शल्य का कर्ण के प्रति अत्यन्त आक्षेपपूर्ण वचन कहना

महाभारत कर्ण पर्व के अंतर्गत 39वें अध्याय में शल्य का कर्ण के प्रति अत्यन्त आक्षेपपूर्ण वचन कहने का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

शल्य का कर्ण के प्रति आक्षेप पूर्ण वचन कहना

संजय कहते हैं- राजन! इस प्रकार हर्ष से उत्साहित हुई सेना में जाते और बढ़-बढ़कर बातें बनाते हुए शत्रुसूदन राधापुत्र महारथी कर्ण से मद्रराज शल्य ने हँसकर इस प्रकार कहा। शल्य बोले- सूतपुत्र! तुम किसी परुष को हाथी के समान हृष्ट-पुष्ट छः बैलों से जुता हुआ सोने का रथ न दो। आज अवश्य ही अर्जुन को देखोगे। राधापुत्र तुम मूखर्ता से ही यहाँ कुबेर के समान धन लुटा रहे हो, आज अर्जुन को तो तुम बिना यत्न किए ही देख लोगे। मूढ़ पुरुषों के समान तुम अपना बहुत कुछ धन जो दूसरों को दे रहे हो, इससे जान पड़ता है कि अपात्र को धन का दान देने से जो दोष पैदा होते हैं, उन्हें मोहवश तुम नहीं समझ रहे हो। सूत! तुम जो बहुत धन देने की यहाँ घोषणा कर रहे हो, निश्चय ही उसके द्वारा नाना प्रकार के यज्ञों का अनुष्ठान कर सकते हो; अतः तुम उन धन-वैभवों द्वारा यज्ञों का ही अनुष्ठान करो। और जो तुम मोहवश श्रीकृष्ण तथा अर्जुन को मारना चाहते हो, वह मनसूबा तो व्यर्थ ही है; क्योंकि हमने यह बात कभी नहीं सुनी है कि किसी गीदड़ ने युद्ध में दो सिंहों को मार गिराया हो। तुम ऐसी चीज चाहते हो, जिसकी अब तक किसी ने इच्छा नहीं की थी। जान पड़ता हैं तुम्हारे कोई सुहृद नहीं है, जो शीघ्र ही आकर तुम्हें जलती आग में गिरने से रोक नहीं रहे हैं। तुम्हें कर्तव्य और अकर्तव्य का कुछ भी ज्ञान नहीं है। निःसंदेह तुम्हें काल ने पका दिया है। (अतः तुम पके हुए फल के समान गिरने वाले ही हो); अन्यथा जो जीवित रहना चाहता है, ऐसा कौन पुरुष ऐसी बहुत-सी-न सुनने योग्य अटपटांग बातें कह सकता है? जैसे कोई गले में पत्थर बाँधकर दोनों हाथों से समुद्र पार करना चाहे अथवा पहाड़ की चोटी से पृथ्वी पर कूदने की इच्छा करे, ऐसी ही तुम्हारी सारी चेष्टा और अभिलाषा है। यदि तुम कल्याण प्राप्त करना चाहते हो तो व्यूह रचना पूर्वक खड़े हुए समस्त सैनिकों के साथ सुरक्षित रहकर अर्जुन से युद्ध करो। दुर्योधन के हित के लिए ही मै ऐसा कह रहा हूँ, हिंसा भाव से नहीं। यदि तुम्हें जीने की इच्छा है तो मेरे इस कथन पर विश्वास करो।

कर्ण बोला- शल्य! मैं अपने बाहुबल का भरोसा करके रणक्षेत्र में अर्जुन को पाना चाहता हूँ; परंतु तुम तो मुँह से मित्र बने हुए वास्तव में शत्रु हो, जो मुझे यहाँ डराना चाहते हो। परंतु मुझे इस अभिलाषा से आज कोई भी पीछे नहीं लौटा सकता। वज्र उठाये हुए इन्द्र भी मुझे किसी तरह इस निश्चय से डिगा नहीं सकते, फिर मनुष्य की तो बात ही क्या है?

शल्य का अर्जुन के बल का वर्णन कर्ण से करना

संजय कहते हैं- राजन! कर्ण की यह बात समाप्त होते ही मद्रराज शल्य उसे अत्यन्त कुपित करने की इच्छा से पुन: इस प्रकार उत्तर देने लगे- कर्ण! अर्जुन के वेग से युक्त हो उनकी प्रत्यंचा से प्रेरित और सुरक्षित हाथों से छोड़े हुए तीखी धार वाले कंकपत्र विभूषित बाण जब तुम्हारे शरीर में घुसने लगेंगे, तब जो तुम अर्जुन को पूछते फिरते हो, इसके लिये पश्चाताप करोगे। सूतपुत्र! जब सव्यसाची कुन्ती कुमार अर्जुन अपने हाथ में दिव्य धनुष लेकर शत्रुसेना को तपाते हुए पैने बाणों द्वारा तुम्हें रौंदने लगेंगे, तब तुम्हें अपने किये पर पछतावा होगा। जैसे अपनी माँ की गोद में सोया हुआ कोई बालक चन्द्रमा को पकड़ लाना चाहता हो, उसी प्रकार तुम भी रथ पर बैठे हुए तेजस्वी अर्जुन को आज मोहवश परास्त करना चाहते हो। कर्ण! अर्जुन का पराक्रम अत्यन्त तीखी धारवाले त्रिशूल के समान है। उन्हीं अर्जुन के साथ आज जो तुम युद्ध करना चाहते हो, वह दूसरे शब्दों में यों है कि तुम पैनी धार चाले त्रिशूल को लेकर उसी से अपने सारे अंगों का रगड़ना या खुजलाना चाहते हो।[1]

सूतपुत्र! जैसे बालक, मूढ़ और वेग से चौकड़ी भरने-वाला क्षुद्र मृग क्रोध में भरे हुए विशालकाय, केसर युक्त सिंह को ललकारे, तुम्हारा आज यह अर्जुन का युद्ध के लिए आह्वान करना वैसा ही है। सूतपुत्र! तुम महापराक्रमी राजकुमार अर्जुन का आह्वानन करो। जैसे वन में मांस-भक्षण से तृप्त हुआ गीदड़ महाबली सिंह के पास जाकर नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार तुम भी अर्जुन से भिड़कर विनाश के गर्त में न गिरो। कर्ण! जैसे कोई खरगोश ईषादण्ड के समान दाँतों वाले महान मदस्त्रावी गजराज को अपने साथ युद्ध के लिए बुलाता हो, उसी प्रकार तुम भी कुन्ती पुत्र धनंजय का रणक्षेत्र में आह्वान करते हो। तुम यदि पूर्णतः क्रोध में भरे हुए अर्जुन के साथ जूझना चाहते हो तो मूर्खतावश बिल में बैठे हुए महाविषैले काले सर्प को किसी काठ की छड़ी से बींध रहे हो। कर्ण! तुम मूर्ख हो; क्रोध में भरे हुए केसरी सिंह का अनादर करके गर्जना करे, उसी प्रकार तुम भी मनुष्यों में सिंह के समान पराक्रमी और क्रोध में भरे हुए पाण्डु कुमार अर्जुन का लंघन करके गरज रहे हो। कर्ण! जैसे कोई सर्प अपने पतन के लिए ही पक्षियों में श्रेष्ठ वेगशाली विनता नन्दन गरुड़ का आह्वान करता है, उसी प्रकार तुम भी अपने विनाश के लिये ही कुन्ती कुमार अर्जुन को ललकार रहे हो। अरे! तुम चन्द्रोदय के समय बढ़ते हुए, जल जन्तुओं से पूर्ण तथा उत्ताल तरंगों से व्याप्त अगाध जलराशि वाले भयंकर समुद्र को बिना किसी नाव के ही केवल दोनों हाथों के सहारे पार करना चाहते हो।[2]

शल्य का कर्ण को समझाना

बेटा कर्ण! दुन्दुभि की ध्वनि के समान जिसका कंठ स्वर गम्भीर है, जिसके सींग तीखे हैं तथा जो प्रहार करने में कुशल है, उस साँड के समान पराक्रमी पृथापुत्र अर्जुन को तुम युद्ध के लिए ललकार रहे हो। जैसे महाभयंकर महामेघ के मुकाबले में कोई मेंढक टर्र-टर्र कर रहा हो, उसी प्रकार तुम संसार में बाण रूपी जल की वर्षा करने वाले मानव मेघ अर्जुन को लक्ष्य करके गर्जना करते हो। कर्ण! जैसे अपने घर में बैठा हुआ कोई कुत्ता वन में रहने वाले बाघ की ओर भूँके, उसी प्रकार तुम भी नरव्याघ्र अर्जुन को लक्ष्य करके भूँक रहे हो। कर्ण! वन में खरगोशों के साथ रहने वाला गीदड़ भी जब तक सिंह को नहीं देखता, तब तक अपने को सिंह ही मानता रहता है। राधा नन्दन! उसी प्रकार तुम भी शत्रुओं का दमन करने वाले पुरुषसिंह अर्जुन को न देखने के कारण ही अपने को सिंह समझना चाहते हो। एक रथ पर बैठे हुए सूर्य और चन्द्रमा के समान सुशोभित श्रीकृष्ण और अर्जुन को जब तक तुम नहीं देख रहे हो, तभी तक अपने को बाघ माने बैठे हो। कर्ण! महासमर में जब तक गाण्डीव की टंकार नहीं सुनते हो, तभी तक तुम जैसा चाहो, बक सकते हो। रथ की घर्घराहट और धनुष की टंकार से दसों दिशाओं को निनादित करते हुए सिंह सदृश अर्जुन को जब दहाड़ते देखोगे, तब तुरंत गीदड़ बन जाओगे। ओ मूढ़! तुम सदा से ही गीदड़ हो और अर्जुन सदा से ही सिंह है। वीरों के प्रति द्वेष रखने के कारण ही तुम गीदड़ जैसे दिखाई देते हो। जैसे चूहा और बिलाव, कुत्ता और बाघ, गीदड़ और सिंह तथा खरगोश और हाथी अपनी निर्बलता और प्रबलता के लिये प्रसिद्ध है, उसी प्रकार तुम निर्बल हो और अर्जुन सबल है। जैसे झूठ और सच तथा विष और अमृत अपना अलग-अलग प्रभाव रखते हैं, उसी प्रकार तुम और अर्जुन भी अपने-अपने कर्मों के लिये सर्वत्र विख्यात हो।[2]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 39 श्लोक 1-17
  2. 2.0 2.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 39 श्लोक 18-35

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