श्रीकृष्ण का अर्जुन को युद्धभूमि का दृश्य दिखाते हुए रथ को आगे बढ़ाना

महाभारत कर्ण पर्व के अंतर्गत 58वें अध्याय में श्रीकृष्ण का अर्जुन को युद्धभूमि का दृश्य दिखाते हुए रथ को आगे बढ़ाते हुए युधिष्ठिर के पास जाने का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

कृष्ण का अर्जुन को रणभूमि की स्थिति का वर्णन करना

संजय कहते हैं- राजन! तदनन्तर अर्जुन ने जब श्रीकृष्ण से युधिष्ठिर के पास चलने का आग्रह किय, तब श्रीकृष्ण तुरंत ही रथ के द्वारा उसी ओर चल दिये, जहाँ राजा युधिष्ठिर और सृंजय महारथी मौजूद थे। वे मृत्यु को ही युद्ध से निवृत होने का निमित्त बनाकर आपके योद्धाओं के साथ युद्ध कर रहे थे। तदनन्तर जहाँ वह भारी जनसंहार हो रहा था, उस संग्रामभूमि को देखते हुए भगवान श्रीकृष्ण सव्यसाची अर्जुन ने इस प्रकार बोले ‘कुन्तीे नन्दन! देखो, दुर्योधन के कारण भरतवंशियों का तथा भूमण्डल के अन्य क्षत्रियों का महाभयंकर विनाश हो रहा है। ‘भरत नन्दणन! देखो, मरे हुए धनुर्धरों के ये सोने के पृष्ठ भागवाले धनुष और बहुमूल तरकस फेंके पड़े हैं। ‘सुवर्णमय पंखों से युक्त झुकी हुई गांठवाले बाण तथा तेल में धोये हुए नाराच केंचुल छोड़कर निकले हुए सर्पों के समान दिखायी दे रहे हैं। ‘भारत! हाथी के दांत की बनी हुई मूँठवाले सुवर्ण जटित खड्ग तथा स्वर्णभूषित कवच भी फेंके पड़े हैं। ‘देखो, ये सुवर्णमय प्रास, स्वर्णभूषित शक्तियाँ तथा सोने के बने हुए पत्रों से मढ़ी हुई विशाल गदाएं पड़ी हैं। ‘स्वर्णमयी ऋष्टि, हेमभूषित पट्टिश तथा सुवर्णजटित दण्डों से युक्त फरसे फेंके हुए हैं। ‘लोहे के कुन्तु (भाले), भारी मूसल, विचित्र शतघ्नियां और विशाल परिघ इधर-उधर पड़े हैं। ‘इस महासमर में फेंके गये इन चक्रों और तोमरों को भी देखो। विजय की अभिलाषा रखने वाले वेगशाली योद्धा नाना प्रकार के शस्त्रों को हाथ में लिये हुए ही अपने प्राण खो बैठे हैं; तथापि जीवित से दिखायी देते हैं। ‘देखो, सहस्रों के शरीर गदाओं के आघात से चूर-चूर हो रहे हैं। मूसलों की मार से उनके मस्तक फट गये हैं तथा हाथी, घोड़े एवं रथों से वे कुचल दिये गये हैं।

‘शत्रुसूदन! बाण, शक्ति, ऋष्टि, पदिृश, लोहमय परिघ, भयंकर लोह निर्मित कुन्त और फरसों से मनुष्यों, घोड़ों और हाथियों के बहुसंख्यक शरीर छिन्न-भिन्न होकर खून से लथपथ और प्राणशून्य हो गये हैं और उनके द्वारा रणभूमि आच्छादित दिखायी देती हैं। ‘भारत! चन्दन चर्चित, अंगदों और केयूरों से अलंकृत, सोने के अन्य आभूषणों से विभूषित तथा दस्तानों से युक्त वीरों की कटी हुई भुजाओं से युद्ध भूमि की अद्भुत शोभा हो रही है। ‘सांड के समान नेत्रों वाले वेगशाली वीरों के दस्ताजनों सहित आभूषण-भूषित हाथ कटकर गिरे हैं। हाथियों के शुण्डा दण्डों के समान मोटी जांघें खण्डित होकर पड़ी हैं तथा श्रेष्ठ चूड़ामणि धारण किये कुण्डल-मण्डित मस्तक भी धड़ से अलग होकर पड़े हैं। इन सबके द्वारा रणभूमि की अपूर्व शोभा हो रही है।[1] भरतश्रेष्ठ! जिनकी गर्दन कट गयी है, विभिन्न अंग छिन्न-भिन्न हो गये हैं तथा जो खून से लथपथ होकर लाल दिखायी देते हैं, उन कबन्धों (धड़ों) से रणभूमि ऐसी जान पड़ती हैं, मानो वहाँ जगह-जगह बुझी हुई लपटों वाले आग के अंगारे पड़े हों। ‘देखो, जिनमें सोने की छोटी-छोटी घंटियां लगी हैं, ऐसे बहुत-से सुन्दंर रथ टुकड़े-टुकड़े होकर पड़े हैं। वे बाणों से घायल हुए घोड़े भरे पड़े हैं और उनकी आंतें बाहर निकल आयी हैं। ‘अनुकर्ष, उपासग, पताका, नाना प्रकार के ध्वज तथा रथियों के बड़े-बड़े श्वेत शंख बिखरे पड़े हैं।[2]

‘जिनकी जीभें बाहर निकल आयी हैं, ऐसे अगणित पर्वताकार हाथी धरती पर सदा के लिये सो गये हैं। विचित्र वैजयन्ती पताकांए खण्डित होकर पड़ी हैं तथा हाथी और घोड़े मारे गये हैं। ‘हाथियों के विचित्र झूल, मृगचर्म और कम्बल चिथड़े-चिथड़े होकर गिरे हैं। चांदी के तारों से चित्रित झूल, अंकुश और अनेक टुकड़ों में बंटे हुए बहुत से घंटे महान गजराजों के साथ ही धरती पर गिर पड़े हैं। ‘जिनमें वैदूर्यमणि के डंडे लगे हुए हैं, ऐसे बहुत से सुन्दर अंकुश पृथ्वी पर पड़े हैं। सवारों के हाथों में सटे हुए कितने ही सुवर्णनिर्मित कोड़े कटकर गिरे हैं। ‘विचित्र मणियों से जटित और सोने के तारों से विभूषित रंकुमृग के चमड़े के बने हुए, घोड़ों की पीठ पर बिछाये जाने वाले बहुत से झूल भूमि पर पड़े हैं। ‘नरपतियों के मणिमय मुकुट, विचित्र स्वर्णमय हार, छत्र, चंवर और व्यजन फेंके पड़े हैं। ‘देखो, चन्द्रमा और नक्षत्रों के समान कान्तिमान, मनोहर कुण्डलों से विभूषित तथा दाढ़ी-मूंछ से युक्त वीरों के आभूषण-भूषित मुखों से रणभूमि अत्यन्त आच्छादित हो गयी है और इस पर रक्त की कीच जम गयी है।

‘प्रजापालक अर्जुन! उन दूसरे योद्धाओं पर दृष्टिपात करो, जिनके प्राण अभी तक शेष हैं और जो चारों ओर कराह रहे हैं। उनके बहुसंख्यक कुटुम्बी जन हथियार डालकर उनके निकट आ बैठे हैं और बारंबार रो रहे हैं। ‘जिनके प्राण निकल गये हैं, उन योद्धाओं को वस्त्र आदि से ढककर विजयाभिलाषी वेगशाली वीर पुन: अत्यन्त क्रोधपूर्वक युद्ध के लिये जा रहे हैं। ‘दूसरे बहुत से सैनिक रणभूमि में गिरे हुए अपने शूरवीर कुटुम्बी‍जनों के पानी मांगने पर वहीं इधर-उधर दौड़ रहे हैं। ‘अर्जुन! कितने ही योद्धा पानी लाने के लिये गये, इसी बीच में पानी चाहने वाले बहुत से वीरों के प्राण निकल गये। वे शूरवीर जब पानी लेकर लौटे हैं, तब अपने उन सम्बान्धियों को चेतनारहित देखकर पानी को वहीं फेंक परस्पर चीखते-चिल्लाेते हुए चारों ओर दौड़ रहे हैं। ‘श्रेष्ठवीर अर्जुन! उधर देखो, कुछ लोग पानी पीकर मर गये और कुछ पीते-पीते ही अपने प्राण खो बैठे। कितने ही बान्धीजनों के प्रेमी प्रिय बान्धवों को छोड़कर उस महासमर में जहाँ-तहाँ प्राणशून्य हुए दिखायी देते हैं। ‘नरश्रेष्ठ! उन दूसरे योद्धाओं को देखा, जो दांतों से ओठ चबाते हुए टेढ़ी भौंहों से युक्त मुखों द्वारा चारों ओर दृ‍ष्टिपात कर रहे हैं।

इस प्रकार बातें करते हुए भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन उस महासमर में राजा का दर्शन करने के लिये उस स्थान की ओर चल दिये, जहाँ राजा युधिष्ठिर विद्यमान थे। अर्जुन भगवान श्रीकृष्णठ से बारंबार कहते थे, चलिये, चलिये’। भगवान श्रीकृष्ण बड़ी उतावली के साथ अर्जुन को युद्धभूमि का दर्शन कराते हुए आगे बढ़े और धीरे-धीरे उनसे इस प्रकार बोले-‘पाण्डुनन्दन! देखो, राजा के पास बहुत से भूपाल जा पहुँचे हैं। ‘उधर दृष्टिपात करो। कर्ण युद्ध के महान रंगमच पर प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित हो रहा है और महाधनुर्धर भीमसेन युद्धस्थल की ओर लौट पड़े हैं। ‘पांचालों, सृंजयों और पाण्डवों के जो धृष्टद्युम्न आदि प्रमुख वीर हैं, वे भी भीमसेन के साथ ही युद्ध के लिये लौट रहे हैं। ‘अर्जुन! वह देखो, लौटे हुए पाण्डव योद्धाओं ने शत्रुओं की विशाल वाहिनी के पावं उखाड़ दिये। भागते हुए कौरव वीरों को यह कर्ण रोक रहा है। ‘कुरुनन्दन! जो वेग में यमराज और पराक्रमी में इन्द्र के समान है, वह शस्त्र-धारियों में श्रेष्ठ अश्वत्थामा उधर ही जा रहा है। ‘महारथी धृष्टद्युम्न युद्धस्ल में बड़े वेग से जाते हुए अश्वत्थामा का ही पीछा कर रहे हैं। वह देखो, संग्राम में बहुत से सृंजय वीर मार डाले गये’।

संजय कहते हैं- राजन! अत्यन्त दुर्जय वीर भगवान श्रीकृष्ण ने किरीटधारी अर्जुन से ये सारी बातें बतायीं। तत्पश्चात वहाँ अत्यन्त भयंकर महायुद्ध होने लगा। नरेश्वर! दोनों सेनाओं में मृत्यु् को ही युद्ध से निवृत्त होने की अवधि नियत करके संघर्ष छिड़ गया और वीरों के सिंहनाद होने लगे। पृथ्वीनाथ! इस प्रकार इस भूतल पर आपकी और शत्रुओं की सेनाओं का महान संहार हुआ है। राजन! यह सब आपकी कुमन्त्रणा का ही फल है।[2]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 58 श्लोक 1-23
  2. 2.0 2.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 58 श्लोक 24-52

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