कर्ण का मद्र आदि बाहीक निवासियों के दोष बताना

महाभारत कर्ण पर्व के अंतर्गत 45वें अध्याय में संजय ने कर्ण का मद्र आदि बाहीक निवासियों के दोष बताने का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]-

कर्ण का मद्र एवं बाहीक निवासियों के दोषों का वर्णन

कर्ण बोला- 'शल्य! पहले जो बातें बतायी गई हैं, उन्हें समझो। अब मैं पुनः तुमसे कुछ कहता हूँ। मेरी कही हुई इस बात को तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो। पूर्वकाल में एक ब्राह्मण अतिथि के रूप में हमारे घर पर ठहरा था। उसने हमारे यहाँ का आचार-विचार देखकर प्रसन्नता प्रकट करते हुए यह बात कही- मैंने अकेले ही दीर्घकाल तक हिमालय के शिखर पर निवास किया है और विभिन्न धर्मों से सम्पन्न बहुत से देश देखे हैं। इन सब देशों के लोग किसी भी निमित्त से धर्म के विरुद्ध नहीं जाते। वेदों के पारगामि विद्वानों ने जैसा बताया है, उसी रूप में वे लोग सम्पूर्ण धर्म को मानते और बतलाते हैं। महाराज! विभिन्न धर्मों से युक्त अनेक देशों में घूमता-घामता जब मैं बाहीक देश में आ रहा था, तब वहाँ ऐसी बातें देखने और सुनने में आयीं। उस देश में एक ही बाहीक पहले ब्राह्मण होकर फिर क्षत्रिय होता है। तत्पश्चात् वैश्य और शूद्र भी बन जाता है। उसके बाद वह नाई होता है। नाई होकर फिर ब्राह्मण हो जाता है। ब्राह्मण होने के पश्चात् फिर वही दास बन जाता है।[2] वहाँ एक ही कुल में कुछ लोग ब्राह्मण और कुछ लोग स्वेच्छाचारी वर्णसंकर संतान उत्पन्न करने वाले होते हैं। गान्धार, मद्र और बाहीक- इन सभी देशों के लोग मन्द बुद्धि हुआ करते हैं। उस देश में मैंने इस प्रकार धर्म संकरता फैलाने वाली बातें सुनीं। सारी पृथ्वी में घूमकर केवल बाहीक देश में ही मुझे धर्म के विपरीत आचार-व्यवहार दिखायी दिया। शल्य! ये सब बातें जान लो। अभी और कहता हूँ। एक दूसरे यात्री ने भी बाहीकों के सम्बन्ध में जो घृणित बातें बतायी थीं, उन्हें सुनो।

कहते हैं, प्राचीन काल में लुटेरे डाकुओं ने आरट्ट देश से किसी सती स्त्री का अपहरण कर लिया और अधर्म पूर्वक उसके साथ समागम किया। तब उसने उन्हें यह शाप दे दिया- मैं अभी बालिका हूँ और मेरे भाई-बन्धु मौजूद हैं तो भी तुम लोगों ने अधर्म पूर्वक मेरे साथ समागम किया है। इसलिए इस कुल की सारी स्त्रियाँ व्यभिचारिणी होंगी। नराधमों! तुम्हें इस घोर पाप से कभी छुटकारा नहीं मिलेगा। कुरु, पांचाल, शाल्व, मत्स्य, नैमिष, कोसल, काशी, अंग, कलिंग, मगध और चेदि देशों के बड़भागी मनुष्य सनातन धर्म को जानते हैं। भिन्न-भिन्न देशों में बाहीक निवासियों को छोड़कर प्रायः सर्वत्र श्रेष्ठ पुरुष उपलब्ध होते हैं। मत्स्य से लेकर कुरु और पांचाल देश तक, नैमिषारण्य से लेकर चेदि देश तक जो लोग निवास करते हैं, वे सभी श्रेष्ठ एवं साधु पुरुष हैं और प्राचीन धर्म का आश्रय लेकर जीवन निर्वाह करते हैं। मद्र और पंचनद प्रदेशों में ऐसी बात नहीं है। वहाँ के लोग कुटिल होते हैं। राजा शल्य! ऐसा जानकर तुम जड़ पुरुषों के समान धर्मोपदेश की ओर से मुँह मोड़कर चुपचाप बैठे रहो। तुम बाहीक देश के लोगों के राजा और रक्षक हो; अतः उनके पुण्य और पाप का भी छठा भाग ग्रहण करते हो। अथवा उनकी रक्षा न करने के कारण तुम केवल उनके पाप में ही हिस्सा बँटाते हो। प्रजा की रक्षा करने वाला राजा ही उसके पुण्य का भागी होता है; तुम तो केवल पाप के ही भागी हो।[1]

पूर्वकाल में समस्त देशों में प्रचलित सनातन धर्म की जब प्रशंसा की जा रही थी, उस समय ब्रह्मा जी ने पंचनद वासियों के धर्म पर दृष्टिपात करके कहा था कि धिक्कार है इन्हें! संस्कारहीन, जारज और पापकर्मी पंचनदवासियों के धर्म की जब ब्रह्मा जी ने सत्ययुग में भी निन्दा की, तब तुम उसी देश के निवासी होकर जगत् में क्यों धर्मोपदेश करते हो? पितामह ब्रह्मा ने पंचनद निवासियों के आचार-व्यवहार रूपी धर्म का इस प्रकार अनादर किया है। अपने धर्म में तत्पर रहने वाले अन्य देशों की तुलना में उन्होंने इनका आदर नहीं किया। शल्य! इन सब बातों को अच्छी तरह जान लो। अभी इस विषय में तुमसे और कुछ भी बातें बता रहा हूँ, जिन्हें सरोवर में डूबते हुए राक्षस कल्माषपाद ने कहा था। क्षत्रिय का मल है भिक्षावृत्ति, ब्राह्मण का मल है वेद-शास्त्रों के विपरीत आचरण, पृथ्वी के मल हैं बाहीक और स्त्रियों का मल हैं मद्र देश की स्त्रियाँ। उस डूबते हुए राक्षस का किसी राजा ने उद्धार करके उससे कुछ प्रश्न किया। उनके उस प्रश्न के उत्तर में राक्षस ने जो कुछ कहा था, उसे सुनो- मनुष्यों के मल हैं म्लेच्छ, म्लेच्छों के मल हैं शराब बेचने वाले कलाल, कलालों के मल हैं हींजड़े और हींजड़ों के मल हैं राजपुरोहित। राजपुरोहितों के पुरोहित तथा मद्र देश वासियों का जो मल है, वह सब तुम्हें प्राप्त हो, यदि इस सरोवर से तुम मेरा उद्धार न कर दो। जिन पर राक्षसों का उपद्रव है तथा जो विष के प्रभाव से मारे गये हैं, उनके लिये यह उत्तम सिद्ध वाक्य ही राक्षस के प्रभाव का निवारण करने वाला एवं जीवन रक्षक औषध बताया गया है।

पांचाल देश के लोग वेदोक्त धर्म का आश्रय लेते हैं, कुरु देश के निवासी धर्मानुकूल कार्य करते हैं, मत्स्य देश के लोग सत्य बोलते और शूरसेन निवासी यज्ञ करते हैं। पूर्व देश के लोग दास कर्म करने वाले, दक्षिण के निवासी वृषल, बाहीक देश के लोग चोर और सौराष्ट्र निवासी वर्णसंकर होते हैं कृतघ्नता, दूसरों के धन का अपहरण, मदिरापान, गुरुपत्नी गमन, कटु वचन का प्रयोग, गोवध, रात के समय घर से बाहर घूमना और दूसरों के वस्त्र का उपयोग करना- ये सब जिनके धर्म हैं, उन आरट्टों और पंचनद वासियों के लिये अधर्म नाम की कोई वस्तु है ही नहीं। उन्हें धिक्कार है। पांचाल, कौरव, नैमिष और मत्स्य देशों के निवासी धर्म को जानते हैं। उत्तर, अंग तथा मगध देशों के वृद्ध पुरुष शास्त्रोक्त धर्मों का आश्रय लेकर जीवन निर्वाह करते हैं। अग्नि आदि देवता पूर्व दिशा का आश्रय लेकर रहते हैं, पितर पुण्यकर्मा यमराज के द्वारा सुरक्षित दक्षिण दिशा में निवास करते हैं, बलवान वरुण देवताओं का पालन करते हुए पश्चिम दिशा की रक्षा में तत्पर रहते हैं और भगवान सोम ब्राह्मणों के साथ उत्तर दिशा की रक्षा करते हैं। महाराज! राक्षस, पिशाच और गुह्यक- ये गिरिराज हिमालय तथा गन्धमादन पर्वत की रक्षा करते हैं और अविनाशी एवं सर्वव्यापी भगवान जनार्दन समस्त प्राणियों का पालन करते हैं (परंतु बाहीक देश पर किसी भी देवता का विशेष अनुग्रह नहीं है)।

मगध देश के लोग इशारों से ही सब बात समझ लेते हैं, कोसल निवासी नेत्रों की भावभंगी से मन का भाव जान लेते हैं, कुरु तथा पांचाल देश के लोग आधी बात कहने पर ही पूरी बात समझ लेते हैं, शाल्व देश के निवासी पूरी बात कह देने पर उसे समझ पाते हैं, परंतु शिवि देश के लोगों की भाँति पर्वतीय प्रान्तों के निवासी इन सबसे विलक्षण होते हैं। वे पूरी बात कहने पर भी नहीं समझ पाते।[3] राजन! यद्यपि यवन जातीय म्लेच्छ सभी उपायों से बात समझ लेने वाले और विशेषतः शूर होते हैं, तथापि अपने द्वारा कल्पित संशयों पर ही अधिक आग्रह रखते हैं (वैदिक धर्म को नहीं मानते)। अन्य देशों के लोग बिना कहे हुए कोई बात नहीं समझते हैं, परंतु बाहीक देश के लोग सब काम उलटे ही करते हैं (उनकी समझ उलटी ही होती है) और मद्र देश के कुछ निवासी तो ऐसे होते हैं कि कुछ भी नहीं समझ पाते। शल्य! ऐसे ही तुम हो। अब मेरी बात का जवाब नहीं दोगे। मद्र देश के निवासी को पृथ्वी के सम्पूर्ण देशों का मल बताया जाता है। मदिरापान, गुरु की शैय्या का उपभोग, भ्रूणहत्या और दूसरों के धन का अपहरण- ये जिनके धर्म हैं, उनके लिये अधर्म नाम की कोई वस्तु नहीं। ऐसे आरट्ट और पंचनद देश के लोगों को धिक्कार है। यह जानकर तुम चुपचाप बैठे रहो। फिर कोई प्रतिकूल बात मुँह से न निकालो। अन्यथा पहले तुम्हीं को मारकर पीछे श्रीकृष्ण और अर्जुन का वध करूँगा।[4]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 45 श्लोक 1-18
  2. विभिन्न जातियों के कर्म को अपनाने के कारण वह उन जातियों के नाम से निर्दिष्ट होने लगता है।
  3. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 45 श्लोक 19-35
  4. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 45 श्लोक 36-48

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