युधिष्ठिर का अर्जुन के प्रति अपमानजनक क्रोधपूर्ण वचन

महाभारत कर्ण पर्व के अंतर्गत 68वें अध्याय में संजय ने युधिष्ठिर के द्वारा अर्जुन के प्रति कहे गए अपमानजनक क्रोधपूर्ण वचनों का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

युधिष्ठिर द्वारा अर्जुन को अपमानजनक क्रोधपूर्ण वचन कहना

संजय कहते हैं- राजन! कर्ण के बाणों से संतप्‍त हुए अमित तेजस्‍वी कुन्‍तीकुमार राजा युधिष्ठिर अधिक बलशाली कर्ण को सकुशल सुनकर अर्जुन पर कुपित हो उनसे इस प्रकार बोले- ‘तात! तुम्‍हारी सारी सेना भाग चली है। तुमने आज उसकी ऐसी उपेक्षा की है, जो किसी प्रकार अच्‍छी नहीं कही जा सकती। जब तुम कर्ण को जीत नहीं सके तो भयभीत हो भीमसेन को वहीं छोड़कर यहाँ चले आये। पार्थ! तुमने कुन्ती के गर्भ में निवास करके भी अपने सगे भाई के प्रति ऐसा स्‍नेह निभाया, जिसे कोई अच्‍छा नहीं कह सकता; क्‍योंकि जब तुम सूतपुत्र कर्ण को मारने में समर्थ न हो सके, तब भीमसेन को अकेले रणभूमि में छोड़कर स्‍वयं वहाँ से चले आये। तुमने द्वैतवन में जो यह सत्‍य वचन कहा था कि ‘मैं एक मात्र रथ के द्वारा युद्ध करके कर्ण को मार डालूंगा’ उस प्रतिज्ञा को तोड़कर कर्ण से भयभीत हो भीमसेन को छोड़कर आज तुम रणभूमि से लौट कैसे आये। पार्थ! यदि तुमने द्वैतवन में यह कह दिया होता कि ‘राजन! मैं कर्ण के साथ युद्ध नहीं कर सकूंगा’ तो हम सब लोग समयोचित कर्तव्‍य का निश्चय करके उसी के अनुसार कार्य करते। वीर! तुमने मुझसे कर्ण के वध की प्रतिज्ञा करके उसका उसी रुप में पालन नहीं किया। यदि ऐसा ही करना था तो हमें शत्रुओं के बीच में लाकर पत्‍थर की वेदी पर पटककर पीस क्‍यों डाला। राजकुमार अर्जुन! हमने बहुत से मंगलमय अभीष्ट पदार्थ प्राप्‍त करने की इच्‍छा रखकर तुम पर आशा लगा रखी थी; परंतु फल चाहने वाले मनुष्‍यों को अधिक फूलों वाला फलहीन वृक्ष जैसे निराश कर देता है, उसी प्रकार तुम से हमारी सारी आशा निष्‍फल हो गयी। मैं राज्‍य पाना चाहता था; किंतु तुमने मांस के ढके हुए वंशी के कांटे और भोजन सामग्री से आच्‍छादित हुए विष के समान मुझे राज्‍य के रुप में अनर्थकारी विनाश का ही दर्शन कराया है।

धनंजय! जैसे बोया हुआ बीज समय पर मेघ द्वारा की हुई वर्षों की प्रतीक्षा में जीवित रहता है, उसी प्रकार हमने तेरह वर्षों तक सदा तुम पर ही आशा लगाकर जीवन धारण किया था; परंतु तुमने हम सब लोगों को नरक में डुबो दिया (भारी संकट में डाल दिया)। मन्‍दबुद्धि अर्जुन! तुम्‍हारे जन्‍म लिये सात ही दिन बीते थे कि माता कुन्‍ती से आकाशवाणी ने इस प्रकार कहना आरम्‍भ किया- ‘देवि! तुम्‍हारा यह पुत्र इन्‍द्र के समान पराक्रमी पैदा हुआ है। यह अपने समस्‍त शूरवीर शत्रुओं को जीत लेगा। यह उत्तम शक्ति से सम्‍पन्न बालक खाण्डववन में देवताओं के समूहों तथा सम्‍पूर्ण प्राणियों पर भी विजय प्राप्‍त करेगा। यह मद्र, कलिंग और केकयों को जीतेगा तथा राजाओं की मण्‍डली में कौरवों का भी विनाश कर डालेगा। इससे बढ़कर दूसरा कोई धनुर्धर नहीं होगा। कोई भी प्राणी कभी भी इसे जीत नहीं सकेगा। यह अपने मन और इन्द्रियों को वश में रखता हुआ सम्‍पूर्ण विद्याओं को प्राप्‍त कर लेगा और इच्‍छा करते ही सभी प्राणियों को अपने अधीन कर सकेगा।[1] यह चन्द्रमा की कान्ति, वायु के वेग, मेरु की स्थिरता, पृथ्‍वी की क्षमा, सूर्य की प्रभा, कुबेर की लक्ष्‍मी, इन्‍द्र के शौर्य और भगवान विष्‍णु के बल से सम्‍पन्‍न होगा। कुन्ति! तुम्‍हारा यह महामनापुत्र अदिति के गर्भ से प्रकट हुए शत्रुहन्‍ता भगवान विष्‍णु के समान उत्‍पन्न हुआ है। यह अमितबलशाली बालक स्‍वजनों की विजय और शत्रुओं के वध के लिये प्रसिद्ध एवं अपनी कुलपरम्‍परा का प्रवर्तक होगा’। शतश्रृंग पर्वत के शिखर तपस्‍वी महात्‍माओं के सुनते हुए आकाशवाणी ने ये बातें कही थी; परंतु उसका यह कथन सफल नहीं हुआ। निश्चय ही देवतालोग भी झूठ बोलते हैं। इसी प्रकार दूसरे महर्षि भी सदा तुम्‍हारी प्रशंसा करते हुए ऐसी बातें कहा करते थे।

उनकी बातें सुनकर ही मैं दुर्योधन के सामने कभी नतमस्‍तक न हो सका; परंतु मैं यह नहीं जानता था कि तुम अधिरथपुत्र कर्ण के भय से पीड़ित हो जाओगे। दुर्योधन ने पहले ही जो यह बात कह दी थी कि ‘अर्जुन युद्ध में महाबली कर्ण के सामने नहीं खड़े हो सकेंगे', उसके इस कथन पर मैंने मूर्खतावश विश्वास नहीं किया था। इसलिये आज संतप्‍त हो रहा हूँ। शत्रुओं के समुदाय में फंसकर असीम नरक-तुल्‍य संकट में पड़ गया हूँ। अर्जुन! तुम्‍हें पहले ही यह कह देना चाहिये था कि ‘मैं सूत पुत्र कर्ण के साथ किसी प्रकार युद्ध नहीं करुंगा’। वैसी दशा में मैं सृंजयों, केकयों तथा अन्‍यान्‍य सुहृदों को युद्ध के लिये आमन्त्रित नहीं करता। आज जब ऐसी परिस्थिति है, तब सूतपुत्र कर्ण, राजा दुर्योधन तथा अन्‍य जो लोग मेरे साथ युद्ध की इच्‍छा से एकत्र हुए हैं, उन सबके साथ छिड़े हुए इस संग्राम में मैं कौन-सा कार्य कर सकता हूँ। श्रीकृष्‍ण! मैं कौरवों, सुहृदों तथा अन्‍य जो लोग युद्ध की इच्‍छा से एकत्र हुए हैं, उन सबके बीच में आज सूतपुत्र कर्ण के अधीन हो गया। मेरे जीवन को धिक्कार है। आज एकमात्र भीमसेन ही मेरे रक्षक हैं, जिन्‍होंने महान भयदायक संग्राम में सब ओर से मेरी रक्षा की है। उन्‍होंने मुझे संकट से मुक्त करके अपने पैने बाण से कर्ण को बींध डाला था। भीमसेन का शरीर खून से नहा उठा था। फिर भी वे हाथ में गदा लेकर प्रलयकाल के यमराज की भाँति रणभूमि में विचरते थे और प्राणों का मोह छोड़कर समरांगण में एकत्र हुए कौरवों के साथ युद्ध करते थे। धृतराष्ट्र के पुत्रों के साथ युद्ध करते हुए भीमसेन का वह महान सिंहनाद बारंबार सुनायी दे रहा है। पार्थ! यदि महारथियों में श्रेष्ठ और उत्तम रथी तुम्‍हारा पुत्र अभिमन्यु जीवित होता तो वह शत्रुओं का वध अवश्‍य करता। फिर तो समरभूमि में मुझे ऐसा अपमान नहीं उठाना पड़ता। यदि समरांगण में घटोत्कच भी जीवित होता तो भी मुझे वहाँ से मुंह फेरकर भागना नहीं पड़ता।[2]

भीमसेन का वह पुत्र समरभूमि में आगे चलने वाला, महान अस्त्रवेत्ता और तुम्‍हारे समान ही पराक्रमी था। उसके होने पर हमारे शत्रुओं की सेना यत्न करके भी सफल न होती और भय से व्‍याकुल होकर आंखें बंद कर लेती। उस महानुभाव वीर ने अकेले ही रात्रि में युद्ध किया था, जिससे शत्रुसैनिक भय से मारे रणभूमि छोड़कर भागने लगे थे। उसने कर्ण पर आक्रमण करके रणभूमि में अपने बाण समूहों द्वारा सबको मोह में में डाल दिया था; परंतु धैर्य में स्थित हुए सूतपुत्र कर्ण ने इन्द्र की दी हुई उस शक्ति के द्वारा उसे मार डाला। निश्चय ही मेरे अभाग्‍य और पूर्वकृत पाप इस युद्ध में प्रबल हो रहे हैं। दुरात्‍मा कर्ण ने संग्राम में तुम्‍हें तिनके के समान समझकर मेरा ऐसा अपमान किया है। किसी शक्तिहीन तथा बन्‍धु-बान्‍धवों से रहित असहाय मनुष्‍य के सा‍थ जैसा बर्ताव किया जाता है, कर्ण ने वैसा ही मेरे साथ किया है। जो कोई पुरुष आपति में पड़े हुए मनुष्‍य को संकट से छुड़ा देता है, वही बन्‍धु है और वही स्‍नेही सुदृढ़। प्राचीन महर्षि ऐसा ही कहते हैं। यही सत्‍पुरुषों द्वारा सदा से पालित होने वाला धर्म है। कुन्‍तीनन्‍दन! तुम्‍हारा रथ साक्षात विश्वकर्मा का बनाया हुआ है, उसके धुरे से कोई आवाज नहीं होती।

उस पर वानरध्‍वजा फहराती रहती है, ऐसे शुभलक्षण रथ पर आरुढ़ हो सुवर्णजटित खंड और चार हाथ के श्रेष्ठ धनुष गाण्डीव को लेकर तथा भगवान श्रीकृष्‍ण जैसे सारथि के द्वारा संचालित होकर भी तुम कर्ण से भयभीत होकर कैसे भाग आये। तुम अपना गाण्‍डीव धनुष भगवान श्रीकृष्‍ण को दे दो तथा रणभूमि में स्‍वयं इनके सारथि बन जाओ। फिर जैसे इन्‍द्र ने हाथ में वज्र लेकर वृत्रासुर का वध किया था, उसी प्रकार ये श्रीकृष्‍ण भयंकर वीर कर्ण को मार डालेंगे। यदि तुम आज रणभूमि में विचरते हुए इस भयानक वीर राधापुत्र कर्ण का सामना करने की शक्ति नहीं रखते तो अब यह गाण्‍डीव धनुष दूसरे किसी ऐसे राजा को दे दो, जो अस्त्र-बल में तुमसे बढ़कर हो। पाण्‍डुनन्‍दन! ऐसा हो जाने पर संसार के मनुष्‍य हमें फिर इस प्रकार स्‍त्री-पुत्रों के संयोग से रहित, राज्‍य नष्‍ट होने के कारण सुख से वंचित तथा पापियों द्वारा सेवित अगाध नरक-तुल्‍य कष्‍ट में गिरा हुआ नहीं देखेंगे। दुरात्‍मा राजपुत्र! यदि तुम पांचवें महीने में माता के गर्भ से गिर गये होते अथवा माता कुन्‍ती के अष्‍टदायक गर्भ में आये ही नहीं होते तो वह तुम्‍हारे लिये अच्‍छा होता; क्‍योंकि उस दशा में तुम्‍हें युद्ध से भाग आने का कलंक तो नहीं प्राप्‍त होता। धिक्‍कार है तुम्‍हारे इस गाण्‍डीव धनुष को, धिक्‍कार है तुम्‍हारी भुजाओं के पराक्रम को, धिक्‍कार है तुम्‍हारे इन असंख्‍य बाणों को, धिक्‍कार है हनुमान जी के द्वारा उपलक्षित तुम्‍हारी इस ध्‍वजा को तथा धिक्‍कार है अग्रिदेव के दिये हुए इस रथ को’।[3]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 68 श्लोक 1-12
  2. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 68 श्लोक 13-21
  3. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 68 श्लोक 22-30

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