अश्वत्थामा के द्वारा पाण्ड्य नरेश का वध

महाभारत कर्ण पर्व के अंतर्गत 20वें अध्याय में अश्वत्थामा के द्वारा पाण्ड्य नरेश के वध का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

संजय द्वारा धृतराष्ट्र के प्रश्न का उत्तर देना

धृतराष्ट्र ने पूछा- संजय! तुमने पाण्ड्य को पहले ही लोकविख्यात वीर बतलाया था; परंतु संग्राम में उनके किये हुए वीरोचित कर्म का वर्णन नहीं किया। आज उन प्रमुख वीर के पराक्रम, शिक्षा, प्रभाव, बल, प्रमाण और दर्प का विस्तारपूर्वक वर्णन करो।

संजय ने कहा- राजन! भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, कर्ण, अर्जुन तथा श्रीकृष्ण आदि जिन वीरों को आप पूर्ण विद्वान, धनुर्वेद में श्रेष्ठ तथा महारथी मानते हैं, इन सब महारथियों को जो अपने पराक्रम के समक्ष तुच्छ समझता था, जो किसी भी नरेश को अपने समान नहीं मानता था, जो द्रोण और भीष्म के साथ अपनी तुलना नहीं सह सकता था और जिसने श्रीकृष्ण तथा अर्जुन से भी अपने में तनिक भी न्यूनता मानने की इच्छा नहीं की, उसी सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ नृपशिरोमणि पाण्ड्य ने अपमानित हुए यमराज के समान कुपित हो कर्ण की सेना का वध आरम्भ किया। कौरव सेना में रथ, घोड़े और हाथियों की संख्या बढ़ी-चढ़ी थी, श्रेष्ठ पैदल सैनिकों से भी वह सेना भरी हुई थी, तथापि पाण्ड्य नरेश के द्वारा बलपूर्वक आहत होकर वह कुम्हार के चाक की भाँति चक्कर काटने लगी। जैसे वायु मेघों को उड़ा देती है, उसी प्रकार पाण्ड्य नरेश ने अच्छी तरह चलाये हुए बाणों द्वारा समस्त सैनिकों को घोड़े, सारथि, ध्वज और रथों से हीन कर दिया। उनके आयुधों और हाथियों को भी मार गिराया। जैसे पर्वतों का हनन करने वाले इन्द्र ने वज्र द्वारा पर्वतों पर आघात किया था, उसी प्रकार पाण्ड्य नरेश ने पाद रक्षकों सहित हाथियों और हाथी सवारों को ध्वज, पताका तथा आयुधों से वंचित करके मार डाला। शक्ति, प्रास और तरकसों सहित घुड़सवारों तथा घोड़ों को भी यमलोक पहुँचा दिया। पुलिन्द, खस, बाहीक, निषाद, आन्ध्र, कुन्तल, दक्षिणात्य तथा भोजप्रदेशीय रण कर्कश शूरवीरों को अपने बाणों द्वारा अस्त्र-शस्त्र तथा कवचों से हीन करके उनके प्राण हर लिए।

अश्वत्थामा का पाण्ड्य नरेश को युद्ध के लिये उद्यत करना

राजा पाण्ड्य को समरांगण में बिना किसी घबराहट के अपने बाणों द्वारा कौरवों की चतुरंगिणी सेना का विनाश करते देख अश्वत्थामा ने निर्भय होकर उनका सामना किया। साथ ही उन निर्भय नरेश को मधुर वाणी में सम्बोधित करके योद्धाओं में श्रेष्ठ अश्वत्थामा ने मुसकराकर युद्ध के लिए उनका आह्नान करते हुए निर्भीक के समान कहा- ‘राजन! कमलनयन! तुम्हारा कुल और शास्त्रज्ञान सर्वश्रेष्ठ है। तुम्हारा सुगठित शरीर वज्र के समान कान्तिमान है, तुम्हारे बल और पुरुषार्थ भी प्रसिद्ध हैं। ‘तुम्हारे धनुष की एक ही प्रत्यंचा एक ही समय तुम्हारी मुट्ठी में सटी हुई तथा गोलाकार फैली हुई दिखाई देती है। जब तुम अपनी दोनों बड़ी-बड़ी भुजाओं से विशाल धनुष को खींचने और उसकी टंकार करने लगते हो, उस समय महान मेघ के समान तुम्हारी बड़ी शोभा होती है। ‘जब तुम अपने शत्रुओं पर बड़े वेग से बाण-वर्षा करने लगते हो, उस समय मैं अपने सिवा दूसरे किसी वीर को ऐसा नहीं देखता, जो समरांगण में तुम्हारा सामना कर सके। तुम अकेले ही बहुत-से रथ, हाथी, पैदल और घोड़ों को मथ डालते हो। ठीक उसी तरह, जैसे वन में भयंकर बलशाली सिंह बिना किसी भय के मृग-समूहों का संहार कर डालता है। ‘राजन! तुम अपने रथ के गम्भीर घोष से आकाश और पृथ्वी को प्रतिध्वनित करते हुए शरत्काल में गर्जना करने वाले सस्यनाशक मेघ के समान जान पड़ते हो। अब तुम अपने तरकस से विषधर सर्पों के समान तीखे बाण लेकर जैसे महादेव जी के साथ अन्धकासुर ने संग्राम किया था, उसी प्रकार केवल मेरे साथ युद्ध करो।[1] अश्वत्थामा के ऐसा कहने पर पाण्ड्य नरेश बोले- ‘अच्छा ऐसा ही होगा। पहले तुम प्रहार करो।

अश्वत्थामा का पाण्ड्य नरेश के साथ युद्ध

‘इस प्रकार आक्षेप युक्त वचन सुनकर अश्वम्थामा ने उन पर अपने बाण का प्रहार किया। तब मलयध्वज पाण्ड्य नरेश ने कर्णी नामक बाण के द्वारा द्रोण पुत्र को बींध डाला। तब आचार्य प्रवर अश्वत्थामा ने अत्यन्त भयंकर तथा अग्निशिखा के समान तेजस्वी मर्मभेदी बाणों द्वारा पाण्ड्य नरेश को मुसकराते हुए घायल कर दिया। तत्पश्चात् अश्वत्थामा ने तीखे अग्रभाग वाले दूसरे बहुत-से मर्मभेदी नाराच चलाये, जो दसवीं गति का आश्रय लेकर छोड़े गये थे [2] परन्तु पाण्ड्य नरेश ने नौ तीखे सायकों द्वारा उन सब बाणों के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। फिर चार बाणों से उसके अश्वों को अत्यन्त पीड़ा दी, जिससे वे शीघ्र ही अपने प्राण छोड़ बैठे। तत्पश्चात् पाण्ड्य राज ने अपने तीखे बाणों द्वारा सूर्य के समान तेजस्वी अश्वत्थामा के उन बाणों को छिन्न-भिन्न करके उसके धनुष की फैली हुई डोरी भी काट डाली। तब शत्रुसूदन द्रोणपुत्र विप्रवर अश्वत्थामा ने अपने दिव्य धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर तथा यह भी देखकर कि मेरे रथ में सेवकों ने शीघ्र ही दूसरे उत्तम घोड़े लाकर जोत दिये हैं, सहस्रों बाण छोड़े तथा आकाश और दिशाओं को अपने बाणों से खचाखच भर दिया। पुरुष शिरोमणि पाण्ड्य ने बाण चलाते हुए महामनस्वी अश्वत्थामा के उन सब बाणों को अक्षय जानते हुए भी काट डाला। इस प्रकार अश्वत्थामा के चलाये हुए उन बाणों को प्रयत्नपूर्वक काटकर उसके शत्रु पाण्ड्य नरेश ने पैने बाणों द्वारा रणभूमि में उसके दोनों चक्र रक्षकों को मार डाला। शत्रु की यह फुर्ती देखकर द्रोण कुमार ने अपने धनुष को खींचकर मण्डलाकार बना दिया और जैसे पूषा का भाई पर्जन्य जल की वर्षा करता है, उसी प्रकार उसने बाणों की वृष्टि आरम्भ कर दी।[3]

मान्यवर! आठ बैलों में जुते हुए आठ छकड़ों ने जितने आयुध ढोये थे, उन सबको अश्वत्थामा ने उस दिन के आठवें भाग में चलाकर समाप्त कर दिया। यमराज के समान क्रोध में भरा हुआ अश्वत्थामा उस समय काल का भी काल-सा जान पड़ता था। जिन-जिन लोगों ने वहाँ उसे देखा, वे प्रायः बेहोश हो गये। जैसे वर्षाकाल में मेघ पर्वत और वृक्षों सहित इस पृथ्वी पर जल की वर्षा करता है, उसी प्रकार आचार्य पुत्र अश्वत्थामा ने उस सेना पर बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी।[3] अश्वत्थामा रूपी मेघ द्वारा की हुई उस दुःसह बाण वर्षा को पाण्ड्यराज रूपी वायु ने वायव्यास्त्र से छिन्न-भिन्न करके प्रसन्नतापूर्वक उड़ा दिया। उस समय द्रोणकुमार अश्वत्थामा ने बारंबार गर्जना करते हुए पाण्ड्य के मलयाचल-सदृश ऊँचे तथा चन्दन और अगुरु से चर्चित ध्वज को काटकर उनके चारों घोड़ों को भी मार डाला। फिर एक बाण से सारथि को मारकर महान मेघ के समान गम्भीर शब्द करने वाले उनके धनुष को भी अर्धचन्द्राकार बाण के द्वारा काट दिया और उनके रथ को तिल-तिल करके नष्ट कर डाला। इस प्रकार अस्त्रों द्वारा पाण्ड्य के अस्त्रों का निवारण करके अश्वत्थामा ने उनके सारे आयुध काट डाले, तथापि युद्ध की अभिलाषा से उसने अपने वश में आये हुए शत्रु का भी वध नहीं किया।[4]

इसी बीच में कर्ण ने पाण्डवों की गजसेना पर आक्रमण किया। उस समय उसने पाण्डवों की विशाल सेना को खदेड़ना आरम्भ किया। भारत! उसने बहुत-से रथियों को रथहीन कर दिया, हाथी सवारों और घुड़सवारों के हाथी और घोड़े मार डाले तथा झुकी हुई गाँठवाले बहुसंख्यक बाणों द्वारा कितने ही हाथियों को अत्यन्त पीड़ित कर दिया।

अश्वत्थामा और पाण्ड्य नरेश का भीषण युद्ध

इधर महाधनुर्धर अश्वत्थामा ने शत्रु संहारक, रथियों में श्रेष्ठ पाण्ड्य को रथहीन करके भी उनका वध इसलिए नहीं किया कि वह उनके साथ अभी युद्ध करना चाहता था। इतने ही में एक सजा-सजाया श्रेष्ठ एवं बलवान गजराज बड़ी उतावली के साथ छूटकर प्रतिध्वनि का अनुसरण करता हुआ उधर आ निकला, उसके मालिक और महावत मारे जा चुके थे। अश्वत्थामा के बाणों से आहत होकर वह शीघ्रता पूर्वक पाण्ड्यराज की ओर दौड़ा। उसने प्रतिपक्षी हाथी की गर्जना का शब्द सुनकर बड़े वेग से उसी ओर धावा किया था। परंतु गजयुद्ध विशारद मलयध्वज पाण्ड्य नरेश पर्वत शिखर के समान ऊँचे उस श्रेष्ठ गजराज पर उतनी ही शीघ्रता से चढ़ गये, जैसे दहाड़ता हुआ सिंह किसी पहाड़ की चोटी पर चढ़ जाता है। गिरीराज मलय के स्वामी पाण्ड्यराज ने तुरंत अग्रसर होने के लिए उस हाथी को पीड़ा दी और अस्त्र प्रहार के लिए उत्तम यत्न, बल तथा क्रोध से प्रेरित हो सूर्य के समान तेजस्वी एक तोमर हाथ में लेकर गर्जना करते हुए उसे शीघ्र ही आचार्य पुत्र पर चला दिया। उस तोमर द्वारा उन्होंने उत्तम मणि, श्रेष्ठ हीरक, स्वर्ण, वस्त्र, माला और मुक्ता से विभूषित अश्वत्थामा के मुकुट पर बारंबार यह कहते हुए प्रसन्नतापूर्वक आघात किया कि तुम मारे गये, मारे गये। सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह और अगग्न के समान प्रकाशमान वह मुकुट उस तोमर के गहरे आघात से चूर-चूर होकर महान शब्द के साथ उसी प्रकार पृथ्वी पर पड़ा, जैसे इन्द्र के वज्र के आघात से किसी पर्वत का शिखर भारी आवाज के साथ धराशायी हो जाता है। तब अश्वत्थामा पैरों से ठुकराये हुए नागराज के समान शीघ्र ही अत्यन्त क्रोध से जल उठा।

अश्वत्थामा द्वारा पाण्ड्य नरेश का वध

फिर तो उसने यमदण्ड के समान शत्रुओं को संताप देने वाले चौदह बाण हाथ में लिए। उसने पाँच बाणों से उस हाथी के पैर तथा सूँड़ काट लिये। फिर तीन बाणों से पाण्ड्य नरेश की दोनों भुजाओं और मस्तक को शरीर से अलग कर दिया। इसके बाद छः बाणों से पाण्ड्य नरेश के पीछे चलने वाले उत्तम कान्ति से सुशोभित छः महारथियों को भी मार डाला। उत्तम, विशाल, गोलाकार, श्रेष्ठ चन्द्रमा से चर्चित, सुवर्ण, मुक्ता, मणि तथा हीरों से विभूषित पाण्ड्य नरेश की वे दोनों भुजाएँ पृथ्वी पर गिरकर गरुड़ के मारे हुए दो सर्पों के समान छटपटाने लगीं।[4]जिसका मुख मण्डल पूर्ण चन्द्रमा के सदृश प्रकाशमान तथा नेत्र क्रोध के कारण अरुणावर्ण थे, जिसकी नासिका ऊँची थी, वह पाण्ड्य राज का कुण्डल मण्डित मस्तक पृथ्वी पर गिरकर भी दो नक्षत्रों के बीच में विराजमान चन्द्रमा के समान सुशोभित हो रहा था। युद्ध कुशल अश्वत्थामा ने पाँच उत्तम बाण मारकर उस हाथी के छः टुकड़े कर दिये। इस प्रकार दोनों मिलाकर दस भाग कर दिये। जैसे कि कर्म निपुण पुराहित दस हविर्धान यज्ञ में इन्द्र आदि दस देवताओं के लिए हविष्य के दस भाग कर देता है। जैसे पितरों की प्रिय चिताग्नि मृत शरीर को पाकर प्रज्वलित हो जल उठती है और अन्त में जल का अभिषेक पाकर शान्त हो जाती है, उसी प्रकार पाण्ड्य नरेश घोड़े, हाथी और मनुष्यों के टुकड़े-टुकड़े करके उन्हें प्रचुर मात्रा में राक्षसों के भोजन देकर अन्त में अश्वत्थामा के बाण से सदा के लिए शान्त हो गये। जिसने पूरी विद्या समाप्त कर ली है तथा समस्त कर्तव्य कर्म पूर्ण कर लिये हैं, उस गुरु पुत्र अश्वत्थामा के पास सुहृदों सहित आकर आपके पुत्र दुर्योधन ने प्रसन्नतापूर्वक उसकी बड़ी पूजा की। ठीक उसी तरह, जैसे बलि के पराजित होने पर देवराज इन्द्र ने विष्णु का पूजन किया था।[5]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 20 श्लोक 1-19
  2. बाणों की दस गतियाँ बतायी गई हैं, जो इस प्रकार हैं-1. उन्मुखी, 2. अभिमुखी, 3. तिर्यक, 4. मन्दा, 5. गोमूत्रिका, 6. ध्रुवा, 7. स्खलिता, 8. यमनक्रान्ता, 9. क्रुष्टा,और 10. अतिकुष्ठा।
    इनमें से पूर्व की तीन गतियाँ क्रमशः मस्तक, हृदय तथा पाश्र्वदेश का स्पर्श करने वाली हैं। अर्थात उन्मुखी गति से छोड़ा हुआ बाण मस्तक पर, अभिमुखी गति से प्रेरित बाण वक्षःस्थल और तिर्यक गति से चलाया हुआ बाण पाश्र्वभाग में आघात करता है। मनदा गति से छोड़े गये बाण त्वचा को कुछ-कुद छेद पाते हैं। गोमूत्रि का गति से चलाये गये बाण बायें और दायें दोनो ओर जाते तथा कवच को भी काट देते हैं। ध्रुवा गति निश्चित रूप से लक्ष्य का भेदन कराने वाली होती है। स्खलिता कहते हैं, लक्ष्य से विचलित होने वाली गति को। उसके द्वारा संचालित बाण लक्ष्यभ्रष्ट होते हैं। यमकाक्रन्ता वह गति है, जिसके द्वारा प्रेरित बाण बारंबार लक्ष्य वेधकर निकल जाते हैं। क्रुष्टा उस गति का नाम है, जो लक्ष्य के एक अवयव भुजा आदि का छेदन कराती है। दसवीं गति का नाम है अतिक्रुष्टा; जिसके द्वारा चलाया गया बाण शत्रु का मस्तक काटकर उसके साथ ही दूर जा गिरता है। (नीलकण्ठी के आधार पर)
  3. 3.0 3.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 20 श्लोक 20-32
  4. 4.0 4.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 20 श्लोक 33-47
  5. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 20 श्लोक 48-51

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