श्रीकृष्ण का अर्जुन को कर्णवध हेतु उत्तेजित करना

महाभारत कर्ण पर्व के अंतर्गत 73वें अध्याय में संजय ने श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दुर्योधन और कर्ण के अन्यायों के याद दिलाकर कर्णवध के लिए उत्तेजित करने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

श्रीकृष्ण का अर्जुन को कर्णवध के लिए उत्तेजित करना

श्रीकृष्ण बोले- निष्पाप अर्जुन! रात्रि के समय पुत्रसहित तुम्‍हारी माता कुन्ती को जला देने और तुम सब लोगों के साथ जुआ खेलने के कार्य में जो दुर्योधन की प्रवृत्ति हुई थी, उन सब षड्यन्त्रों का मूल कारण यह दुष्टात्मा कर्ण ही था। दुर्योधन को सदा से ही यह विश्‍वास बना हुआ है कि कर्ण मेरी रक्षा कर लेगा; इसीलिये वह आवेश में आकर मुझे भी कैद करने की तैयारी करने लगा था। मानद! धृतराष्ट्रपुत्र राजा दुर्योधन का यह दृढ़ विचार है कि कर्ण रणभूमि में कुन्ती के सभी पुत्रों को नि:संदेह जीत लेगा।[1] कुन्‍तीनन्‍दन! तुम्‍हारे बल को जानते हुए भी दुर्योधन ने कर्ण का भरोसा करके ही तुम्‍हारे साथ युद्ध छेड़ना पसंद किया है। कर्ण सदा ही यह कहता रहता है कि मैं युद्ध में एक साथ आये हुए समस्‍त कुन्‍तीपुत्रों तथा वसुदेवनन्‍दन महारथी श्रीकृष्‍ण को भी जीत लूँगा। भारत! अत्‍यन्‍त खोटी बुद्धि वाले दुरात्‍मा दुर्योधन का उत्‍साह बढ़ाता हुआ कर्ण राजसभा में उपुर्यक्त बातें कहकर गर्जता रहता है, इसीलिये आज तुम उसे मार डालो। दुर्योधन ने तुम लोगों के साथ जो-जो पापपूर्ण बर्ताव किया है, उन सबमें पापबुद्धि दुष्टात्‍मा कर्ण ही प्रधान कारण है। सखे! सुभद्रा का वीरपुत्र अभिमन्‍यु साँड के समान बड़े-बड़े नेत्रों से सुशोभित तथा कुरुकुल एवं वृष्णिवंश के यश को बढ़ाने वाला था। उसके कंधे साँड के कंधों के समान मांसल थे। वह द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा और कृपाचार्य आदि नरश्रेष्ठ वीरों को पीड़ा दे रहा था। हाथियों को महावतों और सवारों से, महारथियों को रथों से, घोड़ों को सवारों से तथा पैदल सैनिकों को अस्त्र-शस्त्र एवं जीवन से वंचित कर रहा था।

सेनाओं का विध्‍वंस और महारथियों को व्‍यथित करके वह मनुष्‍यों, घोड़ों और हाथियों को यमलोक भोज रहा था। बाणों द्वारा शत्रुसेना को दग्ध सी करके आते हुए सुभद्राकुमार को जो दुर्योधन के छ: क्रूर महारथियों ने मार डाला और उस अवस्‍था में मारे गये अभिमन्‍यु को जो मैंने अपनी आँखों से देखा, वह सब मेरे अंगों को दग्‍ध किये देता है। प्रभो! मैं तुमसे सत्‍य की शपथ खाकर कहता हूँ कि उसमें भी दुष्टात्‍मा कर्ण का ही द्रोह काम कर रहा था। रणभूमि में अभिमन्‍यु के सामने खड़े होने की शक्ति कर्ण में नहीं रह गयी थी। वह सुभद्राकुमार के बाणों से छिन्‍न-भिन्‍न हो खून से लथपथ एवं अचेत हो गया था। वह क्रोध से जलकर लम्‍बी साँस खींचता हुआ अभिमन्‍यु के बाणों से पीड़ित हो युद्ध से मुँह मोड़ चुका था। अब उसके मन में भाग जाने का ही उत्‍साह था। वह जीवन से निराश को चुका था। युद्धस्‍थल में प्रहारों के कारण अधिक क्‍लान्‍त हो जाने से वह व्‍याकुल होकर खड़ा रहा। तदनन्‍तर समरांगण में द्रोणाचार्य का समयोचित क्रूर वचन सुनकर कर्ण ने अभिमन्‍यु के धनुष को काट ड़ाला। उसके द्वारा धनुष कट जाने पर रणभूमि में शेष पाँच महारथी, जो शठतापूर्ण बर्ताव करने में प्रवीण थे, बाणों की वर्षा द्वारा अभिमन्‍यु को घायल करने लगे। उस वीर के इस तरह मारे जाने पर प्राय: सभी को बड़ा दु:ख हुआ। केवल दुष्टात्‍मा कर्ण और दुर्योधन ही जोर-जोर से हँसे थे।

इसके सिवा, कर्ण ने भरी सभा में पाण्‍डवों और कौरवों के सामने एक क्रूर मनुष्य की भाँति द्रौपदी के प्रति इस तरह कठोर वचन कहे थे। 'कृष्‍णे! पाण्‍डव तो नष्ट होकर सदा के लिये नरक में पड़ गये। पृथुश्रोणा! अब तू दूसरा पति वरण कर ले। मृदुभाषिणी! आज से तू राजा धृतराष्ट्र की दासी हुई; अत: राजमहल में प्रवेश कर। टेढ़ी बरौनियों वाली कृष्‍णे! पाण्‍डव अब तेरे पति नहीं रहे। वे तुझ पर किसी तरह कोई अधिकार नहीं रखते। सुन्‍दरी पांचाल राजकुमारी! अब तू दासों की भार्या और स्‍वयं भी दासी है। आज एकमात्र राजा दुर्योधन समस्‍त भूमण्‍डल के स्‍वामी मान लिये गये हैं।[2] अन्‍य सब नरेश इन्‍हीं के योग-क्षेम में लगे हुए हैं। भद्रे! देख, इस समय पाण्‍डव दुर्योधन के तेज से एक साथ ही नष्टप्राय होकर एक दूसरे का मुँह देख रहे हैं। निश्चय ही वे थोथे तिलों के समान नपुंसक हैं और नरक में डूब गये है। आज से दासों के समान कौरव नरेश की सेवा में उपस्थित होंगे'। भारत! उस समय अधर्म का ही ज्ञान रखने वाले परम दुर्बुद्धि पापी कर्ण ने तुम्‍हारे सुनते हुए ऐसे-ऐसे पापपूर्ण वचन कहे थे। आज तुम्‍हारे छोड़े हुए एवं शिला पर स्‍वच्‍छ किये हुए सुवर्ण निर्मित प्राणान्‍तकारी बाण पापी कर्ण के उन वचनों का उत्तर देते हुए उसे सदा के लिये शान्‍त कर दें। दुष्टात्‍मा कर्ण ने तुम्‍हारे प्रति और भी जो-जो पापपूर्ण बर्ताव किये हैं, उन सबको और इसके जीवन को भी आज तुम्‍हारे बाण नष्ट कर दें।

आज दुष्टात्‍मा कर्ण अपने अंगों पर गाण्डीव धनुष से छूटे हुए भयंकर बाणों की चोट सहता हुआ द्रोणाचार्य और भीष्‍म के वचनों को याद करे। बिजली की सी प्रभा और सोने के पंख धारण करने वाले तुम्‍हारे चलाये हुए शत्रुनाशक नाराच कवच छेदकर कर्ण का रक्त पान करेंगे। आज तुम्‍हारे हाथों से छूटे हुए वेगशाली, भयंकर एवं विशाल बाण कर्ण का मर्मस्‍थल विदीर्ण करके उसे यमलोक भेज दें। आज तुम्‍हारे बाणों से पीड़ित हुए भूमिपाल दीन और विषादयुक्त होकर हाहाकार मचाते हुए कर्ण को रथ से नीचे गिरता देखें। आज कर्ण रक्त में डूबकर पृथ्‍वी पर पड़ा सो रहा हो और उसके आयुध इधर-उधर फेंके पड़े हों। इस अवस्‍था में उसके बन्‍धु-बान्‍धव दीन-दु:खी होकर उसे देखें। आज हाथी के रस्‍से के चिह्न से युक्त अधिरथपुत्र कर्ण का विशाल ध्‍वज तुम्‍हारे भल्ल से कटकर काँपता हुआ इस पृथ्‍वी पर गिर पड़े। आज राजा शल्‍य भी तुम्‍हारे सैंकड़ों बाणों से छिन्‍न-भिन्‍न उस सुवर्ण विभूषित रथ को, जिसके रथी और घोड़े मार डाले गये हों, छोड़कर भयभीत हो भाग जायें। माननीय पुरुषों को मान देने वाले पार्थ! यदि तुम सूतपुत्र कर्ण को देखते-देखते अपनी प्रतिज्ञा की पूर्ति के लिये उसके पुत्र वृषसेन को बाणों द्वारा मार डालो तो अपने प्रिय पुत्र को मारा गया देखकर वह दुरात्‍मा कर्ण द्रोणाचार्य, भीष्‍म और विदुर जी की कही हुई बातों को याद करे। तत्‍पश्चात आज तुम्‍हारे द्वारा अधिरथपुत्र कर्ण को मारा गया देख तुम्‍हारा शत्रु दुर्योधन अपने जीवन और राज्‍य दोनों से निराश हो जाए।

भरतश्रेष्ठ! कर्ण के तीखे बाणों की मार खाते हुए भी वे पांचाल वीर पाण्‍डव सैनिकों का उद्धार करने की इच्‍छा से (कर्ण की ओर ही) दौड़े जा रहे हैं। अर्जुन! तुम्‍हें ज्ञात होना चाहिये कि पांचाल योद्धा, द्रौपदी के पुत्र, धृष्टद्युम्न, शिखण्‍डी, धृष्टद्युम्न के पुत्रगण, नकुलकुमार शतानीक, नकुल-सहदेव, दुर्मुख, जनमेजय, सुधर्मा और सात्‍यकि ये सब के सब कर्ण के वश में पड़ गये हैं। शत्रुओं को संताप देने वाले अर्जुन! देखो, कर्ण के द्वारा घायल हुए तुम्‍हारे बान्धव पांचालों का वह घोर आर्तनाद रणभूमि में स्‍पष्ट सुनायी दे रहा है। पांचाल योद्धा किसी तरह भयभीत होकर युद्ध से विमुख नहीं हो सकते। वे महाधनुर्धर वीर महासमर में मृत्‍यु को कुछ नहीं गिनते हैं।[3] जो सारी पांडव सेना को अकेले ही अपने बाण समूहों द्वारा लपेट लेते थे, उन भीष्‍म जी का सामना करके भी पांचाल योद्धा कभी युद्ध से मुँह मोड़कर नहीं भागे। वे ही महारथी वीर कर्ण को सामने पाकर कैसे भाग सकते हैं? मित्रवत्‍सल! जो वीर द्रोणाचार्य प्रतिदिन अकेले ही सम्‍पूर्ण पांचालों का विनाश करते हुए पांचालों की रथ सेना में काल के समान विचरते थे, अस्त्रों की आग से प्रज्‍वलित होते थे, सम्‍पूर्ण धनुर्धरों के गुरु थे और समरांगण में शत्रु सेना को दग्‍ध किये देते थे, अपने बल और पराक्रम से दुर्घर्ष उन द्रोणाचार्य को भी संग्राम में सामने पाकर वे पांचाल अपने मित्र पांडवों के लिये सदा डटकर युद्ध करते रहे।

शत्रुदमन अर्जुन! पांचाल सैनिक युद्ध में सदा शत्रुओं को जीतने के लिये उद्यत रहते हैं? वे सूतपुत्र कर्ण से भयभीत हो कभी युद्ध से मुँह नहीं मोड़ सकते। जैसे आग अपने पास आये हुए पतंगों के प्राण ले लेती है, उसी प्रकार शूरवीर कर्ण बाणों द्वारा अपने ऊपर आक्रमण करने वाले वेगशाली पांचालों के प्राण ले रहा है। भरतश्रेष्ठ! देखो, वे पांचाल योद्धा दौड़ रहे हैं। निश्चय ही कर्ण और दूसरे दूसरे योद्धा उन्‍हें दौड़ा रहे हैं। देखो, वे कैसी बुरी अवस्‍था में पड़ गये हैं। जो अपने मित्र के लिये प्राणों का मोह छोड़कर शत्रु के सामने खडे़ होकर जूझ रहे हैं, उन सैकड़ों पांचालवीरों को कर्ण रणभूमि में नष्ट कर रहा है। भारत! कर्णरूपी अगाध महासागर में महाधनुर्धर पांचाल बिना नाव के डूब रहे हैं। तुम नौका बनकर उनका उद्धार करो। कर्ण ने मुनिश्रेष्ठ भृगुनन्‍दन परशुराम जी से जो महाघोर अस्त्र प्राप्‍त किया है, उसी का रूप इस समय प्रकट हो रहा है। वह अत्‍यन्‍त भयंकर एवं घोर भार्गवास्त्र पाण्‍डवों की विशाल सेना को आच्‍छादित करके अपने तेज से प्रज्‍वलित हो सम्‍पूर्ण सैनिकों को संतप्त कर रहा है। ये संग्राम में कर्ण के धनुष से छूटे हुए बाण भ्रमरों के समूहों की भाँति चलते और तुम्‍हारे योद्धाओं को संतप्त करते हैं। भरतनन्‍दन! जिन्‍होंने अपने मन और इन्द्रियों को वश में नहीं कर रखा है, उनके लिये कर्ण के अस्त्र को रोकना अत्‍यन्‍त कठिन है। समरांगण में इसकी चोट खाकर ये पांचाल सैनिक सम्‍पूर्ण दिशाओं में भाग रहे हैं।

पार्थ! दृढ़तापूर्वक क्रोध को धारण करने वाले ये भीमसेन सब ओर से सृंजयों द्वारा घिरकर कर्ण के साथ युद्ध करते हुए उसके पैने बाणों से पीड़ित हो रहे हैं। भारत! जैसे प्राप्त हुए रोग की चिकित्‍सा न की गयी तो वह शरीर को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार यदि कर्ण की उपेक्षा की गयी तो वह पाण्‍डवों, सृंजयों और पांचालों का भी नाश कर सकता है। युधिष्ठिर की सेना में तुम्‍हारे सिवा दूसरे किसी योद्धा को ऐसा नहीं देखता, जो राधापुत्र कर्ण का सामना करके कुशलपूर्वक घर लौट सके। नरश्रेष्ठ! पार्थ! आज तुम अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार तीखे बाणों से कर्ण का वध करके उज्‍जवल कीर्ति प्राप्त करो। योद्धाओं में श्रेष्ठ! केवल तुम्‍हीं संग्राम में कर्ण सहित सम्‍पूर्ण कौरवों को जीत सकते हो, दूसरा कोई नहीं। यह मैं तुमसे सत्‍य कहता हूँ। पुरुषोत्तम पार्थ! अत: महारथी कर्ण को मारकर यह महान कार्य सम्‍पन्‍न करने के पश्चात तुम कृतसत्‍य, सफल मनोरथ एवं सुखी हो जाओ।[4]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 73 श्लोक 47-66
  2. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 73 श्लोक 67-86
  3. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 73 श्लोक 87-106
  4. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 73 श्लोक 107-125

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से दुर्योधन की पराजय | कर्ण द्वारा पांचाल सेना सहित योद्धाओं का संहार | भीम द्वारा कौरव योद्धाओं का सेना सहित विनाश | अर्जुन द्वारा संशप्तकों का वध | अश्वत्थामा का अर्जुन से घोर युद्ध करके पराजित होना | दुर्योधन का सैनिकों को प्रोत्साहन देना और अश्वत्थामा की प्रतिज्ञा | अर्जुन का श्रीकृष्ण से युधिष्ठिर के पास चलने का आग्रह | श्रीकृष्ण का अर्जुन को युद्धभूमि का दृश्य दिखाते हुए रथ को आगे बढ़ाना | धृष्टद्युम्न और कर्ण का युद्ध | अश्वत्थामा का धृष्टद्युम्न पर आक्रमण | अर्जुन द्वारा धृष्टद्युम्न की रक्षा और अश्वत्थामा की पराजय | श्रीकृष्ण का अर्जुन से दुर्योधन के पराक्रम का वर्णन | श्रीकृष्ण का अर्जुन से कर्ण के पराक्रम का वर्णन | श्रीकृष्ण का अर्जुन को कर्णवध हेतु उत्साहित करना | श्रीकृष्ण का अर्जुन से भीम के दुष्कर पराक्रम का वर्णन | कर्ण द्वारा शिखण्डी की पराजय | धृष्टद्युम्न और दु:शासन तथा वृषसेन और नकुल का युद्ध | सहदेव द्वारा उलूक की तथा सात्यकि द्वारा शकुनि की पराजय | कृपाचार्य द्वारा युधामन्यु की एवं कृतवर्मा द्वारा उत्तमौजा की पराजय | भीम द्वारा दुर्योधन की पराजय तथा गजसेना का संहार | युधिष्ठिर पर कौरव सैनिकों का आक्रमण | कर्ण द्वारा नकुल-सहदेव सहित युधिष्ठिर की पराजय | युधिष्ठिर का अपनी छावनी में जाकर विश्राम करना | अर्जुन द्वारा अश्वत्थामा की पराजय | पांडवों द्वारा कौरव सेना में भगदड़ | कर्ण द्वारा भार्गवास्त्र से पांचालों का संहार | श्रीकृष्ण और अर्जुन का भीम को युद्ध का भार सौंपना | श्रीकृष्ण और अर्जुन का युधिष्ठिर के पास जाना | युधिष्ठिर का अर्जुन से भ्रमवश कर्ण के मारे जाने का वृत्तान्त पूछना | अर्जुन का युधिष्ठिर से कर्ण को न मार सकने का कारण बताना | अर्जुन द्वारा कर्णवध हेतु प्रतिज्ञा | युधिष्ठिर का अर्जुन के प्रति अपमानजनक क्रोधपूर्ण वचन | अर्जुन का युधिष्ठिर के वध हेतु उद्यत होना | श्रीकृष्ण का अर्जुन को बलाकव्याध और कौशिक मुनि की कथा सुनाना | श्रीकृष्ण का अर्जुन को धर्म का तत्त्व बताकर समझाना | श्रीकृष्ण का अर्जुन को प्रतिज्ञाभंग, भ्रातृवध तथा आत्मघात से बचाना | श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को सान्त्वना देकर संतुष्ट करना | अर्जुन से श्रीकृष्ण का उपदेश | अर्जुन और युधिष्ठिर का मिलन | अर्जुन द्वारा कर्णवध की प्रतिज्ञा और युधिष्ठिर का आशीर्वाद | श्रीकृष्ण 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