दुर्योधन द्वारा शल्य से त्रिपुरों की उत्पत्ति का वर्णन करना

महाभारत कर्ण पर्व के अंतर्गत 33वें अध्याय में दुर्योधन ने शल्य से त्रिपुरों की उत्पत्ति का वर्णन का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

दुर्योधन द्वारा त्रिपुरों की उत्पत्ति का वर्णन

दुर्योधन बोला- महाराज! मैं पुनः आपसे जो कुछ कह रहा हूँ, उसे सुनिये। प्रभो! पूर्वकाल में देवासुर-संग्राम के अवसर पर जो घटना घटित हुई थी तथा जिसे महर्षि मार्कण्डेय ने मेरे पिता जी को सुनाया था, वह सब मैं पूर्णरूप से बता रहा हूँ। राजर्षि प्रवर! आप मन लगाकर इसे सुनिये, इसके विषय में आपको कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये। राजन! देवताओं और असुरों में परस्पर विजय पाने की इच्छा से सर्वप्रथम तारकामय संग्राम हुआ था। उस समय देवताओं ने दैत्यों को परास्त कर दिया था, यह हमारे सुनने में आया है। राजन! दैत्यों के परास्त हो जाने पर तारकासुर के तीन पुत्र ताराक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली उग्र तपस्या का आश्रय ले उत्तम नियमों का पालन करने लगे। शत्रुओं को संताप देने वाले नरेश! उन तीनों ने तपस्या के द्वारा अपने शरीरों को सुखा दिया। वे इन्द्रिय-संयम, तप, नियम और समाधि से संयुक्त रहने लगे।

राजन उन पर प्रसन्न होकर वरदायक भगवान ब्रह्मा उन्हें वर देने को उद्यत हुए। उस समय उन तीनों ने एक साथ होकर सम्पूर्ण लोकों के पितामह ब्रह्मा से यह वर माँगा कि 'हम सदा सम्पूर्ण भूतों से अवध्य हों'। तब लोकनाथ भगवान ब्रह्मा ने उनसे कहा- ‘असुरों! सबके लिये अमरत्व सम्भव नहीं है। तुम इस तपस्या से निवृत्त हो जाओ और दूसरा कोई वर जैसा तुम्हें रुचे माँग लो'। राजन! तब उन सबने एक साथ बारंबार विचार करके सर्वलोकेश्वर भगवान ब्रह्मा को शीश नवाकर उनसे इस प्रकार कहा- ‘पितामह! देव! हम सबको आप वर प्रदान कीजिये। हम लोग इच्छानुसार चलने वाला नगराकार सुन्दर विमान बनाकर उसमें निवास करना चाहते हैं। हमारा वह पुर सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं से सम्पन्न तथा देवताओं और दानवों के लिए अवध्य हो। देव आपके सादर प्रसन्न होने से हमारे तीनों पुर यक्ष, राक्षस, नाग तथा नाना जाति के अन्य प्राणियों द्वारा भी विनष्ट न हों। उन्हें न तो कृत्याएँ नष्ट कर सकें,न शस्त्र छिन्न-भिन्न कर सकें और न ब्रह्मवादियों के शापों द्वारा ही इनका विनाश हो।

ब्रह्मा जी ने कहा- दैत्यों! समय पूरा होने पर सबका लय होता है। जो आज जीवित है, उसकी भी एक दिन मृत्यु होती है। इस बात को अच्छी तरह समझ लो और इन तीनों पुरों के वध का कोई निमित्त कह सुनाओ। दैत्य बोले- भगवन! हम तीनों पुरों में ही रहकर इस पृथ्वी पर एवं इस जगत् में आपके कृपा-प्रसाद से विचरेंगे। अनघ! तदनन्तर एक हजार वर्ष पूर्ण होने पर हम लोग एक दूसरे से मिलेंगे। भगवन! ये तीनों पुर जब एकत्र होकर एकीभाव को प्राप्त हो जायँ, उस समय जो एक ही बाण से इन तीनों पुरों को नष्ट कर सके, वही देवेश्वर हमारी मृत्यु का कारण होगा। 'एवमस्तु' (ऐसा ही हो) यों कहकर भगवान ब्रह्मा अपने धाम को चले गये। वरदान पाकर वे तीनों असुर बड़े प्रसन्न हुए और परस्पर विचार करके उन्होंने दैत्य-दानव-पूजित, अजर-अमर विश्वकर्मा महान असुर मय का तीन पुरों के निर्माण के लिए वरण किया तब बुद्धिमान मयासुर ने अपनी तपस्या द्वारा तीन पुरों का निर्माण किया। उनमें से एक सोने का, दूसरा चाँदी का और तीसरा पुर लोहे का बना था।[1]

पृथ्वीपते! सोने का बना हुआ पुर स्वर्गलोक में स्थित हुआ। चाँदी का अन्तरिक्षलोक में और लोहे का भूलोक में स्थित हुआ; जो आज्ञा के अनुसार सर्वत्र विचरने वाला था। प्रत्येक नगर की लंबाई-चैड़ाई बराबर-बराबर सौ योजन की थी। सबमें बड़े-बड़े महल और अट्टालिकाएँ थीं। अनेकानेक प्राकार (परकोटे) और तोरण (फाटक) सुशोभित थे। बड़े-बड़े झारों से वह नगर भरा था। उसकी विशाल सड़कें संकीर्णता से रहित एवं विस्तृत थीं। नाना प्रकार के प्रासाद और द्वार उपपुरों की शोभा बढ़ाते थे। राजन! उन तीनों पुरों के राजा अलग-अलग थे। सुवर्णमय विचित्र पुर महामना तारकाक्ष अधिकार में था। चांदी का बना हुआ पुर कमलाक्ष के और लोहे का विद्युन्माली के अधिकार में था।

वे तीनों दैत्यराज अपने अस्त्रों के तेज से तीनों लोकों को दबाकर रहते थे और कहते थे कि ‘प्रजापति कौन है? उन दानव शिरोमणियों के पास लाखों, करोड़ों और अरबों अप्रतिम वीर दैत्य इधर-उधर से आ गये थे। वे सब-के-सब मांसभक्षी और अत्यंत अभिमानी थे। पूर्वकाल में देवताओं ने उनके साथ बहुत छल-कपट किया था। अतः वे महान ऐश्वर्य की इच्छा रखते हुए त्रिपुर-दुर्ग के आश्रय में आये थे। मयासुर इन सबको सब प्रकार की अप्राप्त वस्तुएँ प्राप्त कराता था। उसका आश्रय लेकर वे सम्पूर्ण दैत्य निर्भय होकर रहते थे। उक्त तीनों पुरों में निवास करने वाला जो भी असुर अपने मन से जिस अभीष्ट भोग का चिन्तन करता था, उसके लिये मयासुर अपनी माया से वह-वह भोग तत्काल प्रस्तुत कर देता था।[2]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 33 श्लोक 1-17
  2. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 33 श्लोक 18-36

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