कर्ण को सेनापति बनाने के लिए अश्वत्थामा का प्रस्ताव

महाभारत कर्ण पर्व के अंतर्गत दसवें अध्याय में कर्ण को सेनापति बनाने के लिए अश्वत्थामा के प्रस्ताव का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

कौरवों का आपस में वार्तालाप

संजय ने कहा- भरतनन्दन महाराज! उस दिन जब महाधनुर्धर द्रोणाचार्य मारे गये, महारथी द्रोण पुत्र का संकल्प व्यर्थ हो गया और समुद्र के समान विशाल कौरव सेना भागने लगी, उस समय कुन्ती कुमार अर्जुन अपनी सेना का व्यूह बनाकर अपने भाइयों के साथ रणभूमि में डटे रहे। भरत श्रेष्ठ! उन्हें युद्ध के लिये डटा हुआ जान आपके पुत्र ने अपनी सेना को भागती देख उसे पराक्रम पूर्वक रोका। भारत! इस प्रकार अपनी सेना को स्थापित करके, जिन्हें अपना लक्ष्य प्राप्त हो गया था और इसलिये जो बड़े हर्ष के साथ परिश्रम पूर्वक युद्ध कर रहे थे, उन विपक्षी पाण्डवों के साथ दुर्योधन ने अपने ही बाहुबल के भरोसे दीर्घकाल तक युद्ध करके संध्याकाल आने पर सैनिकों को शिविर में लौटने की आज्ञा दे दी। सेना को लौटाकर अपने शिविर में प्रवेश करने के पश्चात् समस्त कौरव परस्पर अपने हित के लिये गुप्त मन्त्रणा करने लगे। उस समय वे सब लोग बहुमूल्य बिछौनों से युक्त मूल्यवान पलंगों तथा श्रेष्ठ सिंहासनों पर बैठे हुए थे, मानो सुचाद शय्याओं पर विराज रहे हों। उस समय राजा दुर्योधन ने सान्त्वना पूर्ण परम मधुर वाणी द्वारा उन महाधनुर्धर नरेशों को सम्बोधित करके यह समयोचित बात कही- ‘बुद्धिमानों में श्रेष्ठ नरेश्वरों! तुम सब लोग शीघ्र बोलो, विलम्ब न करो, इस अवस्था में हम लोगों को क्या करना चाहिये और सबसे अधिक आवश्यक कर्तव्य क्या है?’

अश्वत्थामा का कर्ण को सेनापति बनाने के लिये कहना

संजय कहते हैं- राजा दुर्योधन के ऐसा कहने पर वे सिंहासन पर बैठे हुए पुरुषसिंह नरेश युद्ध की इच्छा से नाना प्रकार की चेष्टाएँ करने लगे। युद्ध में प्राणों की आहुति देने की इच्छा रखने वाले उन नरेशों की चेष्टाएँ देखकर राजा दुर्योधन के प्रातःकालीन सूर्य के समान तेजस्वी मुख की ओर दृष्टिपात करके वाक्य विशारद, मेधावी आचार्य पुत्र अश्वत्थामा ने यह बात कही- विद्वानों अभीष्ट अर्थ की सिद्धि करने वाले चार उपाय बताये हैं - राग (राजा के प्रति सैनिको की भक्ति), योग (साधन-सम्पत्ति), दक्षता (उत्साह, बल एवं कौशल), तथा नीति; परंतु वे सभी दैव के अधीन हैं। ‘हमारे पक्ष में जो देवताओं के समान पराक्रमी, विश्वविख्यात महारथी वीर, नीतिमान, साधन सम्पन्न, दक्ष और स्वामी के प्रति अनुरक्त थे, वे सब के सब मारे गये, तथापि हमें अपनी विजय के प्रति निराश नहीं होना चाहिये। यदि सारे कार्य उत्तम नीति के अनुसार किये जायँ तो उनके द्वारा दैव को भी अलुकूल किया जा सकता है; अतः भारत! हम लोग सर्वगुण सम्पन्न नरश्रेष्ठ कर्ण का ही सेनापति के पद पर अभिषेक करेंगे और इन्हें सेनापति बनाकर हम लोग शत्रुओं को मथ डालेंगे। ‘ये अत्यन्त बलवान, शूरवीर, अस्त्रों के ज्ञाता, रण दुर्मद और सूर्यपुत्र यमराज के समान शत्रुओं के लिये असह्य हैं। इसलिये ये रणभूमि में हमारे विपक्षियों पर विजय पा सकते हैं’। राजन! उस समय आचार्य पुत्र अश्वत्थामा के मुख से यह बात सुनकर आपके पुत्र दुर्योधन ने कर्ण के प्रति विशेष आशा बाँध ली। भरतनन्दन! भीष्म और द्रोणाचार्य के मारे जाने पर कर्ण पाण्डवों को जीत लेगा, इस आशा को हृदय में रखकर दुर्योधन को बड़ी सान्त्वना मिली। महाराज! वह अश्वत्थामा के उस प्रिय वचन को सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ।[1]

दुर्योधन का कर्ण से संवाद

तत्पश्चात् अपने बाहुबल का आश्रय ले मन को सुस्थिर करके दुर्योधन ने राधा पुत्र कर्ण से बड़े प्रेम और सत्कार के साथ अपने लिये हितकर यथार्थ और मंगलकारक वचन इस प्रकार कहा-‘कर्ण! मैं तुम्हारे पराक्रम को जानता हूँ और यह भी अनुभव करता हूँ कि मेरे प्रति तुम्हारा स्नेह बहुत अधिक है। महाबाहो! तथापि मैं तुमसे अपने हित की बात कहना चाहता हूँ। ‘वीर! मेरी यह बात सुनकर तुम अपनी इच्छा के अनुसार जो तुम्हें अच्छा लगे, वह करो। तुम बहुत बड़े बुद्धिमान तो हो ही, सदा के लिये मेरे सबसे बड़े सहारे भी हो। ‘मेरे दो सेनपति पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण, जो अतिरथी थे, युद्ध में मारे गये। अब तुम मेरे सेना नायक बनो; क्योंकि तुम उन दोनों से भी अधिक शक्तिशाली हो। ‘वे दोनों महाधनुर्धर होते हुए भी बूढ़े थे और अर्जुन के प्रति उनके मन में पक्षपात था। राधा नन्दन! मैंने तुम्हारे करने से ही उन दोनों वीरों को सेनापति बनाकर सम्मानित किया था। ‘तात! भीष्म ने पितामह के नाते की ओर दृष्टिपात करके उस महासमर में दस दिनों तक पाण्डवों की रक्षा की है। ‘उन दिनों तुमने हथियार रख दिया था; इसलिये महासमर में अर्जुन ने शिखण्डी को आगे करके पितामह भीष्म को मार डाला था। ‘पुरुषसिंह! उन महाधनुर्धर भीष्म के घायल होकर बाण शय्या पर सो जाने के बाद तुम्हारे कहने से ही द्रोणाचार्य हमारी सेना के अगुआ बनाये गये थे। मेरा विश्वास है कि उन्होंने भी अपना शिष्य समझकर कुन्ती के पुत्रों की रक्षा की है। वे बूढ़े आचार्य भी शीघ्र ही धृष्टद्युम्न के हाथ से मारे गये। ‘अमित पराक्रमी वीर! उन प्रधान सेनापतियों के मारे जाने के पश्चात् मैं बहुत सोचने पर भी समरांगण में तुम्हारे समान दूसरे किसी योद्धा को नहीं देखता। ‘हम लोगों में से तुम्हीं शत्रुओं पर विजय पाने में समर्थ हो, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। तुमने पहले, बीच में और पीछे भी हमारा हित ही किया है।[2]

‘तुम धुरन्धर पुरुष की भाँति युद्ध स्थल में सेना संचालन का भार वहन करने के योग्य हो; इसलिये स्वयं ही अपने आपको सेनापति के पद पर अभिषिक्त कराओ। ‘जैसे अविनाशी भगवान स्कन्द देवताओं की सेना का संचालन करते हैं, उसी प्रकार तुम भी धृतराष्ट्र पुत्रों की सेना को अपनी अध्यक्षता में ले लो। ‘जैसे देवता इन्द्र ने दानवों का संहार किया था, उसी प्रकार तुम भी समस्त शत्रुओं का वध करो। जैसे दानव भगवान विष्णु को देखते ही भाग जाते हैं, उसी प्रकार पाण्डव तथा पाञ्चाल महारथी तुम्हें रणभूमि में सेनापति के रूप में उपस्थित देखकर भाग खड़े होंगे; अतः पुरुषसिंह! तुम इस विशाल सेना का संचालन करो। ‘तुम्हारे सावधानी के साथ खड़े होते ही मूर्ख पाण्डव, पांचाल और सृंजय अपने मन्त्रियों सहित भाग जायँगे। ‘जैसे उदित हुआ सूर्य अपने तेज से तपकर घोर अंधकार को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार तुम भी शत्रुओं को संतप्त एवं नष्ट करो’।

संजय कहते हैं - राजन! आपके पुत्र के मन में जो यह प्रबल आशा हो गयी थी कि भीष्म और द्रोण के मारे जाने पर कर्ण पाण्डवों को जीत लेगा, वही आशा मन में लेकर उस समय उसने कर्ण से इस प्रकार कहा - ‘सूत पुत्र! अर्जुन तुम्हारे सामने खड़े होकर कभी युद्ध करना नहीं चाहते हैं’।[2] कर्ण ने कहा - गान्धारी नन्दन! मैंने तुम्हारे समीप पहले ही यह बात कह दी है कि मैं पाण्डवों को, उनके पुत्रों और श्रीकृष्ण के साथ ही परास्त कर दूँगा। महाराज! तुम धैर्य धारण करो। मैं तुम्हारा सेनापति बनूँगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। अब पाण्डवों को पराजित हुआ ही समझो।

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 10 श्लोक 1-19
  2. 2.0 2.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 10 श्लोक 20-39

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