शल्य और दुर्योधन का वार्तालाप

महाभारत कर्ण पर्व के अंतर्गत 35वें अध्याय में शल्य और दुर्योधन के मध्य वार्तालाप का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]-

शल्य और दुर्योधन के मध्य वार्तालाप

दुर्योधन बोला- राजन! इस प्रकार सर्वलोक पितामह भगवान ब्रह्मा ने वहाँ सारथि कार्य किया और रथी हुए रुद्र। वीर! रथ का सारथि तो उसी को बनाना चाहिये, जो रथी से भी बढ़कर हो। अतः पुरुषसिंह! आप युद्ध में कर्ण के घोड़ों को काबू में रखिये। जैसे देवताओं ने वहाँ यत्न पूर्वक ब्रह्मा जी का वरण किया था, उसी प्रकार हम लोगों ने विशेष चेष्टा करके कर्ण से भी अधिक बलवान आपका सारथि-कर्म के लिए वरण किया। महाराज! जैसे देवताओं ने महादेव जी से भी बड़े ब्रह्मा जी को उनका सारथि चुना था, उसी प्रकार हमने भी आपको चुना है। अतः महातेजस्वी नरेश! आप युद्ध में राधापुत्र कर्ण के घोड़ों का नियन्त्रण कीजिये।

शल्य ने कहा- भारत! नरश्रेष्ठ! मैंने भी देवश्रेष्ठ ब्रह्मा और महादेव जी के इस अलौकिक एवं दिव्य उपाख्यान को विद्वानों के मुख से सुना है कि किस प्रकार प्रपितामह ब्रह्मा और महादेव जी का सारथि-कर्म किया था? और कैसे एक ही बाण से समस्त असुर मारे गये? भगवान ब्रह्मा उस समय जिस प्रकार महादेव जी के सारथि हुए थे, यह सारा पुरातन वृत्तान्त श्रीकृष्ण को भी विदित ही होगा। क्योंकि श्रीकृष्ण भी भूत और भविष्य को यथार्थ रूप से जानते हैं। भारत! इस विषय को अच्छी तरह जानकर ही रुद्र के सारथि ब्रह्मा जी के समान श्रीकृष्ण बने हुए हैं। यदि सूतपुत्र कर्ण किसी प्रकार कुन्तीकुमार अर्जुन को मार डालेगा तो अर्जुन को मारा गया देख श्रीकृष्ण स्वयं ही युद्ध करेंगे। उनके हाथ में शंख, चक्र और गदा होगी। वे तुम्हारी सेना को जलाकर भस्म कर देंगे। महात्मा श्रीकृष्ण कुपित होकर जब हथियार उठायेंगे, उस समय तुम्हारे पक्ष को कोई भी नरेश उनके सामने ठहर नहीं सकेगा।

संजय कहते हैं- राजन! मद्रराज शल्य को ऐसी बातें करते देख आपके शत्रुदमन पुत्र महाबाहु दुर्योधन ने मन में तनिक भी दीनता न लाकर उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया- ‘महाबाहो! तुम रणक्षेत्र में वैकर्तन कर्ण का अपमान न करो। वह सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ तथा सम्पूर्ण शास्त्रों के अर्थ का पारंगत विद्वान है। यह वही वीर है जिसकी प्रत्यंचा की अत्यन्त भयानक टंकार सुनकर पाण्डव सेना दसों दिशाओं में भागने लगती है। महाबाहो! यह तो तुमने अपनी आँखों देखा था कि किस प्रकार उस दिन रात में सैंकड़ों मायाओं का प्रयोग करने वाला मायावी घटोत्कच कर्ण के हाथ से मारा गया। इन सारे दिनों में महान भय से घिरे हुए अर्जुन किसी तरह भी कर्ण के सामने खड़े न हो सके थे। राजन! बलवान भीमसेन को भी इसने अपने धनुष की कोटि से दबाकर युद्ध के लिये प्रेरित किया था और उन्हें मूर्ख, पेटू आदि नामों से पुकारा था। मान्यवर! इसने महासमर में शूरवीर नकुल-सहदेव को भी परास्त करके किसी विशेष प्रयोजन को सामने रखकर उन दोनों को युद्ध में मार नहीं डाला।

इसने वृष्णि वंश के प्रमुख वीर सात्वत शिरोमणि शूरवीर सात्यकि को समरांगण में परास्त करके उन्हें बलपूर्वक रथहीन कर दिया था। इसके सिवा धृष्टद्युम्न आदि समस्त सृंजयों को भी इसने युद्ध स्थल में हँसते-हँसते अनेक बार परास्त किया है।[1] आप भी सम्पूर्ण अस्त्रों के ज्ञाता, समस्त विद्याओं तथा अस्त्रों के पारंगत विद्वान एवं वीर हैं। इस भूतल पर बाहुबल के द्वारा आपकी समानता करने वाला कोई नहीं है। शत्रुसूदन नरेश! आप पराक्रम प्रकट करते समय शत्रुओं के लिये असह्य हो उठते हैं, उनके लिये आप शल्यभूत (कण्टक स्वरूप) हैं; इसीलिये आपको शल्य कहा जाता है। राजन! आपके बाहुबल को सामने पाकर सम्पूर्ण सात्वतवंशी क्षत्रिय कभी युद्ध में टिक न सके हैं। क्या आपके बाहुबल से श्रीकृष्ण का बल अधिक है? जैसे अर्जुन के मारे जाने पर श्रीकृष्ण पाण्डव-सेना की रक्षा करेंगे, उसी प्रकार यदि कर्ण मारा गया तो आपको मेरी विशाल वाहिनी का संरक्षण करना होगा। मान्यवर! वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण क्यों कौरव सेना का निवारण करेंगे और क्यों आप पाण्डव-सेना का वध नहीं करेंगे? माननीय नरेश! मैं तो आपके ही भरोसे युद्ध में मारे गये अपने वीर भाईयों तथा समस्त राजाओं के (ऋण से मुक्त होने के लिये उन्हीं के) पथ पर चलने की इच्छा रखता हूँ।[2]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 35 श्लोक 1-20
  2. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 35 श्लोक 21-42

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