शल्य के द्वारा रणभूमि का दिग्दर्शन

महाभारत कर्ण पर्व के अंतर्गत 94वें अध्याय में शल्य ने दुर्योधन से रणभूमि के दिग्दर्शन का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]

शल्य के द्वारा रणभूमि का दिग्दर्षन दुर्योधन को बताना

संजय कहते हैं- राजन! आपके पुत्र द्वारा सेना को पुनः लौटाने का प्रयत्न होता देख उस समय भयभीत और मूढ़चित्त हुए मद्रराज शल्य ने दुर्योधन से इस प्रकार कहा। शल्य बोले- वीर नरेश! मारे गये मनुष्यों, घोड़ों और हाथियों की लाशों से भरा हुआ यही युद्धस्थल कैसा भयंकर जान पड़ता है? पर्वताकार गजराज, जिसके मस्तकों से मद की धारा फूटकर बहती थी, एक ही साथ बाणों की मार से शरीर विदीर्ण हो जाने के कारण धराशायी हो गये हैं। उनमें से कितने ही वेदना से छटपटा रहे हैं, कितनों के प्राण निकल गये हैं। उन पर बैठे हुए सवारों के कवच, अस्त्र-शस्त्र, ढाल और तलवार आदि नष्ट हो गये हैं। इन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता है मानो वज्र के आघात से बड़े-बड़े़ पर्वत ढह गये हों और उनके प्रस्तर खण्ड, विशाल, वृक्ष तथा औषध समूह छिन्न-भिन्न हो गये हों।

उन गजराजों के घंटा, अंकुश, तोमर और ध्वज आदि सभी वस्तुएँ बाणों के आघात से टूट-फूटकर बिखर गयी हैं। उन हाथियों के ऊपर सोने की जाली से युक्त आवरण पड़ा है। उनकी लाशें रक्त के प्रवाह से नहा गयी हैं। घोडे़ बाणों से विदीर्ण होकर गिरे हैं, वेदना से व्यथित हो उच्छ्वास लेते और मुख से रक्त वमन करते हैं। वे दीनतापूर्ण आर्तनाद कर रहे हैं। उनकी आँखे घूम रही है। वे धरती में दाँत गड़ाते और करूण चीत्कार करते हैं। हाथी, घोडे़, पैदल सैनिक तथा वीर समुदाय बाणों से क्षत-विक्षत हो मरे पड़े हैं। किन्ही की साँसें कुछ-कुछ चल रही हैं और कुछ लोगों के प्राण सर्वथा निकल गये हैं। हाथी, घोडे़, मनुष्य और रथ कुचल दिये गये हैं। इन सबकी कांति मन्द पड़ गयी है। इसके कारण उस महासमर की भूमि निश्चय ही वैतरणी के समान प्रतीत होती है। हाथियों के शुण्डदण्ड और शरीर छिन्न-भिन्न हो गये हैं। कितने ही हाथी पृथ्वी पर गिरकर काँप रहे हैं, कितनों के दाँत टूट गये हैं और वे खून उगलते तथा छटपटाते हुए वेदना ग्रस्त हो करूण स्वर में कराह रहे हैं। बड़े-बड़े़ रथों के समूह इस रणभूमि में बादलों के समान छा गये है। उनके पहिये, बाण, जूए और बन्धन कट गये हैं। तरकस, ध्वज और पताकाएँ फेंकी पड़ी हैं; सोने के जाल से आवृत हुए वे रथ बहुत ही क्षतिग्रस्त हो गये हैं। हाथी, रथ और घोड़ों पर सवार होकर युद्ध करने वाले यशस्वी योद्धा और पैदल वीर सामने लड़ते हुए शत्रुओं के हाथ से मारे गये हैं। उनके कवच, आभूषण, वस्त्र और आयुध सभी छिन्न-भिन्न होकर बिखर गये हैं। इस प्रकार शांत पड़े हुए आपके प्राणहीन योद्धाओं से यह पृथ्वी पट गयी है। बाणों के प्रहार से घायल होकर गिरे हुए सहस्रों महाबली योद्धा आकाश से नीचे गिरे हुए अत्यन्त दीप्तिमान एवं निर्मल प्रभा से प्रकाशित ग्रहों के समान दिखायी देते हैं और उनसे ढकी हुई यह भूमि रात के समय उन ग्रहों से व्याप्त हुए आकाश के सदृश सुशोभित होती है।

कर्ण और अर्जुन के युद्ध से रणभूमि की स्थिति

कर्ण और अर्जुन के बाणों से जिनके अंग-अंग छिन्न-भिन्न हो गये हैं, उन मारे गये कौरव-सृंजय वीरों की लाशों से भरी हुई भूमि यज्ञ के स्थापित हुई अग्नियों के द्वारा यज्ञभूमि के समान सुशोभित होती है। उनमें से कितने ही वीरों की चेतना लुप्त हो गयी है और कितने ही पुनः साँस ले रहे हैं।[1] कर्ण और अर्जुन के हाथों से छूटे हुए बाण हाथी, घोडे़ और मनुष्यों के शरीरों को विदीर्ण करके उनके प्राण निकालकर तुरन्त पृथ्वी में घुस गये थे, मानो अत्यन्त लाल रंग के विशाल सर्प अपनी बिल में जा घुसे हों। नरेन्द्र! अर्जुन और कर्ण के बाणों द्वारा मारे गये हाथी, घोडे़ एवं मनुष्यों से तथा बाणों से नष्ट-भ्रष्ट होकर गिर पड़े। रथों से इस पृथ्वी पर चलना-फिरना असम्भव हो गया है। सजे-सजाते रथ बाणों के आघात से मथ डाले गये हैं। उनके साथ जो योद्धा, शस्त्र, श्रेष्ठ आयुध और ध्वज आदि थे, उनकी भी यही दशा हुई है। उनके पहिये, बन्धन-रज्जु धुरे, जूए और त्रिवेणु काष्ठ के भी टुकडे़-टुकडे़ हो गये हैं। उन पर जो अस्त्र-शस्त्र रखे गये थे, वे सब दूर जा पड़े हैं। सारी सामग्री नष्ट हो गयी है।[2]

अनुकर्ष, तूणीर और बन्धनरज्जु-ये सब-के-सब नष्ट-भ्रष्ट हो गये हैं। उन रथों की बैठकें टूट-फूट गयी हैं। सुवर्ण और मणियों में विभूषित उन रथों द्वारा आच्छादित हुई पृथ्वी शरद् ऋतु के बादलों से ढके हुए आकाश के समान जान पड़ती है। जिनके स्वामी (रथी) मारे गये हैं, राजाओं के उन सुसज्जित रथों को, जब वेगशाली घोडे़ खींच लिये जाते थे और झुंड-के-झुंड मनुष्य, हाथी, साधारण रथ और अश्व भी भागे जा रहे थे, उस समय उनके द्वारा शीघ्रतापूर्वक भागने वाले बहुत-से मनुष्य कुचलकर चूर-चूर हो गये हैं। सुवर्ण-पत्र जडे़ गये परिघ, फरसे, तीखे शूल, मूसल, मुद्गर, म्यान से बाहर निकाली हुई चमचमाती तलवारें और स्वर्णजटित गदाएँ जहाँ-जहाँ बिखरी पड़ी हैं। सुवर्णमय अंगदों बाजूबंद से विभूषित धनुष, सोने के विचित्र पंख वाले बाण, ऋष्टि, पानीदार एवं कोशरहित निर्मल खड्ग तथा सुनहरे डंडो से ययुक्त प्रास, छत्र, चँवर, शंख और विचित्र मालाएँ छिन्न-भिन्न होकर फैंकी पड़ी हैं। राजन! हाथी की पीठ पर बिछाये जाने वाले कम्बल या झूल, पताका, वस्त्र, आभूषण, किरीटमाला, उज्ज्वल मुकुट, श्वेत चामर, मूँग और मोतियों के हार-ये सब-के-सब इधर उधर बिखरे पड़े हैंशिरोभूषण, केयूर, सुन्दर अंगद, गले के हार, पदक, सोने की जंजीर, उत्तम मणि, हीरे, सुवर्ण तथा मुक्ता आदि छोटे बड़े मांगलिक रत्न, अत्यन्त सुख भोगने के योग्य शरीर, चन्द्रमा को भी लज्जित करने वाले मुख से युक्त मस्तक, देह, भोग, आच्छादन-वस्त्र तथा मनोरम सुख- इन सबको त्यागकर स्वधर्म की पराकष्ठ का पालन करते हुए सम्पूर्ण लोकों में अपने यश का विस्तार करके वे वीर सैनिक दिव्य लोकों में पहुँच गये हैं।

कौरव योद्धाओं द्वारा दुर्योधन को सात्वना देना

दूसरों को सम्मान देने वाले दुर्योधन! अब लौटो। इन सैनिकों को भी जाने दो। शिविर में चलो। प्रभो! ये भगवान सूर्य भी अस्ताचल पर लटक रहे हैं। नरेन्द्र! तुम्हीं इस नर संहार के प्रधान कारण हो। दुर्योधन से ऐसा कहकर राजा शल्य चुप हो गये। उनका चित्त शोक से व्याकुल हो रहा था। दुर्योधन भी आर्त होकर हा कर्ण! हा कर्ण! पुकारने लगा। वह सुध-बुध खो बैठा था। उसके नेत्रों से वेगपूर्वक आँसुओं की अविरल धारा बह रही थी। द्रोणपुत्र अश्वत्थामा तथा अन्य सभी नरेश बारंबार आकर दुर्योधन को सान्त्वना देते और अर्जुन के महान ध्वज को, जो उनके उज्ज्वल यश से प्रकाशित हो रहा था, देखते हुए फिर लौट जाते थे।

कर्णवध से कौरव सेना का भयभीत होकर शिविर में जाना

मनुष्यों, घोड़ों और हाथियों के शरीर से बहते हुए रक्त की धारा से वहाँ ही भूमि ऐसी सिंच गयी थी कि लाल वस्त्र, लाल फूलों की माला तथा तपाये हुए सुवर्ण के आभूषण धारण करके सबके सामने आयी हुई सर्वगम्या नारी (वेश्या) के समान प्रतीत होती थी।[2] राजन! अत्यन्त शोभा पाने वाले उस रौद्रमुहुर्त (सायंकाल) में, रूधिर से जिसका स्वरूप छिप गया था, उस भूमि को देखते हुए कौरव सैनिक वहाँ ठहर न सके। वे सब-के-सब देवलोक की यात्रा के लिये उद्यत थे। महाराज! समस्त कौरव कर्ण के वध से अत्यन्त दुखी हो हा कर्ण! हा कर्ण! की रट लगाते और लाला सूर्य की ओर देखते हुए बड़े वेग से शिविर की ओर चले। गाण्डीव धनुष से छूटे हुए सुवर्णमय पंख वाले और शिला पर तेज किये हुए बाणों से कर्ण का अंग-अंग बिंध गया था। उन बाणों की पाँखें रक्त में डूबी हुई थीं। उनके द्वारा युद्धस्थल में पड़ा हुआ कर्ण मर जाने पर भी अंशुमाली सूर्य के समान सुशोभित हो रहा था। भक्तों पर कृपा करने वाले भगवान सूर्य खून से भीगे हुए कर्ण के शरीर का किरणों द्वारा स्पर्श करके रक्त के समान ही लालरूप धारण कर मानो स्नान करने की इच्छा से पश्चिम समुद्र की ओर जा रहे थे। इस युद्ध के ही विषय-विचार करते हुए देवताओं तथा ऋषियों के समुदाय वहाँ से प्रस्थित हो अपने-अपने स्थान को चल दिये और इसी विषय का चिन्तन करते हुए अन्य लोग भी सुखपूर्वक अंतरिक्ष अथवा भूतल पर अपने-अपने निवास स्थान को चले गये।[3]

रणभूमि में मरे हुए कर्ण की अद्भुत शोभा

कौरव तथा पाण्डव पक्ष के उन प्रमुख वीर अर्जुन और कर्ण वह अद्भुत तथा प्राणियों के लिये भयंकर युद्ध देखकर सब लोग आश्चर्यचकित हो उनकी प्रशंसा करते हुए वहाँ से चले गये। राधापुत्र कर्ण का कवच बाणों से कट गया था। उसके सारे वस्त्र खून में भीग गये थे और प्राण भी निकल गये थे तो भी उसे शोभा छोड़ नहीं रही थी। वह तपाये हुए सुवर्ण तथा अग्नि और सूर्य के समान कांतिमान था। उस शूरवीर को देखकर सब प्राणी जीवित-सा समझते थे। महाराज! जैसे सिंह से दूसरे जंगली पशु सदा डरते रहते हैं, उसी प्रकार युद्धस्थल में मारे गये सूतपुत्र से भी समस्त योद्धा भय मानते थे। पुरुषसिंह नरेश! यह मारा जाने पर भी जीवित-सा दिखता था, महामना कर्ण के शरीर में मरने पर भी कोई विकार नहीं हुआ था। राजन! नाना प्रकार के आभूषणों से विभूषित तथा तपाये हुए सुवर्ण का अंगद (बाजूबंद) धारण किये वैकर्तन कर्ण मारा जाकर अंकुरयुक्त वृक्ष के समान पड़ा था। नरव्याघ्र नरेश! उत्तम सुवर्ण के समान कांतिमान कर प्रज्वलित अग्नि के तुल्य प्रकाशित होता था; परंतु पार्थ के बाणरूपी जल से वह बुझ गया। जैसे प्रज्वलित आग जल को पाकर बुझ जाती है, उसी प्रकार समरांगण में कर्णरूपी अग्नि को अर्जुनरूपी मेघ ने बुझा दिया।

इस पृथ्वी पर उत्तम युद्ध के द्वारा अपने लिये उत्तम यश का उपार्जन करके, बाणों की झड़ी लगाकर, दसों दिशाओं को संतप्त करके, पुत्रसहित कर्ण अर्जुनके तेज से शांत हो गया। अस्त्र के तेज से सम्पूर्ण पाण्डव और पांचालों को संताप देकर, बाणों की वर्षा के द्वारा शत्रुसेना को तपाकर तथा सहस्र किरणों वाले तेजस्वी सूर्य के समान सम्पूर्ण संसार में अपना प्रताप बिखेर कर वैकर्तन कर्ण पुत्र और वाहनों सहित मारा गया। यायकरूपी पक्षियों के समुदाय के लिये जो कल्पवृक्ष के समान था, वह कर्ण मार गिराया गया। जो माँगने पर सदा ही कहता था कि मैं दूँगा। श्रेष्ठ याचकों के माँगने पर जिसके मुँह से कभी नाही नहीं निकाल, वह धर्मात्मा कर्ण द्वैरथ युद्ध में मारा गया।[3] जिस महामनस्वी कर्ण का सारा धन ब्राह्मणों के अधीन था, ब्राह्मणों के लिये जिसका कुछ भी, अपना जीवन भी अदेय नहीं था, जो स्त्रियों को सदा प्रिय लगता था और प्रतिदिन दान किया करता था, वह महारथी कर्ण पार्थ के बाणों से दग्ध हो परम गति को प्राप्त हो गया। राजन! जिसका सहारा लेकर आपके पुत्र ने पाण्डवों के साथ वैर किया था, वह कर्ण आपके पुत्रों की विजय की आशा, सुख और कवच (रक्षा) लेकर स्वर्गलोक को चला गया।[4]

कर्ण के मारे जाने पर नदियों का प्रवाह रुक गया, सूर्य देव अस्ताचल को चले गये और अग्नि तथा सूर्य के समान कांतिमान मंगल एवं सोमपुत्र बुध तिरछे होकर उदित हुए। आकाश फटने-सा लगा, पृथ्वी चीत्कार कर उठी, भयानक और रूखी हवा चलने लगी, सम्पूर्ण दिशाएँ धूम-सहित अग्नि से प्रज्वलित-सी होने लगीं और महासागर भयंकर स्वर में गर्जने तथा विक्षुब्ध होने लगे। वनोंसहित पर्वतसमूह काँपने लगे, सम्पूर्ण भूत समुदाय व्यथित हो उठे। प्रजानाथ! बृहस्पति नामक ग्रह रोहिणी नक्षत्र को सब ओर से घेरकर चन्द्रमा और सूर्य के समान प्रकाशित होने लगा। कर्ण के मारे जाने पर दिशाओं के कोने-कोने में आग सी लग गयी, आकाश में अँधेरा छा गया, धरती डोलने लगी, अग्नि के समान प्रकाशमान उल्का गिरने लगी और निशाचर प्रसन्न हो गये। जिस समय अर्जुन ने क्षुर के द्वारा कर्ण के चन्द्रमा के समान कांतिमान मुख वाले मस्तक को काट गिराया, उस समय आकाश में देवताओं के मुख से निकला हुआ हाहाकार का शब्द गूँज उठा।[4]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 94 श्लोक 1-11
  2. 2.0 2.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 94 श्लोक 12-26
  3. 3.0 3.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 94 श्लोक 27-45
  4. 4.0 4.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 94 श्लोक 46-61

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दु:खी दुर्योधन को शल्य द्वारा सांत्वना | भीम द्वारा पच्चीस हज़ार पैदल सैनिकों का वध | अर्जुन द्वारा रथसेना का विध्वंस | दुर्योधन द्वारा कौरव सेना को रोकने का विफल प्रयास | शल्य के द्वारा रणभूमि का दिग्दर्शन | श्रीकृष्ण और अर्जुन का शिविर की ओर गमन | कौरव सेना का शिबिर की ओर पलायन | श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को कर्णवध का समाचार देना | कर्णवध से प्रसन्न युधिष्ठिर द्वारा श्रीकृष्ण और अर्जुन की प्रशंसा | कर्णपर्व के श्रवण की महिमा

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