कर्ण का शल्य से ब्राह्मण द्वारा प्राप्त शाप की कथा कहना

महाभारत कर्ण पर्व के अंतर्गत 42वें अध्याय में संजय ने कर्ण का शल्य से ब्राह्मण द्वारा प्राप्त शाप की कथा सुनाने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

कर्ण का ब्राह्मण से प्राप्त शाप का वर्णन करना

कर्ण कहता है- शल्य! मैं दण्डधारी सूर्यपुत्र यमराज से, पाशधारी वरुण से? गदा हाथ में लिये हुए कुबेर से, वज्रधारी इन्द्र से अथवा दूसरे किसी आततायी शत्रु से भी कभी नहीं डरता। इस बात को तुम अच्छी तरह समझ लो। इसीलिए मुझे अर्जुन और श्रीकृष्ण से भी कोई भय नहीं है। उन दोनों के साथ रणक्षेत्र में मेरा युद्ध अवश्य होगा। नरेश्वर! एक समय की बात है, मैं शस्त्रों के अभ्यास के लिये विजय नामक एक ब्राह्मण के आश्रम के आस पास विचरण कर रहा था। उस समय घोर एवं भयंकर बाण चलाते हुए मैंने अनजाने में ही असावधानी के कारण उस ब्राह्मण की होमधेनु के बछड़े को एक बाण से मार डाला। शल्य! तब उस ब्राह्मण ने एकान्त में घूमते हुए मुझसे आकर कहा- 'तुमने प्रमादवश मेरी होमधेनु के बछड़े को मार डाला है। इसलिए तुम जिस समय रणक्षेत्र में युद्ध करते-करते अत्यन्त भय को प्राप्त होओ, उसी समय तुम्हारे रथ का पहिया गड्ढे में गिर जाय। ब्राह्मण शल्य! मैं ब्राह्मण को एक हजार गौएँ और छः सौ बैल दे रहा था; परंतु उससे उसका कृपाप्रसाद न प्राप्त कर सका।[1]

हलदण्ड के समान दाँतों वाले सौ हाथी और सैंकड़ों दास-दासियों के देने पर भी उस श्रेष्ठ ब्राह्मण ने मुझ पर कृपा नहीं की। श्वेत बछड़े वाली चौदह हजार काली गौएँ मैं उसे देने के लिये ले आया तो भी उस श्रेष्ठ ब्राह्मण से अनुग्रह न पा सका। मैं सम्पूर्ण भोगों से सम्पन्न समृद्धशाली घर और जो कुछ भी धन मेरे पास था, वह सब उस ब्राह्मण को सत्कारपूर्वक देने लगा; परंतु उसने कुछ भी लेने की इच्छा नहीं की। उस समय मैं प्रयत्प पूर्वक अपने अपराध के लिए क्षमा याचना करने लगा। तब ब्राह्मण ने कहा- सूत! मैंने जो कह दिया, वह वैसा ही होकर रहेगा। वह पलट नहीं सकता। असत्य भाषण प्रजा का नाश कर देता है, अतः मैं झूठ बोलने के पाप का भागी होऊँगा; इसीलिए धर्म की रक्षा के उद्देश्य से मैं मिथ्या भाषण नहीं कर सकता। तुम (लोभ देकर) ब्राह्मण की उत्तम गति का विनाश न करो। तुमने पश्चाताप और दान द्वारा उस वत्सवध का प्रायश्चित कर लिया। जगत में कोई भी मेरे कहे हुए वचन को मिथ्या नहीं कर सकता; इसलिये मेरा शाप तुझे प्राप्त होगा ही। मद्रराज! यद्यपि तुमने मुझ पर आरोप किये हैं, तथापि सुहृद होने के नाते मैंने तुमसे ये सारी बातें कह दी हैं। मैं जानता हूँ, तम अब भी निन्दा करने से बाज न आओगे, तो भी कहता हूँ कि चुप होकर बैठो और अब से जो कुछ कहूँ, उसे सुनो।[2]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 42 श्लोक 29-43
  2. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 42 श्लोक 43-50

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