श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन के बल की प्रशंसा

महाभारत कर्ण पर्व के अंतर्गत 73वें अध्याय में संजय ने श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म और द्रोण के पराक्रम का वर्णन करते हुए अर्जुन के बल की प्रशंसा करने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन की प्रशंसा करना

संजय कहते हैं- भरतनन्दन! तदनन्तर कर्ण का वध करने के लिये कृतसंकल्‍प होकर जाते हुए अर्जुन से अप्रमेयस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण ने पुन: इस प्रकार कहा- भारत! मनुष्‍यों, हाथियों और घोड़ों का जो यह‍ अत्यन्त भयंकर विनाश चल रहा है, इसे आज सत्रह दिन हो गये। प्रजानाथ! शत्रुओं के साथ-साथ तुम लोगों के पास भी विशाल सेना जुट गयी थी; परंतु परस्पर युद्ध करके प्राय: नष्ट हो गयी, अब थोड़ी सी ही शेष रह गयी है। पार्थ! कौरव पक्ष के योद्धा बहुसंख्‍यक हाथी घोड़ों से सम्पन्न थे, परंतु तुम जैसे वीर शत्रु को पाकर युद्ध के मुहाने पर नष्ट हो गये। तुम शत्रुओं के लिये दुर्जय हो, तुम्हारे ही आश्रय में रह कर ये तुम्हारे पक्ष के भूमिपाल सृंजय और पाण्डव योद्धा युद्धस्थल में डटे हुए हैं। तुमसे सुरक्षित हुए इन पाण्डव, पांचाल, मत्स्य, करुष तथा चेदिदेशीय शत्रुनाशक वीरों ने शत्रु समूहों का संहार कर डाला है। तात! तुम्हारे द्वारा सुरक्षित पाण्डव महारथियों को छोड़कर दूसरा कौन नरेश युद्ध में कौरवों को परास्त कर सकता है। तुम तो युद्ध के लिये तैयार होकर आये हुए देवता, असुर और मनुष्‍यों सहित तीनों लोकों को समरभूमि में जीत सकते हो, फिर कौरव सेना की तो बात ही क्‍या है? पुरुषसिंह! कोई इन्द्र के समान भी पराक्रमी क्‍यों न हो, तुम्हारे सिवा दूसरा कौन वीर राजा भगदत्त को जीत सकता था?

निष्‍पाप कुन्तीकुमार! तुम जिसकी रक्षा करते हो, उस विशाल सेना की ओर सारे राजा आँख उठाकर देख भी नहीं सके हैं। पार्थ! इसी प्रकार रणक्षेत्र में सदा तुमसे सुरक्षित रहकर ही धृष्टद्युम्न और शिखण्डी ने द्रोणाचार्य और भीष्म को मार गिराया है। कुन्तीनन्दन! भरतवंशियों की सेना के दो महारथी इन्द्रतुल्‍य पराक्रमी भीष्‍म और द्रोण को रणभूमि में युद्ध करते समय कौन जीत सकता था। नरव्याघ्र! अक्षौहिणी सेना के अधिपति:, वीर, अस्त्रवेत्ता, भयंकर पराक्रमी, संगठित, रणोन्मत्त तथा कभी पीछे न हटने वाले भीष्‍म, द्रोण, कृपाचार्य, वैंकर्तन कर्ण, अश्वत्थामा, भूरिश्रवा, कृतवर्मा, जयद्रथ, शल्य तथा राजा दुर्योधन जैसे समस्त महारथियों पर इस जगत में तुम्हारे सिवा, दूसरा कौन पुरुष विजय पा सकता है? अमर्षशील क्षत्रियों के बहुत से दल थे, जो बड़े भयंकर और अनेक जनपदों के निवासी थे, वे सब के सब नष्ट हो गये, उनके घोड़े, रथ और हाथी भी धूल में मिल गये। भारत! गोवास, दासमीय, वसाति, प्राच्य, वाटधान और भोजदेश के निवासी अभिमानी वीरों की तथा सम्पूर्ण क्षत्रियों की सेना, जिसमें उद्दण्ड घोड़ों और उन्मत्त हाथियों की संख्‍या अधिक थी, तुम्हारे और भीमसेन के पास पहुँचकर नष्ट हो गयी।

उग्र स्वभाव, भीषण पराक्रमी एवं भयंकर कर्म करने वाले तुषार, यवन, खश, दार्वाभिसार, दरद, शक, माठर, तंगण, आन्ध्र, पुलिंद, किरात, म्लेच्छ, पर्वतीय तथा समुद्रतटवर्ती योद्धा, जो युद्धकुशल, रोषावेश से युक्त, बलवान एवं हाथों में डंडे लिये हुए है, क्रोध में भरकर कौरव सैनिकों के साथ दुर्योधन की सहायता के लिये आये हैं; शत्रुओं को संताप देने वाले वीर! तुम्हारे सिवा दूसरा कोई इन्हें नहीं जीत सकता।[1] यदि तुम रक्षक न होते तो व्यूहाकार में खड़ी हुई धृतराष्ट्रपुत्रों की प्रचण्ड एवं विशाल सेना को सामने देखकर कौन मनुष्य उस पर चढ़ाई कर सकता था? प्रभो! तुमसे सुरक्षित रहकर ही क्रोध भरे पाण्डव योद्धाओं ने धूल से आच्‍छादित और समुद्र के समान उमड़ी हुई कौरव सेना को छिन्न भिन्न करके मार डाला है। अभी सात दिन ही हुए हैं, अभिमन्यु ने मगध देश के राजा महाबली जयत्सेन को युद्ध में मार डाला था। तत्पश्चात भीमसेन ने राजा जयत्सेन के भयानक कर्म करने वाले दस हजार हाथियों को, जो उन्हें सब ओर से घेरकर खड़े थे, गदा के आघात से नष्ट कर दिया। तदनन्तर और भी बहुत से हाथी तथा सैकड़ों रथ उनके द्वारा बलपूर्वक नष्ट किये गये। पाण्डुनन्दन! पार्थ! इस प्रकार महाभयंकर युद्ध आरम्‍भ होने पर तुम्‍हारे और भीमसेन के सामने आकर बहुत से कौरव सैनिक घोडे़, रथ और हाथियों सहित यहाँ से यमलोक पधार गये।[2]

कृष्ण द्वारा भीष्म और द्रोण के पराक्रम का वर्णन करते हुए अर्जुन की प्रशंसा करना

माननीय कुन्तीनन्दन! पाण्डव वीरों ने जब वहाँ सेना के प्रमुख भाग का विनाश कर डाला, तब भीष्म जी भयंकर बाण समूहों की वृष्टि करने लगे। वे उत्तम अस्त्रों के ज्ञाता तो थे ही, उन्होंने पाण्डव पक्ष के चेदि, काशी, पांचाल, करूष, मत्स्य और केकयदेशीय योद्धाओं को अपने बाणों से आच्‍छादित करके मौत के मुख में डाल दिया। उनके धनुष से छूटे हुए बाण शत्रुओं की काया को विदीर्ण कर देने वाले थे, उनमें सोने के पंख लगे थे और वे लक्ष्य की ओर सीधे पहुँचते थे। उन बाणों से सम्‍पूर्ण आकाश भर गया। वे एक-एक मुट्ठी बाण से ही युद्धस्थल में एकत्र हुए लाखों महाबली पैदल मनुष्यों और हाथियों का संहार करके सहस्रों रथियों को मार सकते थे। भीष्म जी युद्धस्थल में दोषयुक्त आविद्ध आदि नौ गतियों को छोड़कर केवल दशवीं गति से बाण छोड़ते थे। वे बाण पाण्डव पक्ष के घोड़ों, रथों और हाथियों का संहार करने लगे। लगातार दस दिनों तक तुम्‍हारी सेना का विनाश करते हुए भीष्म जी ने असंख्‍य रथों की बैठकें सूनी कर दीं, बहुत से हाथी और घोड़े मार डाले। उन्होंने रणभूमि में भगवान रुद्र और विष्णु के समान अपना भयंकर रूप दिखाकर पाण्डव सेनाओं का बलपूर्वक विनाश कर डाला। मूर्ख दुर्योधन नौकारहित विपत्ति के सागर में डूब रहा था; अत: भीष्म जी उसका उद्धार करना चाहते थे, उन्होंने चेदि, पांचाल तथा केकय नरेशों का वध करते हुए, रथ, घोड़ों और रथियों से भरी हुई पाण्डव सेना को भस्म कर डाला।

कोटि सहस्र पैदल तथा हाथों में उत्तम आयुध धारण किये हुए सृंजय सैनिक और दूसरे नरेश सूर्यदेव के समान ताप देते और समरांगण में विचरते हुए भीष्म की ओर आँख उठाकर देखने में भी समर्थ न हो सके। उस समय संग्राम भूमि में विचरते तथा विजय से उल्‍लासित होते हुए भीष्म जी पर पाण्डव योद्धा अपनी सारी शक्ति लगाकर बड़े वेग से टूट पड़े। किंतु समरांगण में भीष्म जी अकेले ही पाण्डवों और सृंजयों को खदेड़कर युद्ध में अद्वितिय वीर के रूप में विख्‍यात हुए। अर्जुन! तुमसे सुरक्षित हुए शिखण्डी ने महान व्रतधारी पुरुष सिंह भीष्म जी पर चढ़ाई करके झुकी हुई गाँठ वाले बाणों द्वारा उन्हें मार गिराया, वे ही ये पितामह भीष्म तुम जैसे पुरुषसिंह को विपक्ष में पाकर धराशायी हो शरशय्या पर सो रहे है। ठीक उसी तरह, जैसे वृत्रासुर इन्द्र से टक्‍कर लेकर रणशय्या पर सो गया था। तत्पश्चात उग्रमूर्ति महारथी द्रोणाचार्य पाँच दिनों तक अभेद्यव्यूह का निर्माण, शत्रु सेना का विध्‍वंस, महारथियों का विनाश तथा समरांगण में जयद्रथ की रक्षा करने के अनन्तर रात्रि युद्ध में यमराज के समान प्रजा को दग्‍ध करने लगे। प्रतापी भारद्वाज नन्दन और द्रोणाचार्य अपने बाणों द्वारा शत्रु योद्धाओं को दग्ध करके धृष्टद्युम्न से भिड़कर परमगति को प्राप्‍त हो गये। उस समय यदि तुम युद्धस्थल में सूतपुत्र आदि रथियों को न रोकते तो रणभूमि में द्रोणाचार्य का नाश नहीं होता। धनंजय! तुमने दुर्योधन की सारी सेना को रोक रखा था; इसीलिये धृष्टद्युम्न संग्राम में द्रोणाचार्य का वध कर सके।[2]

पार्थ! जयद्रथ का वध करते समय युद्ध में तुमने जैसा पराक्रम किया था, वैसा तुम्‍हारे सिवा दूसरा कौन क्षत्रिय कर सकता है। तुमने अपने अस्त्रों के बल और तेज से शूरवीर राजाओं का वध करके दुर्योधन की विशाल सेना को रोककर सिन्धुराज जयद्रथ को मार गिराया। पार्थ! सब राजा जानते हैं कि सिंधुराज जयद्रथ का वध एक आश्चर्यभरी घटना है, किंतु तुमसे ऐसा होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है; क्‍योंकि तुम असाधारण महारथी हो। रणभूमि में तुम्‍हें पाकर सारा क्षत्रिय समाज एक दिन में नष्ट हो सकता है, ऐसा कहना मैं युक्तिसंगत मानता हूँ। मेरी तो ऐसी ही धारणा है। कुन्तीनन्दन! जब भीष्म और द्रोणाचार्य युद्ध में मार डाले गये, तभी से मानो दुर्योधन की इस भयंकर सेना के सारे वीर मारे गये– इसका सर्वस्व नष्ट हो गया। इसके प्रधान प्रधान योद्धा नष्ट हो गये। घोड़े, रथ और हाथी भी मार डाले गये। अब यह कौरव सेना सूर्य, चन्द्रमा और नक्षत्रों से रहित आकाश के समान श्रीहीन जान पड़ती है। भयंकर पराक्रमी पार्थ! रणभूमि में विध्‍वंस को प्राप्त हुई यह कौरव सेना पूर्वकाल में इन्द्र के पराक्रम से नष्ट हुई असुरों की सेना के समान प्रतीत होती है। इन कौरव सैनिकों से अश्वत्थामा, कृतवर्मा, कर्ण, शल्‍य और कृपाचार्य- ये पाँच प्रमुख महारथी मरने से बच गये हैं। नरव्याघ्र! आज इन पाँचों महारथियों को मारकर तुम शत्रुहीन हो द्वीपों और नगरों सहित यह सारी पृथ्‍वी राजा युधिष्ठिर को दे दो।

अमित पराक्रम और कान्ति से सम्‍पन्न कुन्तीकुमार युधिष्ठिर आज आकाश, जल, पाताल, पर्वत और बड़े बड़े वनों सहित इस वसुधा को प्राप्त कर लें। जैसे पूर्वकाल में भगवान विष्णु ने दैत्यों और दानवों को मारकर यह त्रिलोकी इन्द्र को दे दी थी, उसी प्रकार तुम यह पृथ्‍वी राजा युधिष्ठिर को सौंप दो। जैसे भगवान विष्णु के द्वारा दानवों के मारे जाने पर देवता प्रसन्न होते हैं, उसी प्रकार आज तुम्‍हारे द्वारा शत्रुओं का संहार हो जाने पर समस्त पांचाल आनन्दित हो उठें। कमलनयन नरश्रेष्ठ अर्जुन! मनुष्यों में श्रेष्ठ गुरु द्रोणाचार्य का सम्‍मान करते हुए तुम्‍हारे हृदय में यदि अश्वत्थामा के प्रति दया है, अथवा आचार्योचित गौरव के कारण कृपाचार्य के प्रति कृपाभाव है, यदि माता कुन्ती के अत्यन्त पूजनीय बन्धु बान्धवों के प्रति आदर का भाव रखते हुए तुम कृतवर्मा पर आक्रमण करके उसे यमलोक भेजना नहीं चाहते तथा माता माद्री के भाई मद्रदेशीय जनता के अधिपति राजा शल्‍य को भी तुम दयावश मारने की इच्‍छा नहीं रखते तो न सही, किंतु पाण्डवों के प्रति सदा पापबुद्धि रखने वाले इस अत्यन्त नीच कर्ण को आज अपने पैने बाणों से मार ही डालो। यह तुम्‍हारे लिये पुण्य कर्म होगा। इस विषय में कोई विचार करने की आवश्‍यकता नहीं है। मैं भी तुम्‍हें इसके लिये आज्ञा देता हूँ, अत: इसमें कोई दोष नहीं है।[3]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 73 श्लोक 1-21
  2. 2.0 2.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 73 श्लोक 22-46
  3. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 73 श्लोक 47-66

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