अर्जुन का अश्वत्थामा के साथ अद्भुत युद्ध

महाभारत कर्ण पर्व के अंतर्गत 16वें अध्याय में अर्जुन का अश्वत्थामा के साथ अद्भुत युद्ध का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

अश्वत्थामा का अर्जुन को युद्ध के लिये उद्यत करना

संजय कहते हैं- राजन! अर्जुन द्वारा संशप्तकों का संहार देखकर अश्वत्थामा ने सावधान हो रणभूमि में श्रीकृष्ण और अर्जुन पर धावा किया। तदनन्तर शत्रुनाशक बाणों का प्रहार करते हुए पाण्डुपुत्र अर्जुन को बाण युक्त हाथ से बुलाकर अश्वत्थामा ने हँसते हुए कहा- 'वीर! यदि तुम मुझे यहाँ आया हुआ पूजनीय अतिथि मानो सब प्रकार से आज युद्ध के द्वारा मेरा आतिथ्य सत्कार करो'।

आचार्य पुत्र के द्वारा इस प्रकार युद्ध की इच्छा से बुलाये जाने पर अर्जुन ने अपना अहोभाग्य माना और भगनान श्रीकृष्ण से इस प्रकार कहा- 'माधव! एक ओर तो मुझे संशप्तकों का वध करना है, दूसरी ओर द्रोणकुमार अश्वत्थामा युद्ध के लिए मेरा आह्नान कर रहा है। अतः यहाँ मेरे लिए जो पहले कर्तव्य प्राप्त हो? उसे मुझे बताइये। यदि आप ठीक समझें तो पहले उठकर अश्वत्थामा को ही आतिथ्य ग्रहण करने का अवसर दिया जाये'। अर्जुन के ऐसा कहने पर श्रीकृष्ण ने उन्हें विजयशील रथ के द्वारा द्रोणकुमार के निकट पहुँचा दिया। ठीक वैसे ही, जैसे वैदिक विधि से आवाहित इन्द्र देवता को वायुदेव यज्ञ में पहुँचा देते हैं।

कृष्ण का अश्वत्थामा से संवाद

तत्पश्चात् भगवान श्रीकृष्ण ने एकाग्रचित्त द्रोणकुमार को सम्बोधित करके कहा- ‘अश्वत्थामा! स्थिर होकर शीघ्रता पूर्वक प्रहार करो और अपने ऊपर किये गये प्रहार को सहन करो। ‘क्योंकि स्वामी के आश्रित रहकर जीवन निर्वाह करने वाले पुरुषों के लिए अपने रक्षक के अन्न को सफल करने का यही अवसर आया है, ब्राह्मणों का विवाद सूक्ष्म (बुद्धि के द्वारा साध्य) होता है; परंतु क्षत्रियों की जय-पराजय स्थूल अस्त्रों द्वारा सम्पन्न होती हैं। 'तुम मोहवश अर्जुन से जिस दिव्य सत्कार की प्रार्थना कर रहे हो, उसे पाने की इच्छा से आज तुम स्थिर होकर पाण्डुपुत्र धनंजय के साथ युद्ध करो।'

अश्वत्थामा का अद्भुत पराक्रम

भगवान श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर द्विजश्रेष्ठ अश्वत्थामा ने ‘बहुत अच्छा ‘कहकर केशव को साठ और अर्जुन को तीन बाणों से घायल कर दिया तब अर्जुन ने अत्यन्त कुपित होकर तीन बाणों से अश्वत्थामा का धनुष काट दिया; परंतु द्रोणकुमार ने उससे भी भयंकर दूसरा धनुष हाथ में ले लिया। उसने पलक मारते-मारते उस धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर अर्जुन और श्रीकृष्ण को बींध डाला। श्रीकृष्ण को तीन सौ और अर्जुन को एक हजार बाण मारे। तदनन्तर द्रोणकुमार अश्वत्थामा ने प्रयत्नपूर्वक अर्जुन को युद्धस्थल में स्तम्भित करके उनके ऊपर हजारों, लाखों और अरबों बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। मान्यवर! उस समय वेदवादी अश्वत्थामा ने तरकस, धनुष, प्रत्यंचा, बाँह, हाथ, छाती, मुख, नाक, आँख, कान, सिर, भिन्न-भिन्न अंग, रोम, कवच, रथ और ध्वजों से भी बाण निकल रहे थे। इस प्रकार बाणों के महान समुदाय से श्रीकृष्ण और अर्जुन को घायल करके आनन्दित हुआ द्रोणकुमार महान मेघों के गम्भीर घोष के समान गर्जना करने लगा।[1] महाराज! अश्वत्थामा के धनुष से छूटकर सब ओर गिरने वाले उन बाणों द्वारा रथ पर बैठे हुए श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों ढक गये। तत्पश्चात् प्रतापी भरद्वाज कुल नन्दन अश्वत्थामा ने सैंकड़ों तीखे बाणों से रणभूमि में श्रीकृष्ण और अर्जुन दानों को निश्चेष्ट कर दिया। चराचर की रक्षा करने वाले उन दोनों महापुरुषों को बाणों द्वारा आच्छादित देख समसत स्थावर-जंगम जगत में हाहाकार मच गया। सिद्ध और चारणों के समुदाय सब ओर से वहाँ आ पहुँचे और बोले-आज तीनों लोकों का मंगल हो। राजन! मैंने इससे पहले अश्वत्थामा का वैसा पराक्रम नहीं देखा था, जैसा कि रणभूमि में श्रीकृष्ण और अर्जुन को आच्छादित करते समय प्रकट हुआ था।[2]

नरेश्वर! रणभूमि में द्रोणकुमार के धनुष की टंकार बड़े-बड़े रथियों को भयभीत करने वाली थी। दहाड़ते हुए सिंह के समान उसके शब्द को मैंने बहुत बार सुना था। युद्ध में विचरते हुए अश्वत्थामा के धनुष की प्रत्यंचा बायें-दायें बाण छोड़ते समय बादल में बिजली के समान चमकती दिखायी देती थी। शीघ्रता करने और दृढ़ता पूर्वक हाथ चलाने वाले पाण्डुपुत्र धनंजय उस समय भारी मोह में पड़कर केवल देखते रह गये थे। उन्हें युद्ध में ऐसा मालूम होता था कि अश्वत्थामा ने मेरा पराक्रम हर लिया है। राजन! उस समय समरांगण में वैसा पराक्रम करते हुए द्रोणकुमार अश्वत्थामा का शरीर ऐसा डरावना हो गया था कि उसकी ओर देखना कठिन हो रहा था। पिनाकपाणि भगवान रुद्र का जैसा रूप दिखाई देता है, वैसा ही उसका भी था।

कृष्ण और अर्जुन का संवाद

प्रजानाथ! जब वहाँ द्रोणपुत्र बढ़ने लगा और कुन्ती कुमार का पराक्रम घटने लगा, तब श्रीकृष्ण को बड़ा रोष हुआ। राजन! वे क्रोध पूर्वक लंबी साँस खींचते हुए संग्राम भूमि में अश्वत्थामा की ओर इस प्रकार देखने लगे, मानो उसे अपनी दृष्टि द्वारा दग्ध कर देंगे। अर्जुन की ओर भी वे बारंबार दृष्टिपात करने लगे। फिर कुपित हुए श्रीकृष्ण ने अर्जुन से प्रेमपूर्वक कहा। श्रीभगवान बोले-पार्थ! भरतनन्दन! मैं इस युद्ध में तुम्हारे अंदर यह अत्यंत अद्भुत परिवर्तन देख रहा हूँ कि आज द्रोणकुमार रणभूमि में तुमसे आगे बढ़ा जा रहा है। क्या तुम्हारे हाथ में गाण्डीव धनुष है? या तुमारी मुट्ठी ढीली पड़ कई है? क्या तुम्हारी दोनों भुजाओं में पहले के समान ही बल और पराक्रम है? क्योंकि इस समय संग्राम में द्रोणपुत्र को में तुमसे बढ़ा-चढ़ा देख रहा हूँ। भरतश्रेष्ठ! यह मेरे गुरु का पुत्र है, ऐसा समझकर इसे सम्मान देते हुए तुम इसकी उपेक्षा न करो। पार्थ! यह उपेक्षा का अवसर नहीं है। (भगवान श्रीकृष्ण का यह कथन तथा) अश्वत्थामा के उस सिंहनाद को सुनकर पाण्डुपुत्र अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा- 'माधव! देखिये तो सही गुरुपुत्र अश्वत्थामा मेरे प्रति कैसी दुष्टता कर रहा है? ‘यह अपने बाणों के घेरे में डालकर हम दोनों को मारा गया समझता है। मैं अभी अपनी शिक्षा और बल से इसके इस मनोरथ को नष्ट किये देता हूँ।'

अर्जुन का भीषण पराक्रम

ऐसा कहकर भरतश्रेष्ठ अर्जुन ने अश्वत्थामा के चलाये हुए उन बाणों से प्रत्येक के तीन-तीन टुकड़े करके उन सबको उसी प्रकार नष्ट कर दिया, जैसे हवा कुहरे को उड़ा देती है। तदनन्तर पाण्डुकुमार अर्जुन ने पुनः घोड़े, सारथि, रथ, हाथी, पैदल समूह और ध्वजों सहित संशप्तक-सैनिकों को अपने भयंकर बाणों द्वारा बींध डाला। उस समय वहाँ जो-जो मनुष्य जिस-जिस रूप में दिखाई देते थे, वे-वे स्वयं ही अपने आपको बाणों से व्याप्त मानने लगे।[2] गाण्डीव धनुष से छूटे हुए नाना प्रकार के बाण रणभूमि में एक कोस से अधिक दूरी पर खड़े हुए हाथियों और मनुष्यों को भी मार डालते थे। जैसे जंगल में कुल्हाड़ों से काटने पर बड़े-बड़े वृक्ष धराशायी हो जाते हैं, उसी प्रकार वहाँ मद की वर्षा करने वाले गजराजों के शुण्डदण्ड भल्लों से कट-कटकर धरती पर गिरने लगे। सूँड़ कटने के पश्चात् वे पर्वतों के समान हाथी अपने सवारों सहित उसी प्रकार गिर जाते थे? जैसे वज्रधारी इन्द्र के वज्र से विदीर्ण होकर गिरे हुए पहाड़ों के ढेर लगे हों। धनंजय अपने बाणों द्वारा सुशिक्षित घोड़ों से जुते हुए, रणदुर्मद रथियों की सवारी में आये हुए एवं गन्धर्व नगर के समान आकार वाले सुसज्जित रथों के टुकड़े-टुकड़े करते हुए शत्रुओं पर बाण बरसाते और सजे-सजाये घुड़सवारों एवं पैदलों को भी मार गिराते थे।[3]

अर्जुन रूपी प्रलयकालिक सूर्य ने जिसका शोषण करना कठिन था? ऐसे संशप्तक-सैन्य रूपी महासागर को अपनी बाणमयी प्रचण्ड किरणों से सोख लिया। जैसे वज्रधारी इन्द्र ने पर्वतों को विदीर्ण किया था, उसी प्रकार अर्जुन ने महान वेगशाली वज्रतुल्य नाराचों द्वारा अश्वत्थामा रूपी महान शैल को पुनः वेधना आरम्भ किया। तब क्रोध में भरा हुआ आचार्य पुत्र सारथि श्रीकृष्ण सहित अर्जुन के साथ युद्ध करने की इच्छा से बाणों द्वारा उनके सामने उपस्थित हुआ; परन्तु कुन्ती कुमार अर्जुन ने उसके सभी बाण काट गिराये। तदनन्तर अत्यन्त कुपित हुआ अश्वत्थामा पाण्डुपुत्र अर्जुन को उसी प्रकार अपने अस्त्र अर्पित करने लगा, जैसे कोई गृहस्थ योग्य अतिथि को अपना सारा घर सौंप देता है। तब पाण्डुपुत्र अर्जुन संशप्तकों को छोड़कर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा के सामने आये। ठीक उसी तरह, जैसे दाता पंक्ति में बैठने के अयोग्य ब्राह्मणों को छोड़कर याचना करने वाले पंक्ति पावन ब्राह्मण की ओर जाता है।[3]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 16 श्लोक 20-36
  2. 2.0 2.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 16 श्लोक 37-41
  3. 3.0 3.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 16 श्लोक 42-51

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