स्तन नहीं उगे। तदनन्तर भगवान रुद्र ने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर उसके ऊपर पूर्वोक्त बाण को रखा और उसे पाशुपतास्त्र से संयुक्त करके तीनों पुरों के एकत्र होने का चिन्तन किया। महाराज! इस प्रकार जब रुद्रदेव धनुष चढ़ाकर खड़े हो गये, उसी समय काल की प्रेरणा से वे तीनों पुर मिलकर एक हो गये। जब तीनों एक होकर त्रिपुर-भाव को प्राप्त हुए, तब महामनस्वी देवताओं को बड़ा हर्ष हुआ। उस समय समस्त देवता, महर्षि और सिद्धगण महेश्वर की स्तुति करते हुए उनकी जय-जयकार करने लगे। तब असुरों का संहार करते हुए अवर्णनीय भयंकर रूप वाले असह्य तेजस्वी महादेव जी के सामने वह तीनों पुरों का समुदाय सहसा प्रकट हो गया। फिर तो सम्पूर्ण जगत के स्वामी भगवान रुद्र ने अपने उस दिव्य धनुष को खींचकर उस पर रखे हुए त्रिलोकी के सारभूत को छोड़ दिया।

महाभाग! उस समय उस श्रेष्ठ बाण के छूटते ही भूतल पर गिरते हुए उन तीनों पुरों का महान आर्तनाद प्रकट हुआ। भगवान ने उन असुरों को भस्म करके पश्चिम समुद्र में डाल दिया। इस प्रकार तीनों लोकों का हित चाहने वाले महेश्वर ने कुपित होकर उन तीनों पुरों तथा उनमें निवास काने वाले दानवों को दग्ध कर दिया। उनके अपने क्रोध से जो अग्नि प्रकट हुई थी, उसे भगवान त्रिलोचन ने 'हा-हा' कहकर रोक दिया और उससे कहा- ‘तू सम्पूर्ण जगत् को भस्म न कर।'[2]तब समस्त देवता, महर्षि तथा तीनों लोकों के प्राणी स्वस्थ हो गये। सबने श्रेष्ठ वचनों द्वारा अप्रतिम शक्तिशाली महादेव जी का स्तवन किया। फिर भगवान की आज्ञा लेकर अपने प्रयत्न से पूर्ण काम हुए प्रजापति आदि सम्पूर्ण देवता जैसे आये थे, वैसे चले गये। इस प्रकार देवताओं तथा असुरों के भी अध्यक्ष जगत स्रष्टा भगवान महेश्वर देव ने तीनों लोकों का कल्याण किया था।[3]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 34 श्लोक 75-94
  2. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 34 श्लोक 95-116
  3. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 34 श्लोक 117-138

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