परशुराम द्वारा कर्ण को दिव्यास्त्र प्राप्ति का वर्णन

महाभारत कर्ण पर्व के अंतर्गत 34वें अध्याय में दुर्योधन का शल्य को परशुराम द्वारा कर्ण के दिव्यास्त्रप्राप्ति का वर्णन किया गया है, जो इस प्रकार है[1]-

दुर्योधन द्वारा परशुराम को शिव से दिव्यास्त्रप्राप्ति का वर्णन

वहाँ विश्वविधाता सर्वोत्कृष्ट अविनाशी पितामह भगवान ब्रह्मा ने जिस प्रकार रुद्र का सारथि-कर्म किया था तथा जिस प्रकार उन पितामह ने रुद्रदेव के घोड़ों की बागडोर सँभाली थी, उसी प्रकार आप भी शीघ्र ही इस महामनस्वी राधापुत्र कर्ण के घोड़ों को काबू में कीजिये। नृपश्रेष्ठ! आप श्रीकृष्ण से, कर्ण से और अर्जुन से भी श्रेष्ठ हैं, इसमें कोई अन्यथा विचार करने की आवश्यकता नहीं है। यह कर्ण युद्धक्षेत्र में रुद्र के समान है और आप भी नीति में ब्रह्मा जी के तुल्य हैं; अतः आप उन असुरों की भाँति मेरे शत्रुओं को जीतने में समर्थ हैं। शल्य! आप शीघ्र ऐसा प्रयत्न कीजिये, जिससे यह कर्ण उस श्वेतवाहन अर्जुन को, जिसके सारथि श्रीकृष्ण हैं? मथकर मार डाले। मद्रराज! आप पर ही मेरी राज्य प्राप्ति विषयक अभिलाषा और जीवन की आशा निर्भर है। आपके द्वारा कर्ण का सारथि कर्म सम्पादित होने पर जो आज विजय मिलने वाली है, उसकी सफलता भी आप पर ही निर्भर है। आप पर ही कर्ण, राज्य, हम और हमारी विजय प्रतिष्ठित हैं। इसलिये आज संग्राम में आप इन उत्तम घोड़ों को अपने वश में कीजिये।

राजन! आप मुझसे फिर यह दूसरा इतिहास भी सुनिये, जिसे एक धर्मज्ञ ब्राह्मण ने मेरे पिता के समीप कहा था। शल्य! कारण और कार्य से युक्त इस विचित्र ऐतिहासिक वार्ता को सुनकर आप अचछी तरह सोच-विचार लेने के पश्चात् मेरा कार्य करें, इस विषय में आपके मन में कोई अन्यथा विचार नहीं होना चाहिये। भार्गववंश में महायशस्वी महर्षि जमदग्नि प्रकट हुए थे, जिनके तेजस्वी और गुणवान पुत्र परशुराम के नाम से विख्यात हुए हैं। उन्होंने अस्त्र-प्राप्ति के लिये मन और इन्द्रियों को संयम में रखते हुए प्रसन्न हृदय से भारी तपस्या करके भगवान शंकर को प्रसन्न किया। उनकी भक्ति और मनःसंयम से संतुष्ट हो सबका कल्याण करने वाले महादेव जी ने उनके मनोगत भाव को जानकर उन्हें अपने दिव्य शरीर का प्रत्यक्ष दर्शन कराया। महादेव जी बोले- 'राम! तुम्हारा कल्याण हो। मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। तुम क्या चाहते हो, यह मुझे विदित है। अपने हृदय को शुद्ध करो। तुम्हें यह सब कुछ प्राप्त हो जायगा। जब तुम पवित्र हो जाओगे, तब तुम्हें अपने अस्त्र दूँगा, भृगुनन्दन! अपात्र और असमर्थ पुरुष को तो ये अस्त्र जलाकर भस्म कर डालते हैं। त्रिशूलधारी देवाधिदेव महादेव जी के ऐसा कहने पर जमदग्निनन्दन परशुराम ने उन महात्मा भगवान शिव को मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा- यदि आप देवेश्वर प्रभु मुझे अस्त्र धारण का पात्र समझें तभी मुझ सेवक को दिव्यास्त्र प्रदान करें।

दुर्योधन कहता है- तदनन्तर परशुराम ने बहुत वर्षों तक तपस्या, इन्द्रिय-संयम, मनोनिग्रह, पूजा, उपहार, भेंट, अर्पण, होम और मन्त्र-जप आदि साधनों द्वारा भगवान शिव की आराधना की। इससे महादेव जी महात्मा परशुराम पर प्रसन्न हो गये और उन्होंने पार्वती देवी के समीप उनके गुणों का बारंबार वर्णन किया- ‘ये दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाले परशुराम मेरे प्रति सदा भक्तिभाव रखते हैं।[1] शत्रुसूदन! इसी प्रकार प्रसन्न हुए भगवान शिव ने देवताओं और पितरों के समक्ष भी बारंबार प्रसन्नतापूर्वक उनके गुणों का वर्णन किया। इन्हीं दिनों की बात है, दैत्य लोग महान बल से सम्पन्न हो गये थे। वे दर्प और मोह आदि के वशीभूत हो उस समय देवताओं को सताने लगे। तब सम्पूर्ण देवताओं ने एकत्र हो उन्हें मारने का निश्चय करके शत्रुओं के वध के लिये यत्न किया; परंतु वे उन्हें जीत न सके। तत्पश्चात् देवताओं ने उमावल्लभ महेश्वर के समीप जाकर भक्तिपूर्वक उन्हें प्रसन्न किया और कहा- ‘प्रभो! हमारे शत्रुओं का संहार कीजिये। तब कल्याणकारी महादेव जी ने देवताओं के समक्ष उनके शत्रुओं का संहार करने की प्रतिज्ञा करके भृगुनन्दन परशुराम को बुलाकर इस प्रकार कहा- ‘भार्गव! तुम तीनों लोकों के हित की इच्छा से तथा मेरी प्रसन्नता के लिये देवताओं के समस्त समागत शत्रुओं का वध करो'। उनके ऐसा कहने पर परशुराम ने वरदायक भगवान त्रिलोचन को इस प्रकार उत्तर दिया। परशुराम बोले- 'देवेश्वर! मैं तो अस्त्रविद्या का ज्ञाता नहीं हूँ। फिर युद्ध स्थल में अस्त्रविद्या के ज्ञाता तथा रणदुर्मद समस्त दानवों का वध करने के लिये मुझमें क्या शक्ति है?

महेश्वर ने कहा- राम! तुम मेरी आज्ञा से जाओ। निश्चय ही देव-शत्रुओं का संहार करोगे। उन समस्त वैरियों पर विजय पाकर प्रचुर गुण प्राप्त कर लोगे। उनकी यह बात सुनकर उसे सब प्रकार से शिरोधार्य करके परशुराम स्वस्तिवाचन आदि मंगलकृत्य करने के पश्चात् दानवों का सामना करने के लिये गये और महान् दर्प एवं बल से सम्पन्न उन देवशत्रुओं से इस प्रकार बोले- ‘युद्ध के मद में उन्मत्त रहने वाले दैत्यों! मुझे युद्ध प्रदान करो। महान असुरगण! मुझे देवाधिदेव महादेव जी ने तुम्हें परास्त करने के लिये भेजा है'। भृगुवंशी परशुराम के ऐसा कहने पर दैत्य उनके साथ युद्ध करने लगे। भार्गवनन्दन राम ने समरांगण में वज्र और विद्युत के समान स्पर्श वाले प्रहारों द्वारा उन दैत्यों का वध कर डाला। साथ ही उन द्विजश्रेष्ठ जमदग्निकुमार के शरीर को भी दानवों ने क्षत-विक्षत कर दिया। परंतु महादेव जी के हाथों का स्पर्श पाकर परशुराम जी के सारे घाव तत्काल दूर हो गये। परशुराम के उस शत्रुविजयरूपी कर्म से भगवान शंकर बड़े प्रसन्‍न हुए। उन देवाधिदेव त्रिशूलधारी भगवान शिव ने बड़ी प्रसन्नता के साथ महात्मा भार्गव को नाना प्रकार के वर प्रदान किये। उन्होंने कहा- ‘भृगुनन्दन! दैत्यों के अस्त्र-शस्त्रों के आघात से तुम्हारे शरीर में जो चोट पहुँची है, उससे तुम्हारा मानवों चितकर्म नष्ट हो गया (अब तुम देवताओं के ही समान हो गये); अतः मुझसे अपनी इच्छा के अनुसार दिव्यास्त्र ग्रहण करो। दुर्योधन कहता है- राजन्! तब राम ने भगवान शिव से समस्त दिव्यास्त्र और नाना प्रकार के मनोवांछित वर पाकर उनके चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम किया। फिर वे महातपस्वी परशुराम देवेश्वर शिव से आाज्ञा लेकर चले गये। राजन! इस प्रकार यह पुरातन वृत्तान्त उस समय ऋषि ने मेरे पिता जी से कहा था।

परशुराम द्वारा कर्ण को दिव्यास्त्र प्राप्ति

पुरुषसिंह! भृगुनन्दन परशुराम ने भी अत्यन्त प्रसन्न हृदय से महामना कर्ण को दिव्य धनुर्वेद प्रदान किया है। भूपाल! यदि कर्ण में कोई पाप या दोष होता तो भृगुनन्दन परशुराम इसे दिव्यास्त्र न देते।[2] राजन! मैं किसी तरह इस बात पर विश्वास नहीं करता कि कर्ण सूतकुल में उत्पन्न हुआ है। मैं इसे क्षत्रियकुल में उत्पन्न देवपुत्र मानता हूँ। मेरा तो यह विश्वास है कि इसकी माता ने अपने गुप्त रहस्य को छिपाने के लिये तथा इसे अन्य कुल का बालक विख्यात करने के लिये ही सूतकुल में छोड़ दिया होगा। शल्य! मैं सर्वथा इस बात पर विश्वास करता हूँ कि इस कर्ण का जन्म सूतकुल में नहीं हुआ है। इस महाबाहु महारथी और सूर्य के समान तेजस्वी कुण्डल-कवच विभूषित पुत्र को सूतजाति की स्त्री कैसे पैदा कर सकती है? क्या कोई हरिणी अपने पेट से बाघ को जन्म दे सकी है? राजेन्द्र! गजराज के शुण्डदण्ड के समान जैसी इसकी मोटी भूजाएँ हैं तथा समस्त शत्रुओं का संहार करने में समर्थ जैसा इसका विशाल वक्षःस्थल है, उससे सूचित होता है कि परशुराम जी का यह प्रतापी शिष्य महामनस्वी धर्मात्मा वैकर्तन कर्ण कोई प्राकृत पुरुष नहीं है।[3]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 34 श्लोक 117-138
  2. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 34 श्लोक 139-158
  3. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 34 श्लोक 159-163

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