कर्ण द्वारा भार्गवास्त्र से पांचालों का संहार

महाभारत कर्ण पर्व के अंतर्गत 64वें अध्याय में कर्ण द्वारा भार्गवास्त्र के प्रयोग से पांचालों के संहार का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

कर्ण द्वारा भार्गवास्त्र के प्रयोग से पांचालों का संहार करना

संजय कहते हैं- राजन! दुर्योधन ने कर्ण से जब कहा- ‘कर्ण! देखो, पांचालों ने मेरी इस विशाल सेना को अत्‍यन्‍त पीड़ित कर दिया है। ‘शत्रुदमन महाबाहु वीर! तुम्‍हारे रहते हुए भय के कारण मेरी सेना भाग रही है; यह जानकर इस समय जो कर्तव्‍य प्राप्‍त हो उसे करो। महावीर राधापुत्र कर्ण ने दुर्योधन की यह बात सुनकर मद्रराज शल्‍य से हंसते हुए से इस प्रकार कहा- ‘नरेश्वर! आज तुम मेरी दोनों भुजाओं और अस्त्रों का बल देखो। मैं रणभूमि में पाण्‍डवों सहित समस्‍त पांचालों का वध किये देता हूं, इसमें संशय नहीं है। पुरुषसिंह! आप कल्‍याण चिन्‍तनपूर्वक ही इन घोड़ों को आगे बढ़ाइये’। महाराज! ऐसा कहकर प्रतापी वीर सूतपुत्र कर्ण ने अपने विजय नामक श्रेष्‍ठ एवं पुरातन धनुष को लेकर उस पर प्रत्‍यंचा चढ़ायी; फिर उसे बारंबार हाथ में लेकर सत्‍य की शपथ दिलाते हुए समस्‍त योद्धाओं को रोका। इसके बाद अमेय आत्‍मबल से सम्‍पन्न उस महाबली वीर ने भार्गवास्त्र का प्रयोग किया। राजन! फिर तो उस महासमर में सहस्रों, लाखों, करोड़ों और अरबों तीखे बाण उस अस्त्र से प्रकट होने लगे। कंक और मोर की पांखवाले उन प्रज्‍वलित एवं भयंकर बाणों द्वारा पाण्डव-सेना आच्‍छादित हो गयी। कुछ भी सूझ नहीं पड़ता था। प्रजानाथ! प्रबल भार्गवास्त्र से समरांगण में पीड़ित होने वाले पांचालों का महान हाहाकार सब ओर गूंजने लगा।

राजन! गिरते हुए हाथियों, सहस्रों घोड़ों, रथों और मारे गये पैदल मनुष्‍यों के गिरने से सारी पृथ्‍वी सब ओर कम्पित होने लगी। पाण्‍डवों की सारी विशाल सेना व्‍याकुल हो गयी। नरव्‍याघ्र! शत्रुओं को तपाने वाला योद्धाओं में श्रेष्‍ठ एकमात्र कर्ण ही धूमरहित अग्नि के समान शत्रुओं को दग्‍ध करता हुआ शोभा पा रहा था। जैसे वन में आग लगने पर उसमें रहने वाले हाथी जहाँ-तहाँ दग्‍ध होकर मूर्च्छित हो जाते हैं, उसी प्रकार कर्ण के द्वारा मारे जाने वाले पांचाल और चेदि योद्धा यत्र-तत्र मूर्च्छित होकर पड़े थे। पुरुषसिंह! वे श्रेष्‍ठ योद्धा व्‍याघ्रों के समान चीत्‍कार करते थे। राजन! युद्ध के मुहाने पर भयभीत हो चिल्‍लाते और डरकर सब ओर भागते हुए उन सैनिकों का महान आर्तनाद प्रलयकाल में समस्‍त प्राणियों के चीत्‍कार के समान जान पड़ता था। आर्य! सूतपुत्र के द्वारा मारे जाते हुए उन योद्धाओं को देखकर समस्‍त प्राणी पशु-पक्षी भी भय से थर्रा उठे। सूतपुत्र द्वारा समरांगण मारे जाते हुए सृंजय बारंबार अर्जुन और श्रीकृष्‍ण को पुकारते थे। ठीक उसी तरह, जैसे प्रेतराज के नगर में क्‍लेश से अचेत हुए प्राणी प्रेतराज को ही पुकारते हैं।

अर्जुन और कृष्ण का संवाद

कर्ण के बाणों द्वारा मारे जाते हुए उन सैनिकों का आर्तनाद सुनकर तथा वहाँ महाभयंकर भार्गवास्त्र का प्रयोग हुआ देखकर कुन्‍तीपुत्र अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्‍ण से कहा।- ‘महाबाहु श्रीकृष्‍ण! यह भार्गवास्त्रर का पराक्रम देखिये। समरांगण में किसी तरह इस अस्त्र को नष्‍ट नहीं किया जा सकता। ‘श्रीकृष्‍ण! क्रोध में भरा हुआ सूतपुत्र, जो पराक्रम में यमराज के समान है, महासमर में कैसा दारुण कर्म कर रहा है। ‘वह निरन्‍तर घोड़ों को हांकता हुआ बारंबार मेरी ही ओर देख रहा है। समरभूमि में कर्ण के सामने से पलायन करना मैं उचित नहीं समझता। ‘मनुष्‍य जीवित रहे तो वह युद्ध में विजय और पराजय दोनों पाता है। हृषीकेश! मरे हुए मनुष्‍य का नो नाश ही हो जाता है; फिर उसकी विजय कहाँ से हो सकती है’। अर्जुन के ऐसा कहने पर श्रीकृष्‍ण ने बुद्धिमानों में श्रेष्‍ठ शत्रुदमन अर्जुन से यह समयोचित बात कही। ‘पार्थ! कर्ण ने राजा युधिष्ठिर को अत्‍यन्‍त क्षत-विक्षत कर दिया है। उनसे मिलकर उन्‍हें धीरज बंधाकर फिर तुम कर्ण का वध करना’।

अर्जुन और कृष्ण का युधिष्ठिर के पास जाना

प्रजानाथ! ऐसा कहकर वे पुन: युधिष्ठिर से मिलने की इच्‍छा से तथा कर्ण को युद्ध में अधिक थकावट प्राप्‍त कराने के लिये वहाँ से चल दिये। तत्‍पश्चात् अर्जुन श्रीकृष्‍ण की आज्ञा से बाण पीड़ित राजा युधिष्ठिर देखने के लिये रथ के द्वारा युद्धस्‍थल से शीघ्रता पूर्वक गये। भारत! कुन्‍तीकुमार अर्जुन ने द्रोणपुत्र के साथ युद्ध करके रणभूमि में वज्रधारी इन्‍द्र के लिये भी दु:सह उस गुरुपुत्र को पराजित करने के पश्चात् जाते समय धर्मराज को देखने की इच्‍छा से सारी सेना पर दृष्टिपात किया। परंतु वहाँ कहीं भी अपने बड़े भाई को नहीं देखा।

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 64 श्लोक 42-70

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