कर्ण द्वारा युधिष्ठिर की पराजय और तिरस्कार

महाभारत कर्ण पर्व के अंतर्गत 49वें अध्याय में कर्ण द्वारा युधिष्ठिर की पराजय और तिरस्कार का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

कर्ण और युधिष्ठिर का संग्राम

संजय कहते हैं- राजन! राजा युधिष्ठिर का पराक्रम देखकर पाण्डव-सैनिकों में सिंहनाद, आनन्द, कलरव और किलकिल शब्दर होने लगा। तब क्रूर पराक्रमी राधापुत्र कर्ण ने थोड़ी ही देर में होश में आकर राजा युधिष्ठिर को मार डालने का विचार किया। उस अमेय आत्मबल से सम्पन्न वीर ने विजय नामक अपने विशाल सुवर्ण-जटित धनुष को खींचकर पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर को पैने बाणों से ढक दिया। तत्पश्चात् क्षुरों से महात्मा युधिष्ठिर के चक्र रक्षक दो पांचाल वीर चन्द्र देव और दण्डधार को युद्धस्थल में मार डाला। धर्मराज के रथ के समीप पार्श्व भागों में वे दोनों प्रमुख पांचाल वीर चन्द्रमा के पास रहने वाले दो पुनर्वसु नामक नक्षत्रों के समान प्रकाशित हो रहे थे। युधिष्ठिर ने पुन: तीस बाणों से कर्ण को बींध डाला तथा सुषेण और सत्यसेन को भी तीन-तीन बाणों से घायल कर दिया। उन्होंने शल्य को नब्बे और सूतपुत्र कर्ण को तिहत्तर बाण मारे। साथ ही उनके रक्षकों को सीधे जाने वाले तीन-तीन बाणों से बेंध दिया। तब अधिरथपुत्र कर्ण ने अपने धनुष को हिलाते हुए हंसकर एक भल्ल द्वारा युधिष्ठिर के धनुष को काट दिया और उन्हें भी साठ बाणों से घायल करके सिंह के समान गर्जना की।

सात्यकि, आदि पांडव योद्धाओं का कर्ण पर आक्रमण करना

तदनन्तर अमर्ष में भरे हुए प्रमुख पाण्डव वीर युधिष्ठिर की रक्षा के लिये दौड़े आये और कर्ण को अपने बाणों से पीड़ित करने लगे। सात्यकि, चेकितान, युयुत्सु, पाण्डव, धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, द्रौपदी के पांचों पुत्र, प्रभद्रक गण, नकुल-सहदेव, भीमसेन और शिशुपाल पुत्र एवं करुष, मत्स्य, केकय, काशि और कोसल-देशों के योद्धा-ये सभी वीर सैनिक तुरंत ही वसुषेण (कर्ण) को घायल करने लगे। पांचाल वीर जनमेजय ने रथ, हाथी और घुड़सवारों की सेना साथ लेकर सब ओर से कर्ण पर धावा किया और उसे मार डालने की इच्छा से घेरकर बाण, वाराहकर्ण, नाराच, नालीक, पैने बाण, वत्सदन्त, विपाठ, क्षुरप्र, चटकामुख तथा नाना प्रकार के भयंकर अस्त्र-शस्त्रों द्वारा चोट पहुँचाना आरम्भ किया।

कर्ण का अद्भुत शौर्य

पाण्डव पक्ष के प्रमुख वीरों द्वारा सब ओर से आक्रान्ता होने पर कर्ण ने ब्रह्मास्त्र प्रकट करके बाणों द्वारा सम्पूर्ण दिशाओं को आच्छादित कर दिया। भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर अप्रमेय आत्मबल से सम्पन्न वैकर्तन कर्ण ने चेदिदेश के दस प्रधान वीरों को पुन: मार डाला। माननीय नरेश! कर्ण के गिरते हुए सहस्रों बाण सम्पूर्ण दिशाओं में टिड्डीदलों के समान दिखायी देते थे। उसके नाम से अंकित सुवर्णमय पंखवाले तेज बाण मनुष्यों और घोड़ों के शरीरों को विदीर्ण करके सब ओर से पृथ्वी पर गिरने लगे। समरांगण में अकेले कर्ण ने चेदिदेश के प्रधान रथियों का तथा सम्पूर्ण सृंजयों के सैकड़ों योद्धाओं का भी संहार कर डाला। कर्ण के बाणों से सारी दिशाएं ढक जाने के कारण वहाँ महान अन्धकार छा गया। उस समय शत्रु पक्ष की तथा अपने पक्ष की भी कोई वस्तु पहचानी नहीं जाती थी। शत्रुओं के लिये भयदायक उस घोर अन्धकार में महाबाहु कर्ण बहुसंख्यक राजपूतों को दग्ध करता हुआ विचरने लगा। उस समय वीर कर्ण अग्नि के समान हो रहा था। बाण भी उसके ऊंचे तक उठती हुई ज्वालाओं के समान थे, पराक्रम ही उसका ताप था और वह पाण्डव रुपी वन को दग्ध करता हुआ रणभूमि में विचर रहा था।[1]

कर्ण और युधिष्ठिर का भीषण युद्ध

महाराज! तब सम्पू‍र्ण सृंजयों और पाण्डवों के सैकड़ों हजारों महारथियों ने महाधनुर्धर कर्ण पर बाणों की वर्षा करते हुए उसे चारों ओर से घेर लिया। महाधनुर्धर महामना कर्ण ने हंसकर महान अस्त्रों का संधान किया और अपने बाणों से महाराज युधिष्ठिर का धनुष काट दिया। तत्पश्चात् पलक मारते-मारते झुकी हुई गांठवाले नब्बे बाणों का संधान करके कर्ण ने उन पैन बाणों द्वारा रणभूमि में राजा युधिष्ठिर के कवच को छिन्न-भिन्न कर डाला। उनका वह सुवर्णभूषित रत्नजटित कवच गिरते समय ऐसी शोभा पा रहा था, मानो सूर्य से सटा हुआ बिजली सहित बादल वायु का आघात पाकर नीचे गिर रहा हो। जैसे रात्रि में बिना बादल का आकाश नक्षत्र मण्डल से विचित्र शोभा धारण करता है, उसी प्रकार युधिष्ठिर के शरीर से गिरा हुआ वह कवच विचित्र रत्नों से अलंकृत होने के कारण अद्भुत शोभा पा रहा था। बाणों से कवच कट जाने पर कुन्ती पुत्र युधिष्ठिर रक्त से भीग गये। उस समय युद्धस्थल में पुरुष श्रेष्ठ युधिष्ठिर उगते हुए सूर्य के समान लाल दिखायी देते थे। उनके सारे अंगों में बाण धंसे हुए थे और कवच छिन्न-भिन्न हो गया था, तो भी वे क्षत्रिय धर्म का आश्रय लेकर वहाँ सिंह के समान दहाड़ रहे थे। उन्होंने अधिरथपुत्र कर्ण पर सम्पूर्णत: लोहे की बनी हुई शक्ति चलायी, परंतु उसने सात बाणों द्वारा उस प्रज्वलित शक्ति को आकाश में ही काट डाला। महाधनुर्धर कर्ण के सायकों से कटी हुई वह शक्ति पृथ्वी पर गिर पड़ी। तत्पश्चात् युधिष्ठिर ने कर्ण की दोनों भुजाओं, ललाट और छाती में चार तोमरों का प्रहार करके सिंहनाद किया। कर्ण के शरीर से रक्त बहने लगा। फिर तो क्रोध में भरे हुए सर्प के समान फुफकारते हुए कर्ण ने एक भल्ल से युधिष्ठिर की ध्वजा काट डाली और तीन बाणों से उन पाण्डुुपुत्र को भी घायल कर दिया। उनके दोनों तरकस काट दिये और रथ के भी तिल-तिल करके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। भारत! इसी बीच में शूरवीर पाण्डव महारथी राधापुत्र कर्ण पर बाणों की वर्षा करने लगे।[2]

सात्यकि और कर्ण का आमना-सामना

महाराज! सात्यकि ने शत्रुसूदन राधापुत्र पर पच्चीस और शिखण्डी ने नौ बाणों की वर्षा की। राजन! तब क्रोध में भरे हुए कर्ण ने समरांगण में सात्यकि को पहले लोहे के बने हुए पांच बाणों से घायल करके फिर दूसरे तीन बाणों द्वारा उन्हें बींध डाला। इसके बाद कर्ण ने सात्याकि की दाहिनी भुजा को तीन, बायीं भुजा को सोलह और सारथि को सात बाणों से क्षत-विक्षत कर दिया। तदनन्तर चार पैने बाणों से सूतपुत्र ने सात्यकि के चारों घोड़ों को भी तुरंत ही यमलोक पहुँचा दिया। फिर दूसरे भल्ल से महारथी कर्ण ने उनका धनुष काटकर उनके सारथि के शिर सहित मस्तक को शरीर से अलग कर दिया। जिसके घोड़े और सा‍रथि मारे गये थे, उसी रथ पर खड़े हुए शिनिप्रवर सात्यकि ने कर्ण के ऊपर वैदूर्यमणि से विभूषित शक्ति चलायी।

कर्ण द्वारा युधिष्ठिर को पराजित करना

भारत। धनुर्धरों में श्रेष्ठ कर्ण ने अपने ऊपर आती हुई उस शक्ति के सहसा दो टुकड़े कर डाले और उन सब महारथियों को आगे बढ़ने से रोक‍ दिया, फिर अमेय आत्मबल से सम्पन्न कर्ण ने अपनी शिक्षा और बल के प्रभाव से तीखे बाणों द्वारा उन सभी पाण्डव-महारथियों की गति अवरुद्ध कर दी। जैसे सिंह छोटे मृगों को पीड़ा देता है, उसी प्रकार राधापुत्र कर्ण ने उन महारथियों को बाणों से पीड़ित करके झुकी हुई गांठवाले तीखे बाणों से चोट पहुँचाते हुए वहाँ धर्मराज धर्मपुत्र युधिष्ठिर पर पुन: आक्रमण किया। उस समय दांतों के समान सफेद रंग और काली पूंछवाले जो घोड़े युधिष्ठिर की सवारी में थे, उन्हींं से जुते हुए दूसरे रथ पर बैठकर राजा युधिष्ठवर रण-भूमि से विमुख हो शिबिर की ओर चल दिये। युधिष्ठिर का पृष्ठ रक्षक पहले ही मार दिया गया था। उनका मन बहुत दुखी था, इसलिये वे कर्ण के सामने ठहर न सके और युद्धस्थ ल से हट गये।[2] उस समय राधापुत्र कर्ण पाण्डु नन्दन युधिष्ठिर का पीछा करके वज्र, छत्र, अंकुश, मत्स्य, ध्वज, कर्म और कमल आदि शुभ लक्षणों से सम्प‍न्न गोरे हाथ से उनका कंधा छूकर, मानो अपने आपको पवित्र करने के लिये उन्हें बलपूर्वक पकड़ने की इच्छा करने लगा। उसी समय उसे कुन्ती देवी को दिये हुए अपने वचन का स्मरण हो आया। उस समय राजा शल्य ने कहा 'कर्ण! इन नृपश्रेष्ठ युधिष्ठिर को हाथ न लगाना, अन्यथा वे पकड़ते ही तुम्हारा वध करके अपनी क्रोधाग्निण से तुम्हें भस्म कर डालेंगे।

कर्ण द्वारा युधिष्ठिर की निंदा करना

राजन! तब कर्ण जोर-जोर से हंस पड़ा और पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर की निन्दा सा करता हुआ बोला ‘युधिष्ठिर! जो क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हो, क्षत्रिय धर्म में तत्पर रहता हो, वह महासमर में प्राणों की रक्षा के लिये भयभीत हो युद्ध छोड़कर भाग कैसे सकता है मेरा तो ऐसा विश्वास है कि तुम क्षत्रिय धर्म में निपुण नहीं हो। ‘कुन्ती कुमार! तुम ब्राह्मबल, स्वाध्याय एवं यज्ञ-कर्म में ही कुशल हो; अत: न तो युद्ध किया करो और न वीरों के सामने ही जाओ। ‘माननीय नरेश! न इन वीरों से कभी अप्रिय वचन बोलो और न महान युद्ध में पैर ही रखो। यदि अप्रिय वचन बोलना ही हो तो दूसरों से बोलना; मेरे जैसे वीरों से नहीं। ‘युद्ध में मेरे जैसे लोगों से अप्रिय वचन बोलने पर तुम्हें यही तथा दूसरा कुफल भी भोगना पड़ेगा। अत: कुन्ती नन्दन! अपने घर चले जाओ अथवा जहाँ श्रीकृष्ण और अर्जुन हों वही पधारो। राजन! कर्ण समरांगण में किसी तरह भी तुम्हारा वध नहीं करेगा।[3]

पांडव योद्धाओं का रणक्षेत्र से प्रस्थान

महाबली कर्ण ने युधिष्ठिर से ऐसा कहकर फिर उन्हें छोड़ दिया और जैसे वज्रधारी इन्द्र असुर सेना का संहार करते हैं, उसी प्रकार पाण्डव सेना का विनाश आरम्भ कर दिया। राजन! तब राजा युधिष्ठिर लजाते हुए से तुरंत रणभूमि से भाग गये। राजा को रणक्षेत्र से हटा हुआ जानकर चेदि, पाण्डव और पांचाल वीर, महारथी सात्यकि, द्रौपदी के शूरवीर पुत्र तथा पाण्डु नन्दन माद्रीकुमार नकुल-सहदेव भी धर्म मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले युधिष्ठिर के पीछे-पीछे चल दिये। तदनन्तर युधिष्ठिर सेना को युद्ध से विमुख हुई देख हर्ष में भरे हुए वीर कर्ण ने कौरव सैनिकों को साथ लेकर कुछ दूर तक उसका पीछा किया। उस समय भेर, शंख, मृदंग और धनुषों की ध्वनि सब ओर फैल रही थी तथा दुर्योधन के सैनिक सिंह के समान दहाड़ रहे थे।[3]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 49 श्लोक 40-49
  2. 2.0 2.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 49 श्लोक 40-49
  3. 3.0 3.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 49 श्लोक 50-69

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