इंद्र आदि देवताओं का शिव की शरण में जाना

महाभारत कर्ण पर्व के अंतर्गत 33वें अध्याय में त्रिपुरों से भयभीत होकर इंद्र आदि देवताओं का ब्रह्मा के साथ शिव की शरण में जाने का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]-

तारकाक्षपुत्र हरि का ब्रह्मा से वरदान प्राप्त करना

दुर्योधन बोला- तारकाक्ष का महाबली वीर पुत्र 'हरि' नाम से प्रसिद्ध था, उसने बड़ी भारी तपस्या की, जिससे ब्रह्मा जी उस पर संतुष्ट हो गये। संतुष्ट हुए ब्रह्मा जी से उसने यह वर माँगा कि 'हमारे पुरों में एक-एक ऐसी बावड़ी हो जाय, जिसके भीतर डाल दिये जाने पर शस्त्रों के आघात से मरे हुए दैत्य वीर और भी प्रबल होकर जीवित हो उठें।' प्रभो! वह वरदान पाकर तारकाक्ष के वीर पुत्र हरि ने उपपुरों में एक-एक बावड़ी का निर्माण किया, जो मृतकों को जीवन प्रदान करने वाली थी। जो दैत्य जिस रूप और जैसे वेष में रहता था, मरने पर उस बावड़ी में डालने के पश्चात् वैसे ही रूप और वेष से सम्पन्न होकर प्रकट हो जाता था। उस वापी में पहुँच जाने पर नया जीवन धारण करके वे दैत्य पुनः उन सभी लोकों को बाधा पहुँचाने लगते थे।[1]

देवताओं का ब्रह्मा के साथ शिव की शरण में जाना

राजन! ये महान तप से सिद्ध हुए असुर देवताओं का भय बढ़ा रहे थे। युद्ध में कभी उनका विनाश नहीं होता था। उन पुरों में बसाये गये सभी दैत्य लोभ और मोह के वशीभूत हो विवेकहीन और निर्लज्ज होकर सब ओर लूटपाट करने लगे। वरदान पाने के कारण उनका घमंड बढ़ गया था। वे विभिन्न स्थानों में देवताओं और उनके गणों को भगाकर वहाँ अपनी इच्छा के अनुसार विचरते थे। स्वर्गवासियों के परम प्रिय समस्त देवोद्यानों, ऋषियों के पवित्र आश्रमों तथा रमणीय जनपदों को भी वे मर्यादा शून्य दुराचारी दानव नष्ट-भ्रष्ट कर देते थे। उन देव विरोधी तीनों दैत्यों ने देवताओं, पितरों और ऋषियों को भी उनके स्थानों से हटाकर निराश्रय कर दिया। वे ही नहीं, तीनों लोकों के निवासी उनके द्वारा पददलित हो रहे थे। जब सम्पूर्ण लोकों के प्राणी पीड़ित होने लगे, तब देवताओं सहित इन्द्र चारों ओर से वज्रपात करते हुए उन तीनों पुरों के साथ युद्ध करने लगे।[1]

शत्रुदमन नरेश्वर! जब देवराज इन्द्र ब्रह्मा जी का वर पाये हुए उन अभेद्य पुरों का भेदन न कर सके, तब वे भयभीत हो उन पुरों को छोड़कर उन्हीं देवताओं के साथ ब्रह्मा जी के पास उन दैत्यों का अत्याचार बताने के लिये गये। उन्होंने मस्तक झुकाकर ब्रह्मा जी को प्रणाम किया और सारी बातें ठीक-ठीक बताकर उनसे उन दैत्यों के वध का उपाय पूछा। वह सब सुनकर भगनान ब्रह्मा ने उन देवताओं से इस प्रकार कहा- ‘देवगण! जो तुम्हारी बुराई करता है, वह मेरा भी अपराधी है। वे समस्त देवद्रोही दुरात्मा असुर, जो सदा तुम्हें पीड़ा देते रहते हैं, निश्चय ही मेरा भी महान अपराध करते हैं। इसमें संशय नहीं कि समस्त प्राणियों के प्रति मेरा समान भाव है, तथापि मैंने यह व्रत ले रखा है कि पापात्माओं का वध कर दिया जाय।

वे तीनों पुर एक ही बाण से वेध दिये जायँ तो नष्ट हो सकते हैं, अन्यथा नहीं, परंतु महादेव जी के सिवा दूसरा कोई ऐसा नहीं है,जो उन तीनों को एक साथ एक ही बाण से वेध सके। अतः अदितिकुमारों! तुम लोग अनायास ही महान कर्म करने वाले? विजयशील, ईश्वर, महादेव जी का योद्धा के रूप में वरण करो। वे ही उन दैत्यों को मार सकते हैं। उनकी यह बात सुनकर इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता ब्रह्मा जी को आगे करके महादेव जी की शरण में गये। तप और नियम का आश्रय ले ऋषियों सहित धर्मज्ञ देवता सनातन ब्रह्म स्वरूप महादेव जी की स्तुति करते हुए सम्पूर्ण हृदय से उनकी शरण में गये।[2]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 33 श्लोक 18-36
  2. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 33 श्लोक 37-57

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