कर्ण के वध पर धृतराष्ट्र का विलाप

महाभारत कर्ण पर्व के अंतर्गत आठवें अध्याय में कर्ण के वध पर धृतराष्ट्र के विलाप करने का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

जनमेजय बोले- द्विजश्रेष्ठ! युद्ध में कर्ण मारा गया और पुत्र भी धराशायी हो गये, यह सुनकर अचेत हुए राजा धृतराष्ट्र को जब पुनः कुछ चेत हुआ, जब उन्होंने क्या कहा? धृतराष्ट्र को अपने पुत्रों के मारे जाने के कारण बड़ा भारी दुःख हुआ था, उस समय उन्होंने जो कुछ कहा, उसे मैं पूछ रहा हूँ; आप मुझे बताइये।

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! कर्ण का मारा जाना अद्भुत और अविश्वसनीय सा लग रहा था। वह भयंकर कर्म उसी प्रकार समस्त प्राणियों को मोह में डालने वाला था, जैसे मेरु पर्वत का अपने स्थान से हटकर अन्यत्र चला जाना। परम बुद्धिमान भृगु नन्दन परशुराम जी के चित्त में मोह उत्पन्न होना जैसे सम्भव नहीं है, जैसे भयंकर कर्म करने वाले देवराज इन्द्र का अपने शत्रुओं से पराजित होना असम्भव है, जैसे महातेजस्वी सूर्य के आकाश से पृथ्वी पर गिरने और अक्षय जल वाले समुद्र के सूख जाने की बात मन में सोची नहीं जा सकती; पृथ्वी, आकाश, दिशा और जल का सर्वनाश होना एवं पाप तथा पुण्य- दोनों प्रकार के कर्मों का निष्फल हो जाना जैसे आश्चर्यजनक घटना है; उसी प्रकार समर में कर्ण-वध रूपी असम्भव कर्म को भी सम्भव हुआ सुनकर और उस पर बुद्धि द्वारा अच्छी तरह विचार करके राजा धृतराष्ट्र यह सोचने लगे कि ‘अब यह कौरव दल बच नहीं सकता। कर्ण की ही भाँति अन्य प्राणियों का भी विनाश हो सकता है।’ यह सब सोचते ही उनके हृदय में शोक की आग प्रज्वलित हो उठी और वे उससे तपने एवं दग्ध से होने लगे। एनके सारे अंग शिथिल हो गये। महाराज! वे अम्बिका नन्दन धृतराष्ट्र दीन भाव से लंबी साँस खींचने और अत्यन्त दुखी हो ‘हाय! हाय!’ कहकर विलाप करने लगे।

कर्ण के वध पर धृतराष्ट्र का विलाप करना

धृतराष्ट्र बोले - संजय! अधिरथ का वीर पुत्र कर्ण सिंह और हाथी के समान पराक्रमी था। उसके कंधे साँड़ के कंधे के समान हृष्ट-पुष्ट थे। उसकी आँखें और चाल-ढाल भी साँड़ के ही सदृश थीं। वह स्वयं भी दान की वर्षा करने के कारण वृषभ स्वरूप था। रणभूमि में विचरता हुआ कर्ण इन्द्र जैसे शत्रु से पाला पड़ने पर भी साँड़ के समान कभी युद्ध से पीछे नहीं हटता था। उसकी युवा अवस्था थी। उसका शरीर इतना सुदृढ़ था, मानो वज्र से गढ़ा गया हो। जिसकी प्रत्यंचा की टंकार तथा बाण वर्षा के भयंकर शब्द से भयभीत हो रथी, घुड़सवार, गजारोही और पैदल सैनिक युद्ध में सामने नहीं ठहर पाते थे। जिस महाबाहु का भरोसा करके शत्रुओं पर विजय पाने की इच्छा रखते हुए दुर्योधन ने महारथी पाण्डवों के साथ वैर बाँध रखा था। जिसका पराक्रम शत्रुओं के लिये असह्य था, वह रथियों में श्रेष्ठ पुरुषसिंह कर्ण युद्ध स्थल में कुन्ती पुत्र अर्जुन के द्वारा बलपूर्वक कैसे मारा गया? जो अपने बाहुबल के घमंड में भरकर श्रीकृष्ण को, अर्जुन को तथा एक साथ आये हुए अन्यान्य वृष्णि वंशियों को भी कभी कुछ नहीं समझता था। जो राज्य की इच्छा रखने वाले तथा चिन्ता से आतुर हो मुँह लटकाये बैठे हुए मेरे लोभ मोहित मूर्ख पुत्र दुर्योधन से सदा यही कहा कहता था कि ‘मैं अकेला ही युद्ध स्थल में शांर्ग और गाण्डीव धनुष धारण करने वाले दोनों अपराजित वीर श्रीकृष्ण और अर्जुन को उनके दिव्यरथ से एक साथ ही मार गिराऊँगा।[1]

जिस वीर ने पहले समस्त काम्बोज, आवन्त्य, केकय, गान्धार, मद्र, मत्स्य, त्रिगर्त, तंगण, शक, पांचाल, विदेह, कुलिन्द, काशी, कोसल, सुह्य, अंग, बंग, निषाद, पुण्ड्र, चीरक, वत्स, कलिंग, तरल, अश्मक तथा ऋषिक- इन सभी देशों तथा शबर, परहूण, प्रहूण और सरल जाति के लोगों, म्लेच्छ राज्य के अधिपतियों तथा दुर्ग एवं वनों में रहने वाले योद्धाओं को समर भूमि में जीतकर देने वाला बना दिया था। रथियों मे श्रेष्ठ जिस राणा पुत्र ने दुर्योधन की वृद्धि के लिये कंकपत्र युक्त, तीखी धार वाले पैने बाण समूहों द्वारा समस्त शत्रुओं को परास्त करके उनसे कर वसूल किया था, जो दिव्यास्त्रों का ज्ञाता, उत्तम अस्त्रों का जानकार और हमारी सेनाओं का रक्षक था, वह महातेजस्वी धर्मात्मा वैकर्तन कर्ण अपने शूरवीर एवं बलशाली शत्रु पाण्डवों द्वारा कैसे मारा गया?[2]

देवताओं में देवराज इन्द्र को वृष कहा गया है (क्योंकि वे जल की वर्षा करते हैं), इसी प्रकार मनुष्यों में भी कर्ण को वृष कहा जाता था (क्योंकि वह याचकों के लिये धन की वर्षा करता था); इन दो के सिवा किसी तीसरे पुरुष को तीनों लोकों में वृष नाम दिया गया हो, यह मैंने नहीं सुना। जैसे घोड़ों में उच्चैःश्रवा, राजाओं में कुबेर और देवताओं में महेन्द्र श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार कर्ण योद्धाओं में ऊँचा स्थान रखता था। जो पराक्रमशाली, समर्थ एवं शूरवीर नरेशों द्वारा भी कभी जीता नहीं जा सका, जिसने दुर्योधन की वृद्धि के लिये समस्त भूमण्डल पर विजय पायी थी, जिसे अपना सहायक पाकर मगध नरेश जरासंध ने भी सौहार्दवश शानत हो यादवों और कौरवों को छोड़कर भूतल के अन्य नरेशों को ही अपने कारागार में कैद किया था; यह सुनकर मैं शोक के समुद्र में डूब गया हूँ, मानो मेरी नाव बीच समुद्र में जाकर टूट गयी हो। रथियों में श्रेष्ठ धर्मात्मा कर्ण को द्वैरथ युद्ध में मारा गया सुनकर मैं समुद्र में नौका रहित पुरुष की भाँति शोक सागर में निमग्न हो गया हूँ। संजय! यदि ऐसे दुःखों से भी मेरी मृत्यु नहीं हो रही है तो मैं ऐसा समझता हूँ कि मेरा यह हृदय वज्र से भी अणिक सुदृढ़ और दुर्भेद्य है। सूत! कुटुम्बीजनों, सगे सम्बन्धियों और मित्रों के पराभव का यह समाचार सुनकर संसार में मेरे सिवा दूसरा कौन पुरुष होगा, जो अपने जीवन का परित्याग न करे। संजय! मै विष खाकर, अग्नि में प्रविष्ट होकर तथा पर्वत के शिखर से नीचे गिरकर भी मृत्यु का वरण कर लूँगा। परंतु अब ये कष्टदायक दुःख नहीं सह सकूँगा।[2]

संजय ने कहा- महाराज! साधु पुरुष इस समय आपको धन सम्पत्ति, कुल मर्यादा, सुयश, तपस्या और शास्त्रज्ञान में नहुष नन्दन ययाति के समान मानते हैं। राजन! वेद शास्त्रों के ज्ञान में आप महर्षियों के तुल्य हैं। आपने अपने जीवन के सम्पूर्ण कर्तव्यों का पालन कर लिया है; अतः अपने मन को स्थिर कीजिये, उसे विषाद में न डुबाइये।[3]

धृतराष्ट्र ने कहा- मैं तो दैव को ही प्रधान मानता हूँ। पुरुषार्थ व्यर्थ है, उसे धिक्कार हे, जिसका आरय लेकर शाल वृक्ष के समान ऊँचे शरीर वाला कर्ण भी युद्ध में मारा गया। युधिष्ठिर की सेना तथा पांचाल रथियों की सेना के समुदाय का संहार करके जिस महारथी वीर ने अपने बाणों की वर्षा से सम्पूर्ण दिशाओं को संतप्त कर दिया और वज्रधारी इन्द्र जैसे असुरों को अचेत कर देते हैं, उसी प्रकार जिसने रणभूमि में कुन्ती कुमारों को मोह में डाल दिया था, वही किस तरह मारा जाकर आँधी के उखाड़ते हुए वृक्ष के समान धरती पर पड़ा है? जैसे समुद का पार नहीं दिखायी देता, उसी प्रकार मैं इस शोक का अन्त नहीं देख पाता हूँ। मेरी चिन्ता अधिकाणिक बढ़ती जाती है और मरने की इच्छा प्रबल हो उठी है। संजय! मैं कर्ण की मृत्यु और अर्जुन की विजय का समाचार सुनकर भी कर्ण के वध को विश्वास के योग्य नहीं मानता। निश्चय ही मेरा हृदय वज्र के सारतत्त्व का बना हुआ है अतः दुर्भेद्य है; तभी तो पुरुषसिंह कर्ण को मारा गया सुनकर भी यह विदीर्ण नहीं हो रहा है। अवश्य ही पूर्व काल में देवताओं ने मेरी आयु बहुत बड़ी बना दी थी, जिसके अधीन होने के कारण मैं कर्ण वध का समाचार सुनकर अत्यन्त दुःखी होने पर भी यहाँ जी रहा हूँ। संजय! मेरे इस जीवन को धिक्कार है। आज मैं सुहृदों से हीन होकर इस घृणित दशा को पहुँच गया हूँ। अब मैं मन्द बुद्धि मानव सबके लिये शोचनीय होकर दीन दुखी मनुष्यों के समान जीवन बिताऊँगा।

सूत! मैं ही पहले सब लोगों के सम्मान का पात्र था; किंतु अब शत्रुओं से अपमानित होकर कैसे जीवित रह सकूँगा? संजय! भीष्म, द्रोण और महामना कर्ण के वध से मुझ पर लगातार एक से एक बढ़कर अत्यन्त दुःख तथा संकट आता गया है। युद्ध में सूत पुत्र कर्ण के मारे जाने पर मैं अपने पक्ष के किसी भी वीर को ऐसा नहीं देखता, जो जीवित रह सके। संजय! कर्ण ही मेरे पुत्रों को पार उतारने वाला महान अवलम्ब था। शत्रुओं पर असंख्य बाणों की वर्षा करने वाला वह शूरवीर युद्ध में मार डाला गया। उस पुरुष शिरोमणि के बिना मेरे इस जीवन से क्या प्रयोजन है? जैसे वज्र के आघात से विदीर्ण किया हुआ पर्वत शिखर धराशायी हो जाता है, उसी प्रकार बाणों से पीड़ित हुआ अणिरथ पुत्र कर्ण निश्चय ही रथ से नीचे गिर पड़ा होगा। जैसे मतवाले गजराज द्वारा गिराया हुआ हाथी पड़ा हो, उसी प्रकार कर्ण खून से लथपथ होकर अवश्य इस पृथ्वी की शोभा बढ़ाता हुआ सो रहा है।[3]

जो मेरे पुत्रों का बल था, पाण्डवों को जिससे सदा भय बना रहता था तथा जो धनुर्धर वीरों के लिये आदर्श था, वह कर्ण अर्जुन के हाथ से मारा गया। जैसे देवराज इन्द्र के द्वारा वज्र से मारा गया पर्वत पृथ्वी पर पड़ा हो, उसी प्रकार मित्रों को अभय दान देने वाला वह महाधनुर्धर वीर कर्ण अर्जुन के हाथ से मारा जाकर रणभूमि में सो रहा है। जैसे पंगु मनुष्य के लिये रास्ता चलना कठिन है, दरिद्र का मनोहर पूर्ण होना असम्भव अथवा सफलता से कोसों दूर है। किसी कार्य को अन्य प्रकार से सोचा जाता है, किन्तु वह देववश और ही प्रकार का हो जाता है। अहो! निश्चय ही दैप प्रबल और काल दुर्लंघ्य है।[4]

सूत! क्या मेरा पुत्र दुःशासन दीन चित्त और पुरुषार्थ शून्य होकर कायर के समान भागता हुआ मारा गया। तात! उसने युद्ध स्थल में कोई दीनता पूर्ण बर्ताव तो नहीं किया था। जैसे अन्य क्षत्रिय शिरोमणि मारे गये हैं, क्या उसी प्रकार शूरवीर दुःशासन नहीं मारा गया है? युधिष्ठिर सदा यही कहते रहे कि ‘युद्ध न करो।’ परंतु मूर्ख दुर्योधन ने हितकारक औषध के समान उनके उस वचन को ग्रहण नहीं किया। बाण शय्या पर सोये हुए महात्मा भीष्म ने अर्जुन से पानी माँगा और उन्होंने इसके लिये पृथ्वी को छेद दिया। इस प्रकार पाण्डुपुत्र अर्जुन के द्वारा प्रकट की हूई उस जलधारा को देखकर महाबाहु भीष्म ने दुर्योधन से कहा- ‘तात! पाण्डवों के साथ संधि कर लो। संधि से वैर की शान्ति हो जायगी, तुम लोगों का यह युद्ध मेरे जीवन के साथ ही समाप्त हो जाय। तुम पाण्डवों के साथ भ्रातृभाव बनाये रखकर पृथ्वी का उपभोग करो’। उनकी उस बात को न मानने के कारण अवश्य ही मेरा पुत्र शोक कर रहा है। दूरदर्शी भीष्म जी की यह बात आज सफल होकर सामने आयी है। संजय! मेरे मन्त्री और पुत्र मारे गये। मैं तो पंख कटे हुए पक्षी के समान जूए के कारण भारी संकट में पड़ गया हूँ। सूत! जैसे खेलते हुए बालक किसी पक्षी को पकड़कर उसकी दोनों पाँखें काट लेते और प्रसन्नतापूर्वक उसे छोड़ देते हैं। फिर पंख कट जाने के कारण उसका उड़कर कहीं जाना सम्भव नहीं हो पाता। उसी कटे हुए पंख वाले पक्षी के समान मैं भी भारी दुर्दशा में पड़ गया हूँ। मैं शरीर से दुर्बल, सारी धन-सम्पत्ति से वंचित तथा कुटुम्बजनों और बन्धुजनों से रहित हो शत्रु के वश में पड़कर दीनभाव से किस दिशा को जाऊँगा?[4]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 8 श्लोक 1-17
  2. 2.0 2.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 8 श्लोक 18-31
  3. 3.0 3.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 9 श्लोक 1-16
  4. 4.0 4.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 9 श्लोक 17-34

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