श्रीकृष्ण का अर्जुन को प्रतिज्ञाभंग, भ्रातृवध तथा आत्मघात से बचाना

महाभारत कर्ण पर्व के अंतर्गत 70वें अध्याय में संजय ने श्रीकृष्ण का अर्जुन को प्रतिज्ञाभंग, भ्रातृवध तथा आत्मघात से बचाने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

श्रीकृष्ण के कहने पर अर्जुन द्वारा युधिष्ठिर की निंदा करना

संजय कहते हैं- राजन! भगवान श्रीकृष्‍ण के ऐसा कहने पर कुन्‍तीकुमार अर्जुन ने हितैषी सखा के उस वचन की बड़ी प्रशंसा की। फिर वे हठपूर्वक धर्मराज के प्रति ऐसे कठोर वचन कहने लगे, जैसे उन्‍होंने पहले कभी नहीं कहे थे।

अर्जुन बोले- 'राजन! तू तो स्‍वयं ही युद्ध से भागकर एक कोस दूर आ बैठा है, अत: तू मुझसे न बोल, न बोल। हां, भीमसेन को मेरी निन्‍दा करने का अधिकार है, जो कि समस्‍त संसार के प्रमुख वीरों के साथ अकेले ही जुझ रहे हैं। जो यथासमय शत्रुओं को पीड़ा देते हुए युद्धस्‍थल में उन समस्‍त शौर्यसम्‍पन्न भूपतियों, प्रधान-प्रधान रथियों, श्रेष्‍ठ गजराजों, प्रमुख अश्वारोहियों, असंख्‍य वीरों, सहस्र से भी अधिक हाथियों, दस हजार काम्‍बोज देशीय अश्वों तथा पर्वतीय वीरों का वध करके जैसे मृगों को मारकर सिंह दहाड़ रहा हो, उसी प्रकार भयंकर सिंहनाद करते हैं, जो वीर भीमसेन हाथ में गदा ले रथ से कूदकर उसके द्वारा रणभूमि में हाथी, घोड़ों एवं रथों का संहार करते हैं तथा ऐसा अत्‍यन्‍त दुष्‍कर पराक्रम प्रकट इन्‍द्र के समान हैं तथा ऐसा अत्‍यन्‍त दुष्‍कर पराक्रम प्रकट कर रहे हैं जैसा कि तू कभी नहीं कर सकता, जिनका पराक्रम इन्‍द्र के समान है, जो उत्तम खड्ग, चक्र और धनुष के द्वारा हाथी, घोड़ों, पैदल-योद्धाओं तथा अन्‍यान्‍य शत्रुओं को दग्‍ध किये देते हैं और जो पैरों से कुचलकर दोनों हाथों से वैरियों का विनाश करते हैं, वे महाबली, कुबेर और यमराज के समान पराक्रमी एवं शत्रुओं की सेना का बलपूर्वक संहार करने में समर्थ भीमसेन ही मेरी निन्‍दा करने के अधिकारी हैं।

तू मेरी निन्‍दा नहीं कर सकता; क्‍योंकि तू अपने पराक्रम से नहीं, हितैषी सुहृदों द्वारा सदा सुरक्षित होता है। जो शत्रुपक्ष के महारथियों, गजराजों, घोड़ों और प्रधान-प्रधान पैदल योद्धाओं को भी रौंदकर दुर्योधन की सेनाओं में घुस गये हैं, वे एकमात्र शत्रुदमन भीमसेन ही मुझे उलाहना देने के अधिकारी हैं। जो कलिंग, वंग, अंग, निषाद और मगध देशों में उत्‍पन्न सदा मदमत्त रहने वाले तथा काले मेघों की घटा के समान दिखायी देने वाले शत्रुपक्षीय अनेकानेक हाथियों का संहार करते हैं, वे शत्रुदमन भीमसेन ही मुझे उलाहना देने के अधिकारी हैं। वीरवर भीमसेन यथासमय जुते हुए रथ पर आरुढ़ हो धनुष हिलाते हुए मुट्ठीभर बाण निकालते और जैसे मेघ जल की धारा गिराते हैं, उसी प्रकार महासमर में बाणों की वर्षा करते हैं। मैंने देखा है आज भीमसेन ने युद्धस्‍थल में अपने बाणों द्वारा शत्रुपक्ष के आठ सौ हाथियों को उनके कुम्‍भस्‍थल, शुण्‍ड और शुण्‍डाग्र भाग काटकर मार डाला है, वे शत्रुहन्‍ता भीमसेन ही मुझ से कठोर वचन कहने के अधिकारी हैं।[1]

राजन! नकुल ने समरभूमि में प्राणों का मोह छोड़कर सहसा आगे बढ़-बढ़कर बहुत से हाथी, घोड़े और शूरवीर योद्धाओं का वध किया है। युद्ध की अभिलाषा रखने वाला वह शत्रुदमन वीर भी उलाहना दे सकता है। सहदेव ने भी दुष्‍कर कर्म किया है। शत्रुसेना का मर्दन करने वाला वह बलवान वीर निरन्‍तर युद्ध में लगा रहता है। वह भी यहाँ आया था, किंतु कुछ भी न बोला। देख ले, तुझमें और उसमें कितना अन्‍तर है। धृष्टद्युम्न, सात्‍यकि, द्रौपदी के पुत्र, युधामन्‍यु, उत्तमौजा और शिखण्डी- ये सभी वीर युद्ध में अत्‍यन्‍त पीड़ा सहन करते आये हैं; अत: ये ही मुझे उपालम्‍भ दे सकते हैं, तू नहीं। भरतनन्‍दन! ज्ञानी पुरुष कहते हैं कि श्रेष्ठ ब्राह्मणों का बल उनकी वाणी में होता है और क्षत्रिय का बल उनकी दोनों भुजाओं में; परंतु तेरा बल केवल वाणी में है, तू निष्‍ठुर है; मैं जैसा बलवान हूँ उसे तू ही अच्‍छी तरह जानता है। मैं सदा स्‍त्री, पुत्र, जीवन और यह शरीर लगाकर तेरा प्रिय कार्य सिद्ध करने के लिये प्रयत्नशील रहता हूँ। ऐसी दशा में भी तू मुझे अपने वाग्‍बाणों से मार रहा है; हम लोग तुझसे थोड़ा सा भी सुख न पा सके। तू द्रौपदी की शय्या पर बैठा-बैठा मेरा अपमान न कर। मैं तेरे ही लिये बड़े-बड़े महारथियों का संहार कर रहा हूँ। इसी से तू मेरे प्रति अधिक संदेह करके निष्ठुर हो गया है। तुझसे कोई सुख मिला हो, इसका मुझे स्‍मरण नहीं है।

नरदेव! तेरा प्रिय करने के लिये सत्‍यप्रतिज्ञ भीष्म जी ने युद्ध में महामनस्‍वी वीर द्रुपदकुमार शिखण्‍डी को अपनी मृत्‍यु बताया था। मेरे ही द्वारा सुरक्षित होकर शिखण्‍डी ने उन्‍हें मारा है। मैं तेरे राज्‍य का अभिनन्‍दन नहीं करता; क्‍योंकि तू अपना ही अहित करने के लिये जूए में आसक्त है। स्‍वयं नीच पुरुषों द्वारा सेवित पापकर्म करके सब तू हम लोगों के द्वारा शत्रुसेना रुपी समुद्र को पार करना चाहते है। जूआ खेलने में बहुत से पापमय दोष बताये गये हैं, जिन्‍हें सहदेव ने तुझ से कहा था और तूने सुना भी था, तो भी तू उन दुर्जनसेवित दोषों का परित्‍याग न कर सका; इसी से हम सब लोग नरकतुल्‍य कष्ट में पड़ गये। पाण्‍डुकुमार! तुझसे थोड़ा सा भी सुख मिला हो यह हम नहीं जानते हैं; क्‍योंकि तू जूआ खेलने के व्‍यसन में पड़ा हुआ है। स्‍वयं यह दुर्व्‍यसन करके अब तू हमें कठोर बातें सुना रहा है। हमारे द्वारा मारी गयी शत्रुओं की सेना अपने कटे हुए अंगों के साथ पृथ्‍वी पर पड़ी-पड़ी कराह रही है। तूने वह क्रूरतापूर्ण कर्म कर डाला है, जिससे पाप तो होगा ही; कौरव वंश का विनाश भी हो जायगा। उत्तर दिशा के वीर मारे गये, पश्चिम के योद्धाओं का संहार हो गया, पूर्वदेश के क्षत्रिय नष्ट हो गये और दक्षिण देशीय योद्धा काट डाले गये। शत्रुओं के और हमारे पक्ष के बड़े-बड़े योद्धाओं ने युद्ध में ऐसा पराक्रम किया है, जिसकी कहीं तुलना नहीं है। नरेन्‍द्र! तू भाग्‍यहीन जुआरी है। तेरे ही कारण हमारे राज्‍य का नाश हुआ और तुझसे ही हमें घोर संकट की प्राप्ति हुई। राजन! अब तू अपने वचनरुपी चाबुकों से हमें पीड़ा देते हुए फिर कुपित न कर।'[2]

श्रीकृष्ण का अर्जुन को आत्मघात से बचाना

संजय कहते है- राजन! सव्‍यसाची अर्जुन धर्मवीरु हैं। उनकी बुद्धि स्थिर है तथा वे उत्तम ज्ञान से सम्‍पन्न हैं। उस समय राजा युधिष्ठिर को वैसी रूखी और कठोर बातें सुनाकर वे ऐसे अनमने और उदास हो गये, मानो कोई पातक करके इस प्रकार पछता रहे हों। देवराजकुमार अर्जुन को उस समय बड़ा पश्चात्ताप हुआ। उन्‍होंने लंबी सांस खींचते हुए फिर से तलवार खींच ली। यह देख भगवान श्रीकृष्‍ण ने कहा- ‘अर्जुन! यह क्‍या तुम आकाश के समान निर्मल इस तलवार को पुन: क्‍यों ध्‍यान से बाहर निकाल रहे हो तुम मुझे मेरी बात का उत्तर दो। मैं तुम्‍हारा अभीष्‍ट अर्थ सिद्ध करने के लिये पुन: कोई योग्‍य उपाय बताऊंगा'।

पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्‍ण इस प्रकार पूछने पर अर्जुन अत्‍यन्‍त दुखी हो उनसे इस प्रकार बोले- 'भगवन! मैंने जिसके द्वारा हठपूर्वक भाई का अपमानरुप अहितकर कार्य कर डाला है, अपने उस शरीर को ही अब नष्‍ट कर डालूंगा'। अर्जुन का यह वचन सुनकर धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ श्रीकृष्‍ण ने उनसे कहा- 'पार्थ! राजा युधिष्ठिर को 'तू' ऐसा कहकर तुम इतने घोर दु:ख में क्‍यों डूब गये शत्रुसूदन! क्‍या तुम आत्‍मघात करना चाहते हो किरीटधारी वीर! साधुपुरुषों ने कभी ऐसा कार्य नहीं किया है। नरवीर! यदि आज धर्म से डरकर तुमने अपने बड़े भाई इन धर्मात्‍मा युधिष्ठिर को तलवार से मार डाला होता तो तुम्‍हारी कैसी दशा होती और इसके बाद तुम क्‍या करते। कुन्‍तीनन्‍दन! धर्म का स्‍वरुप सूक्ष्‍म है। उसको जानना या समझना बहुत कठिन है। विशेषत: अज्ञानी पुरुषों के लिये तो उसका जानना और भी मुश्किल है। अब मैं जो कुछ कहता हूं, उसे ध्‍यान देकर सुनो, भाई का वध करने से जिस अत्‍यन्‍त घोर नरक की प्राप्ति होती है, उससे भी भयानक नरक तुम्‍हें स्‍वयं ही अपनी हत्‍या करने से प्राप्‍त हो सकता है। अत: पार्थ! अब तुम यहाँ अपनी ही वाणी द्वारा अपने गुणों का वर्णन करो। ऐसा करने से यह मान लिया जायगा कि तुमने अपने ही हाथों अपना वध कर लिया'।[3]

अर्जुन द्वारा कर्णवध का निश्चय करना

सुनकर अर्जुन ने उनकी बात का अभिनन्‍दन करते हुए कहा- 'श्रीकृष्‍ण! ऐसा ही हो'। फिर इन्‍द्रकुमार अर्जुन अपने धनुष को नवाकर धर्मात्‍माओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर से इस प्रकार बोले- 'राजन! सुनिये। नरदेव! पिनाकधारी भगवान शंकर को छोड़कर दूसरा कोई भी मेरे समान धनुर्धर नहीं है। उन महात्‍मा महेश्‍वर ने मेरी वीरता का अनुमोदन किया है। मैं चाहूँ तो क्षणभर में चराचर प्राणियों सहित सम्‍पूर्ण जगत को नष्‍ट कर डालूं। राजन! मैंने सम्‍पूर्ण दिशाओं और दिक्पाल को जीतकर आपके अधीन कर दिया था। पर्याप्‍त दक्षिणाओं से युक्त राजसूय यज्ञ का अनुष्‍ठान तथा आपकी दिव्‍यसभा का निर्माण मेरे ही बल से सम्‍भव हुआ है। मेरी ही हाथ में तीखे तीर और बाण तथा प्रत्‍यंचा‍सहित विशाल धनुष है। मेरे चरणों में रथ और ध्‍वजा के चिह्न हैं। मेरे-जैसा वीर यदि युद्धभूमि में पहुँच जाय तो उसे शत्रु जीत नहीं सकते। मेरे द्वारा उत्तर दिशा के वीर मारे गये, पश्चिम के योद्धाओं का संहार हो गया, पूर्वदेश के क्षत्रिय नष्‍ट हो गये और दक्षिणदेशीय योद्धा काट डाले गये। संशप्तकों का भी थोड़ा सा ही भाग शेष रह गया है। मैंने सारी कौरव सेना के आधे भाग को स्‍वयं ही नष्‍ट किया है। राजन! देवताओं की सेना के समान प्रकाशित होने वाली भरतवंशियों की यह विशाल वाहिनी मेरे ही हाथों मारी जाकर रणभूमि में सो रही है।[3]

जो अस्त्र विद्या के ज्ञाता हैं, उन्‍हीं को मैं अस्त्रों द्वारा मारता हूं; इसीलिये मैं यहाँ सम्‍पूर्ण लोकों को भस्‍म नहीं करता हूँ। श्रीकृष्‍ण! अब हम दोनों विजयशाली एवं भयंकर रथ पर बैठकर सूतपुत्र का वध करने के लिये शीघ्र ही चल दें। आज ये राजा युधिष्ठिर संतुष्‍ट हों। मैं रणभूमि मे अपने बाणों द्वारा कर्ण का नाश कर डालूंगा'। यों कहकर अर्जुन पुन: धर्मात्‍माओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर से बोले- 'आज मेरे द्वारा सूतपुत्र की माता पुत्रहीन हो जायगी अथवा मेरी माता कुन्ती ही कर्ण के द्वारा मुझ एक पुत्र से हीन हो जायगी। मैं सत्‍य कहता हूं, आज युद्धस्‍थल में अपने बाणों द्वारा कर्ण को मारे बिना मैं कवच नहीं उतारुंगा'। संजय कहते है- महाराज! किरीटधारी कुन्‍तीकुमार अर्जुन धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ युधिष्ठिर से पुन: ऐसा कहकर शस्त्र खोल, धनुष नीचे डाल और तलवार को तुरंत ही म्यान में रखकर लज्जा से नतमस्‍तक हो हाथ जोड़ पुन: उनसे इस प्रकार बोले- ‘राजन! आप प्रसन्न हों। मैंने जो कुछ कहा है, उसके लिये क्षमा करें। समय पर आपको सब कुछ मालूम हो जायगा। इसलिये आपको मेरा नमस्‍कार है’। इस प्रकार शत्रुओं का सामना करने में समर्थ राजा युधिष्ठिर को प्रसन्न करके प्रमुख वीर अर्जुन खड़े होकर फिर बोले- ‘महाराज। अब कर्ण के वध में देर नहीं है। यह कार्य शीघ्र ही होगा। वह इधर ही आ रहा है; अत: मैं भी उसी पर चढ़ाई कर रहा हूँ। राजन! मैं अभी भीमसेन को संग्राम से छुटकारा दिलाने और सब प्रकार से सूतपुत्र कर्ण का वध करने के लिये जा रहा हूँ। मेरा जीवन आपका प्रिय करने के लिये ही है। यह मैं सत्‍य कहता हूँ। आप इसे अच्‍छी तरह समझ लें'।[4]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 70 श्लोक 1-11
  2. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 70 श्लोक 12-21
  3. 3.0 3.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 70 श्लोक 22-34
  4. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 70 श्लोक 35-48

सम्बंधित लेख

महाभारत कर्ण पर्व में उल्लेखित कथाएँ


जनमेजय का वैशम्पायन से कर्णवध वृत्तान्त कहने का अनुरोध | धृतराष्ट्र और संजय का वार्तालाप | दुर्योधन का सेना को आश्वासन तथा कर्णवध का संक्षिप्त वृत्तान्त | धृतराष्ट्र का शोक और समस्त स्त्रियों की व्याकुलता | संजय का कौरव पक्ष के मारे गये प्रमुख वीरों का परिचय देना | कौरवों द्वारा मारे गये प्रधान पांडव पक्ष के वीरों का परिचय | कौरव पक्ष के जीवित योद्धाओं का वर्णन और धृतराष्ट्र की मूर्छा | कर्ण के वध पर धृतराष्ट्र का विलाप | धृतराष्ट्र का संजय से कर्णवध का विस्तारपूर्वक वृत्तान्त पूछना | कर्ण को सेनापति बनाने के लिए अश्वत्थामा का प्रस्ताव | कर्ण का सेनापति पद पर अभिषेक | कर्ण के सेनापतित्व में कौरवों द्वारा मकरव्यूह का निर्माण | पांडव सेना द्वारा अर्धचन्द्राकार व्यूह की रचना | कौरव और पांडव सेनाओं का घोर युद्ध | भीमसेन द्वारा क्षेमधूर्ति का वध | सात्यकि द्वारा विन्द और अनुविन्द का वध | द्रौपदीपुत्र श्रुतकर्मा द्वारा चित्रसेन का वध | द्रौपदीपुत्र प्रतिविन्ध्य द्वारा चित्र का वध | अश्वत्थामा और भीमसेन का युद्ध तथा दोनों का मूर्छित होना | अर्जुन का संशप्तकों के साथ युद्ध | अर्जुन का अश्वत्थामा के साथ अद्भुत युद्ध | अर्जुन के द्वारा अश्वत्थामा की पराजय | अर्जुन के द्वारा दण्डधार का वध | अर्जुन के द्वारा दण्ड का वध | अर्जुन के द्वारा संशप्तक सेना का संहार | श्रीकृष्ण का अर्जुन को युद्धस्थल का दृश्य दिखाते हुए उनकी प्रशंसा करना | पाण्ड्य नरेश का कौरव सेना के साथ युद्धारम्भ | अश्वत्थामा के द्वारा पाण्ड्य नरेश का वध | कौरव-पांडव दलों का भयंकर घमासान युद्ध | पांडव सेना पर भयानक गजसेना का आक्रमण | पांडवों द्वारा बंगराज तथा अंगराज का वध | कौरवों की गजसेना का विनाश और पलायन | सहदेव के द्वारा दु:शासन की पराजय | नकुल और कर्ण का घोर युद्ध | कर्ण के द्वारा नकुल की पराजय | कर्ण के द्वारा पांचाल सेना का संहार | युयुत्सु और उलूक का युद्ध तथा युयुत्सु का पलायन | शतानीक और श्रुतकर्मा का युद्ध | सुतसोम और शकुनि का घोर युद्ध | कृपाचार्य से धृष्टद्युम्न का भय | कृतवर्मा के द्वारा शिखण्डी की पराजय | अर्जुन द्वारा श्रुतंजय, सौश्रुति तथा चन्द्रदेव का वध | अर्जुन द्वारा सत्यसेन का वध तथा संशप्तक सेना का संहार | युधिष्ठिर और दुर्योधन का युद्ध | उभयपक्ष की सेनाओं का अमर्यादित भयंकर संग्राम | युधिष्ठिर के द्वारा दुर्योधन की पराजय | कर्ण और सात्यकि का युद्ध | अर्जुन के द्वारा कौरव सेना का संहार और पांडवों की विजय | कौरवों की रात्रि में मन्त्रणा | धृतराष्ट्र के द्वारा दैव की प्रबलता का प्रतिपादन | संजय द्वारा धृतराष्ट्र पर दोषारोप | कर्ण और दुर्योधन की बातचीत | दुर्योधन की शल्य से कर्ण का सारथि बनने के लिए प्रार्थना | कर्ण का सारथि बनने के विषय में शल्य का घोर विरोध करना | शल्य द्वारा कर्ण का सारथि कर्म स्वीकार करना | दुर्योधन द्वारा शल्य से त्रिपुरों की उत्पत्ति का वर्णन करना | इंद्र आदि देवताओं का शिव की शरण में जाना | इंद्र आदि देवताओं द्वारा शिव की स्तुति करना | देवताओं की शिव से त्रिपुरों के वध हेतु प्रार्थना | दुर्योधन द्वारा शल्य को शिव के विचित्र रथ का विवरण सुनाना | देवताओं का ब्रह्मा को शिव का सारथि बनाना | शिव द्वारा त्रिपुरों का वध करना | परशुराम द्वारा कर्ण को दिव्यास्त्र प्राप्ति का वर्णन | शल्य और दुर्योधन का वार्तालाप | कर्ण का सारथि होने के लिए शल्य की स्वीकृति | कर्ण का युद्ध हेतु प्रस्थान और शल्य से उसकी बातचीत | कौरव सेना में अपशकुन | कर्ण की आत्मप्रशंसा | शल्य द्वारा कर्ण का उपहास और अर्जुन के बल-पराक्रम का वर्णन | कर्ण द्वारा श्रीकृष्ण-अर्जुन का पता देने वाले को पुरस्कार देने की घोषणा | शल्य का कर्ण के प्रति अत्यन्त आक्षेपपूर्ण वचन कहना | कर्ण का शल्य को फटकारना | कर्ण द्वारा मद्रदेश के निवासियों की निन्दा | कर्ण द्वारा शल्य को मार डालने की धमकी देना | शल्य का कर्ण को हंस और कौए का उपाख्यान सुनाना | शल्य द्वारा कर्ण को श्रीकृष्ण और अर्जुन की शरण में जाने की सलाह | कर्ण का शल्य से परशुराम द्वारा प्राप्त शाप की कथा कहना | कर्ण का अभिमानपूर्वक शल्य को फटकारना | कर्ण का शल्य से ब्राह्मण द्वारा प्राप्त शाप की कथा कहना | कर्ण का आत्मप्रशंसापूर्वक शल्य को फटकारना | कर्ण द्वारा मद्र आदि बाहीक देशवासियों की निन्दा | कर्ण का मद्र आदि बाहीक निवासियों के दोष बताना | शल्य का कर्ण को उत्तर और दुर्योधन का दोनों को शान्त करना | कर्ण द्वारा कौरव सेना की व्यूह रचना | युधिष्ठिर के आदेश से अर्जुन का आक्रमण | शल्य द्वारा पांडव सेना के प्रमुख वीरों का वर्णन | शल्य द्वारा अर्जुन की प्रशंसा | कौरव-पांडव सेना का भयंकर युद्ध तथा अर्जुन और कर्ण का पराक्रम | कर्ण द्वारा कई योद्धाओं सहित पांडव सेना का संहार | भीम द्वारा कर्णपुत्र भानुसेन का वध | नकुल और सात्यकि के साथ वृषसेन का युद्ध | कर्ण का राजा युधिष्ठिर पर आक्रमण | कर्ण और युधिष्ठिर का संग्राम तथा कर्ण की मूर्छा | कर्ण द्वारा युधिष्ठिर की पराजय और तिरस्कार | पांडवों के हज़ारों योद्धाओं का वध | रक्त नदी का वर्णन और पांडव महारथियों द्वारा कौरव सेना का विध्वंस | कर्ण और भीमसेन का युद्ध | कर्ण की मूर्छा और शल्य का उसे युद्धभूमि से हटा ले जाना | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के छ: पुत्रों का वध | भीम और कर्ण का घोर युद्ध | भीम के द्वारा गजसेना, रथसेना और घुड़सवारों का संहार | उभयपक्ष की सेनाओं का घोर युद्ध | कौरव-पांडव सेनाओं का घोर युद्ध और कौरव सेना का व्यथित होना | अर्जुन द्वारा दस हज़ार संशप्तक योद्धाओं और उनकी सेना का संहार | कृपाचार्य द्वारा शिखण्डी की पराजय | कृपाचार्य द्वारा सुकेतु का वध | धृष्टद्युम्न के द्वारा कृतवर्मा की पराजय | अश्वत्थामा का घोर युद्ध और सात्यकि के सारथि का वध | युधिष्ठिर का अश्वत्थामा को छोड़कर दूसरी ओर चले जाना | नकुल-सहदेव के साथ दुर्योधन का युद्ध | धृष्टद्युम्न से दुर्योधन की पराजय | कर्ण द्वारा पांचाल सेना सहित योद्धाओं का संहार | भीम द्वारा कौरव योद्धाओं का सेना सहित विनाश | अर्जुन द्वारा संशप्तकों का वध | अश्वत्थामा का अर्जुन से घोर युद्ध करके पराजित होना | दुर्योधन का सैनिकों को प्रोत्साहन देना और अश्वत्थामा की प्रतिज्ञा | अर्जुन का श्रीकृष्ण से युधिष्ठिर के पास चलने का आग्रह | श्रीकृष्ण का अर्जुन को युद्धभूमि का दृश्य दिखाते हुए रथ को आगे बढ़ाना | धृष्टद्युम्न और कर्ण का युद्ध | अश्वत्थामा का धृष्टद्युम्न पर आक्रमण | अर्जुन द्वारा धृष्टद्युम्न की रक्षा और अश्वत्थामा की पराजय | श्रीकृष्ण का अर्जुन से दुर्योधन के पराक्रम का वर्णन | श्रीकृष्ण का अर्जुन से कर्ण के पराक्रम का वर्णन | श्रीकृष्ण का अर्जुन को कर्णवध हेतु उत्साहित करना | श्रीकृष्ण का अर्जुन से भीम के दुष्कर पराक्रम का वर्णन | कर्ण द्वारा शिखण्डी की पराजय | धृष्टद्युम्न और दु:शासन तथा वृषसेन और नकुल का युद्ध | सहदेव द्वारा उलूक की तथा सात्यकि द्वारा शकुनि की पराजय | कृपाचार्य द्वारा युधामन्यु की एवं कृतवर्मा द्वारा उत्तमौजा की पराजय | भीम द्वारा दुर्योधन की पराजय तथा गजसेना का संहार | युधिष्ठिर पर कौरव सैनिकों का आक्रमण | कर्ण द्वारा नकुल-सहदेव सहित युधिष्ठिर की पराजय | युधिष्ठिर का अपनी छावनी में जाकर विश्राम करना | अर्जुन द्वारा अश्वत्थामा की पराजय | पांडवों द्वारा कौरव सेना में भगदड़ | कर्ण द्वारा भार्गवास्त्र से पांचालों का संहार | श्रीकृष्ण और अर्जुन का भीम को युद्ध का भार सौंपना | श्रीकृष्ण और अर्जुन का युधिष्ठिर के पास जाना | युधिष्ठिर का अर्जुन से भ्रमवश कर्ण के मारे जाने का वृत्तान्त पूछना | अर्जुन का युधिष्ठिर से कर्ण को न मार सकने का कारण बताना | अर्जुन द्वारा कर्णवध हेतु प्रतिज्ञा | युधिष्ठिर का अर्जुन के प्रति अपमानजनक क्रोधपूर्ण वचन | अर्जुन का युधिष्ठिर के वध हेतु उद्यत होना | श्रीकृष्ण का अर्जुन को बलाकव्याध और कौशिक मुनि की कथा सुनाना | श्रीकृष्ण का अर्जुन को धर्म का तत्त्व बताकर समझाना | श्रीकृष्ण का अर्जुन को प्रतिज्ञाभंग, भ्रातृवध तथा आत्मघात से बचाना | श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को सान्त्वना देकर संतुष्ट करना | अर्जुन से श्रीकृष्ण का उपदेश | अर्जुन और युधिष्ठिर का मिलन | अर्जुन द्वारा कर्णवध की प्रतिज्ञा और युधिष्ठिर का आशीर्वाद | श्रीकृष्ण और अर्जुन की रणयात्रा | अर्जुन को मार्ग में शुभ शकुन संकेतों का दर्शन | श्रीकृष्ण का अर्जुन को प्रोत्साहन देना | श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन के बल की प्रशंसा | श्रीकृष्ण का अर्जुन को कर्णवध हेतु उत्तेजित करना | अर्जुन के वीरोचित उद्गार | कौरव-पांडव सेना में द्वन्द्वयुद्ध तथा सुषेण का वध | भीम का अपने सारथि विशोक से संवाद | अर्जुन और भीम द्वारा कौरव सेना का संहार | भीम द्वारा शकुनि की पराजय | धृतराष्ट्रपुत्रों का भागकर कर्ण का आश्रय लेना | कर्ण के द्वारा पांडव सेना का संहार और पलायन | अर्जुन द्वारा कौरव सेना का विनाश करके रक्त की नदी बहाना | अर्जुन का श्रीकृष्ण से रथ कर्ण के पास ले चलने के लिए कहना | श्रीकृष्ण और अर्जुन को आते देख शल्य और कर्ण की बातचीत | अर्जुन के द्वारा कौरव सेना का विध्वंस | अर्जुन का कौरव सेना को नष्ट करके आगे बढ़ना | अर्जुन और भीम के द्वारा कौरव वीरों का संहार | कर्ण का पराक्रम | सात्यकि के द्वारा कर्णपुत्र प्रसेन का वध | कर्ण का घोर पराक्रम | दु:शासन और भीमसेन का युद्ध | भीम द्वारा दु:शासन का रक्तपान और उसका वध | युधामन्यु द्वारा चित्रसेन का वध तथा भीम का हर्षोद्गार | भीम के द्वारा धृतराष्ट्र के दस पुत्रों का वध | कर्ण का भय और शल्य का समझाना | नकुल और वृषसेन का युद्ध | कौरव वीरों द्वारा कुलिन्दराज के पुत्रों और हाथियों का संहार | अर्जुन द्वारा वृषसेन का वध | कर्ण से युद्ध के विषय में श्रीकृष्ण और अर्जुन की बातचीत | अर्जुन का कर्ण के सामने उपस्थित होना | कर्ण और अर्जुन का द्वैरथ युद्ध में समागम | कर्ण-अर्जुन युद्ध की जय-पराजय के सम्बंध में प्राणियों का संशय | ब्रह्मा और शिव द्वारा अर्जुन की विजय घोषणा | कर्ण की शल्य से और अर्जुन की श्रीकृष्ण से वार्ता | अर्जुन के द्वारा कौरव सेना का संहार | अश्वत्थामा का दुर्योधन से संधि के लिए प्रस्ताव | दुर्योधन द्वारा अश्वत्थामा के संधि प्रस्ताव को अस्वीकार करना | कर्ण और अर्जुन का भयंकर युद्ध | अर्जुन के बाणों से संतप्त होकर कौरव वीरों का पलायन | श्रीकृष्ण के द्वारा अर्जुन की सर्पमुख बाण से रक्षा | कर्ण के रथ का पहिया पृथ्वी में फँसना | अर्जुन से बाण न चलाने के लिए कर्ण का अनुरोध | श्रीकृष्ण का कर्ण को चेतावनी देना | अर्जुन के द्वारा कर्ण का वध | कर्णवध पर कौरवों का शोक तथा भीम आदि पांडवों का हर्ष | कर्णवध से दु:खी दुर्योधन को शल्य द्वारा सांत्वना | भीम द्वारा पच्चीस हज़ार पैदल सैनिकों का वध | अर्जुन द्वारा रथसेना का विध्वंस | दुर्योधन द्वारा कौरव सेना को रोकने का विफल प्रयास | शल्य के द्वारा रणभूमि का दिग्दर्शन | श्रीकृष्ण और अर्जुन का शिविर की ओर गमन | कौरव सेना का शिबिर की ओर पलायन | श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को कर्णवध का समाचार देना | कर्णवध से प्रसन्न युधिष्ठिर द्वारा श्रीकृष्ण और अर्जुन की प्रशंसा | कर्णपर्व के श्रवण की महिमा

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः