- वेदव्यास द्वारा धृतराष्ट्र से भयसूचक उत्पातों का वर्णन के बाद, अब वे धृतराष्ट्र से अमंगलसूचक उत्पातों का वर्णन करते हैं, जिसका उल्लेख महाभारत भीष्म पर्व में जम्बूखण्डविनिर्माण पर्व के अंतर्गत तृतीय अध्याय में हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]
विषय सूची
व्यास का धृतराष्ट्र से अमंगलसूचक उत्पातों का वर्णन करना
व्यासजी ने कहा- राजन! गायों के गर्भ से गदहे पैदा होते हैं, पुत्र माताओं के साथ रमण करते हैं। वन के वृक्ष बिना ॠतु के फूल और फल प्रकट करते हैं। गर्भवती स्त्रियां पुत्र को जन्म न देकर अपने गर्भ से भयंकर जीवों को पैदा करती हैं। मासंभक्षी पशु भी पक्षियों के साथ परस्पर मिलकर एक ही जगह आहार ग्रहण करते हैं। तीन सींग, चार नेत्र, पांच पैर, दो मूत्रेन्द्रिय, दो मस्तक, दो पूंछ और अनेक दांढो़ वाले अमंगलमय पशु जन्म लेते तथा मुंह फैलाकर अमंगल सूचक वाणी बोलते हैं। गरुड़ पक्षी के मस्तक पर शिखा और सींग हैं। उनके तीन पैर तथा चार दाढे़ दिखायी देती हैं। इसी प्रकार अन्य जीव भी देखे जाते हैं। वेदवादी ब्राह्मणों की स्त्रियां तुम्हारे नगर में गरुड़ और मोर पैदा करती हैं। भूपाल! घोड़ी गाय के बछेडे़ को जन्म देती हैं, कुतिया के पेट से सियार पैदा होता है, हाथी कुत्तों को जन्म देते हैं और तोते भी अशुभसूचक बोली बोलने लगे हैं। कुछ स्त्रियां एक ही साथ चार-चार या पांच-पांच कन्याएं पैदा करती हैं। वे कन्याएं पैदा होते ही नाचती, गाती तथा हंसती हैं। समस्त नीच जातियों के घरों में उत्पन्न हुए काने, कुबडे़ आदि बालक भी महान भय की सूचना देते हुए जोर-जोर से हंसते, गाते और नाचते हैं। ये सब काल से प्रेरित हो हाथों में हथियार लिये मूर्तियां लिखते और बनाते हैं। छोटे-छोटे बच्चे हाथ में डंडा लिये एक दूसरे पर धावा करते हैं। और कृत्रिम नगर बनाकर परस्पर युद्ध की इच्छा रखते हुए उन नगरों को रौंदकर मिट्टी में मिला देते हैं।
पद्म, उत्पल और कुमुद आदि जलीय पुष्प वृक्षों पर पैदा होते हैं। चारों ओर भयंकर आंधी चल रही हैं, धूल का उड़ना शान्त नहीं हो रहा है, धरती बार-बार कांप रही है तथा राहु सूर्य के निकट जा रहा है। केतु चित्रा का अतिक्रमण करके स्वाती पर स्थित हो रहा है[2] उसकी विशेषरूप से कुरु वंश के विनाश पर ही दृष्टि हैं। अत्यन्त भयंकर धूमकेतु पुष्य नक्षत्र पर आक्रमण करके वहीं स्थित हो रहा हैं। यह महान उपग्रह दोनों सेनाओं का घोर अमंगल करेगा। मंगल वक्र होकर मघा नक्षत्र पर स्थित है, बृहस्पति श्रवण नक्षत्र पर विराजमान है तथा सूर्यपुत्र शनि पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र पर पहुँचकर उसे पीड़ा दे रहा है। शुक्र पूर्वा भाद्रपदा पर आरूढ़ हो प्रकाशित हो रहा है और सब ओर घूम-फिरकर परिध नामक उपग्रह के साथ उत्तरा भाद्रपदा नक्षत्रपर दृष्टि लगाये हुए है। केतु नामक उपग्रह धूमयुक्त अग्नि के समान प्रज्वलित हो इन्द्र देवता सम्बन्धी तेजस्वी ज्येष्ठा नक्षत्रपर जाकर स्थित है। चित्रा और स्वाती के बीच में स्थित हुआ क्रूर ग्रह राहू सदा वक्र होकर रोहिणी तथा चन्द्रमा और सूर्य को पीड़ा पहुँचाते हैं तथा अत्यन्त प्रज्वलित होकर ध्रुव की बायीं ओर जा रहा है, जो घोर अनिष्ट का सूचक है।[1]
अग्नि के समान कान्तिमान मङ्गल ग्रह (जिसकी स्थिति मघा नक्षत्र में बतायी गयी है) बारंबार वक्र होकर ब्रह्मराशि (बृहस्पति से युक्त नक्षत्र) श्रवण को पूर्णरूप से आवृत करके स्थित हैं।[3] (इसका प्रभाव खेती पर अनुकूल पड़ा है) पृथ्वी सब प्रकार के अनाज के पौधों से आच्छादित है, शस्य की मालाओं से अलंकृत है, जौ में पांच-पांच और जड़हन धान में सौ-सौ बालियां लग रही हैं। जो सम्पूर्ण जगत में माता के समान प्रधान मानी जाती हैं, यह समस्त संसार जिनके अधीन हैं, वे गौएं बछड़ों से पिन्हा जाने के बाद अपने थनों से खून बहाती हैं। योद्धाओं के धनुष से आग की लपटें निकलने लगी हैं, खङ्ग अत्यन्त प्रज्वलित हो उठे हैं मानो सम्पूर्ण शस्त्र स्पष्ट रूप से यह देख रहे हैं कि संग्राम उपस्थित हो गया है। शस्त्रों की, जल की, कवचों की और ध्वजाओं की कान्तियां अग्नि के समान लाल हो गयी हैं अत: निश्चय ही महान् जन-संहार होगा।
युद्ध के समय की स्थिती का वर्णन
राजन! भरतनंदन! जब पाण्डवों के साथ कौरवों का हिंसात्मक संग्राम आरम्भ हो जायगा, उस समय धरती पर रक्त की नदियां बह चलेंगी, उनमें शोणितमयी भंवरें उठेंगी तथा रथ-की ध्वजाएं उन नदियों के ऊपर छोटी-छोटी डोंगियों के समान सब ओर व्याप्त दिखायी देंगी। चारों दिशाओं में पशु और पक्षी प्राणांतकारी अनर्थ का दर्शन कराते हुए भयंकर बोली बोल रहे हैं। उनके मुख प्रज्वलित दिखायी देते हैं और वे अपने शब्दों से किसी महान भय की सूचना दे रहे हैं। रात में एक आंख, एक पांख और एक पैर का पक्षी आकाश में विचरता है और कुपित होकर भयंकर बोली बोलता है। उसकी बोली ऐसी जान पड़ती है, मानो कोई रक्त वमन कर रहा हो। राजेन्द्र! सभी शस्त्र इस समय जलते-से प्रतीत होते हैं। उदार सप्तर्षियों की प्रभा फीकी पड़ती जाती है। वर्षपर्यन्त एक राशि पर रहने वाले दो प्रकाशमान ग्रह बृहस्पति और शनैश्चर तिर्यग्वेध के द्वाराविशाखा नक्ष्त्र के समीप आ गये हैं। (इस पक्ष में तो तिथियों का क्षय होने के कारण) एक ही दिन त्रयोदशी तिथि को बिना पर्व के ही राहु ने चन्द्रमा और सूर्य दोनों को ग्रस लिया है। अत: ग्रहणावस्था को प्राप्त हुए वे दोनों ग्रह प्रजा का संहार चाहते हैं।
चारों और धूल की वर्षा होने से सम्पूर्ण दिशाएं शोभाहीन हो गयी हैं। उत्पातसूचक भयंकर मेघ रात में रक्त की वर्षा करते हैं। राजन्! अपने तीक्ष्ण (क्रुरतापूर्ण) कर्मो के द्वारा उपलक्षित होने वाला राहु (चित्रा और स्वाती के बीच में रहकर सर्वतोभद्रचक्रगतवेध के अनुसार) कृत्ति का नक्षत्र को पीड़ा दे रहा है। बारंबार धूमकेतु का आश्रय लेकर प्रचण्ड आंधी उठती रहती है। वह महान् युद्ध एवं विषम परिस्थिति पैदा करने वाली है। राजन्! (अश्र्विनी आदि नक्षत्रों को तीन भागों में बांटने पर जो नौ-नौ नक्षत्रों के तीन समुदाय होते हैं, वे क्रमश: अश्र्वपति, गजपति तथा नरपति के छत्र कहलाते हैं ये ही पापग्रह से आक्रांत होने पर क्षत्रियों का विनाश सूचित करने के कारण ‘नक्षत्र-नक्षत्र’ कहे गये हैं) इन तीनों अथवा सम्पूर्ण नक्षत्र-नक्षत्रों में शीर्षस्थान पर यदि पापग्रह से वेघ हो तो वह ग्रह महान् भय उत्पन्न करने वाला होता है इस समय ऐसा ही कुयोग आया है।[3]
एक तिथि का क्षय होने पर चौदहवें दिन, तिथिक्षय न होने पर पंद्रहवें दिन और एक तिथि की वृद्धि होने पर सोलहवें दिन अमावास्या का होना तो पहले देखा गया है परंतु इस पक्ष में जो तेरहवें दिन यह अमावास्या आ गयी है, ऐसा पहले भी कभी हुआ है, इसका स्मरण मुझे नहीं है। इस एक ही महीने में तेरह दिनों के भीतर चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण दोनों लग गये। इस प्रकार अप्रसिद्ध पर्व में ग्रहण लगने के कारण सूर्य और चन्द्रमा प्रजा का विनाश करने वाले होंगे। कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को बड़े जोर से मांस की वर्षा हुई थी। उस समय राक्षसों का मुंह भरा हुआ था। वे खून पीते अघाते नहीं थे। बड़ी-बड़ी नदियों के जल रक्त के समान लाल हो गये हैं और उन की धारा उल्टे स्त्रोत की ओर बहने लगी है। कुंओं-से फेन ऊपर को उठ रहे हैं, मानो वृषभ उछल रहे हों। बिजली की कड़कड़ के साथ इन्द्र की अशनि के समान प्रकाशित होने वाली उल्काएं गिर रही हैं। आज की रात बीतने पर सबेरे से ही तुम लोगों को अपने अन्याय का फल मिलने लगेगा।[4]
सम्पूर्ण दिशाओं में अन्धकार व्याप्त होने के कारण बड़ी-बड़ी मशालें जलाकर घर से निकले हुए महर्षियों ने एक दूसरे के पास उपस्थित हो इन उत्पातों के सम्बन्ध में अपना मत इस प्रकार प्रकट किया हैं। जान पड़ता है, यह भूमि सहस्रों भूमिपालों का रक्तापान करेगी। प्रभो! कैलास, मन्दराचल तथा हिमालय से सहस्रों प्रकार के अत्यन्त भयानक शब्द प्रकट होते हैं और उनके शिखर भी टूट-टूटकर गिर रहे हैं। भूकम्प होने के कारण पृथक्-पृथक् चारों सागर वृद्धि को प्राप्त होकर वसुधा में क्षोभ उत्पन्न करते हुए अपनी सीमा को लांघते हुए से जान पड़ते हैं। बालू और कंकड़ खींचकर बरसाने वाले भयानक बवंडर उठकर वृक्षो को उखाडे़ डालते हैं। गांवों तथा नगरों में वृक्ष और चैत्यवृक्ष प्रचण्ड आंधियों तथा बिजली के आघातों से टूटकर गिर रहे हैं। ब्राह्मणलोगों के आहुति देनेपर प्रज्वलित हुई अग्नि काले, लाल और पीले रंग की दिखायी देती हैं। उसकी लपटें वामावर्त होकर उठ रही हैं। उससे दुर्गन्ध निकलती है और वह भयानक शब्द प्रकट करती रहती हैं। राजन्! स्पर्श, गन्ध तथा रस- इन सबकी स्थिति विपरीत हो गयी हैं। ध्वज बारंबार कम्पित होकर धूआं छोड़ते है। ढोल, नगाडे़ अङ्गारों की वर्षा करते हैं। फल-फूल से सम्पन्न वृक्षों की शिखाओं पर बायीं ओर से घूम-घूमकर सब ओर कौए बैठते हैं और भयंकर कांव-कांव का कोलाहल करते हैं। बहुत-से पक्षी ‘पक्वा-पक्वा’ इस शब्द का बारंबार जोर-जोर से उच्चारण करते और ध्वजाओं के अग्रभाग में छिपते हैं। यह लक्षण राजाओं के विनाश का सूचक हैं। दुष्ट हाथी कांपते ओर चिन्ता करते हुए भय के मारे मल-मूत्र त्याग कर रहे हैं, घोडे़ अत्यन्त दीन हो रहे हैं और सम्पूर्ण गजराज पसीने-पसीने हो रहे हैं।
भारत! यह सुनकर (और उसके परिणाम पर विचार करके) तुम इस अवसर के अनुरूप ऐसा कोई उपाय करो, जिससे यह संसार विनाश से बच जाय। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! अपने पिता व्यासजी का यह वचन सुनकर धृतराष्ट्र ने कहा- ‘भगवन्! मैं तो इसे पूर्वनिश्चित दैव का विधान मानता हूँ अत: यह जनसहार होगा ही।[4] यदि राजालोग क्षत्रियधर्म के अनुसार युद्ध में मारे जायंगे तो वीरलोक को प्राप्त होकर केवल सुख के भागी होंगे। ‘वे पुरुषसिंह नरेश महायुद्ध में प्राणों का परित्याग करके इसलोक में कीर्ति तथा परलोक में दीर्घकाल तक महान् सुख प्राप्त करेंगे’।
महर्षि व्यास द्वारा धृतराष्ट्र को समझाना
वैशम्पायनजी कहते हैं- नृपश्रेष्ठ! अपने पुत्र धृतराष्ट्र के इस प्रकार यथार्थ बात कहने पर ज्ञानियों में श्रेष्ठ महर्षि व्यास कुछ देर तक बड़े सोच-विचार में पड़े रहे दो घड़ी तक चिन्तन करने के बाद वे पुन: इस प्रकार बोले- ‘राजेन्द्र! इसमें संशय नहीं है कि काल ही इस जगत् का संहार करता है और वही पुन: इन सम्पूर्ण लोकों की सृष्टि करता हैं। यहाँ कोई वस्तु सदा रहने वाली नहीं हैं। ‘राजन्! तुम अपने जाति-भाई, कौरवों, सगे-सम्बन्धियों तथा हितैषी-सुहृदों को धर्मानुकूल मार्ग का उपदेश करो क्योंकि तुम उन सबको रोकने में समर्थ हो। जाति-वध को अत्यन्त नीच कर्म बताया गया हैं। वह मुझे अत्यन्त अप्रिय हैं। तुम यह अप्रिय कार्य न करो।
महाराज! यह काल तुम्हारे पुत्ररूप से उत्पन्न हुआ हैं। वेद में हिंसा की प्रशंसा नहीं की गयी है। हिंसा से किसी प्रकार हित नहीं हो सकता। कुल-धर्म अपने शरीर ही समान है। जो इस कुल धर्म का नाश करता हैं, उसे वह धर्म ही नष्ट कर देता हैं। जब तक धर्म का पालन सम्भव है (जब तक तुम पर कोई आपत्ति नहीं आयी है), तब तक तुम काल से प्ररित होकर ही धर्म की अवहेलना करके कुमार्गपर चल रहे हो, जैसा कि बहुधा लोग किसी आपत्ति में पड़ने पर ही करते हैं। ‘राजन्! तुम्हारे कुल का तथा अन्य बहुत-से राजाओं का विनाश करने के लिये यह तुम्हारे राज्य के रूप में अनर्थ ही प्राप्त हुआ हैं। तुम्हारा धर्म अत्यन्त लुप्त हो गया है। अपने पुत्रों को धर्म का मार्ग दिखाओं। दुर्धर्ष वीर! तुम्हें राज्य लेकर क्या करना है, जिसके लिये अपने ऊपर पाप का बोझ लाद रहे हो? तुम मेरी बात मानने पर यश, धर्म और कीर्ति का पालन करते हुए स्वर्ग प्राप्त कर लोगे। पाण्डवों को उनके राज्य प्राप्त हों और समस्त कौरव आपस में संधि करके शान्त हो जायं’।[5]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 3 श्लोक 1-17
- ↑ राहु और केतु सदा एक दूसरे से सातवी राशि पर स्थित होते हैं, किंतु उस समय दोनों एक राशि पर आ गये थे, अत: महान अनिष्ट के सूचक थे। सूर्य तुला पर थे, उनके निकट राहु के आने का वर्णन पहले आ चुका है फिर केतु के वहाँ पहुँचने से महान दुर्योग बन गया है।
- ↑ 3.0 3.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 3 श्लोक 18-31
- ↑ 4.0 4.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 3 श्लोक 32-47
- ↑ महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 3 श्लोक 48-63
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| कौरव-पांडव उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध
| रक्तमयी रणनदी का वर्णन
| अर्जुन द्वारा त्रिगर्तों की पराजय
| अभिमन्यु से चित्रसेन की पराजय
| सात्यकि और भीष्म का युद्ध
| दुर्योधन द्वारा दु:शासन को भीष्म की रक्षा का आदेश
| शकुनि की घुड़सवार सेना की पराजय
| युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव के साथ शल्य का युद्ध
| भीष्म द्वारा पराजित पांडव सेना का पलायन
| भीष्म को मारने के लिए कृष्ण का उद्यत होना
| अर्जुन द्वारा उद्यत हुए कृष्ण को रोकना
| नवें दिन के युद्ध की समाप्ति
| कृष्ण व पांडवों की गुप्त मंत्रणा
| कृष्णसहित पांडवों का भीष्म से उनके वध का उपाय पूछना
| उभयपक्ष की सेना का रण प्रस्थान व दसवें दिन के युद्ध का प्रारम्भ
| शिखण्डी को आगे कर पांडवों का भीष्म पर आक्रमण
| शिखंडी एवं भीष्म का युद्ध
| भीष्म-दुर्योधन संवाद
| भीष्म द्वारा लाखों पांडव सैनिकों का संहार
| अर्जुन के प्रोत्साहन से शिखंडी का भीष्म पर आक्रमण
| दु:शासन का अर्जुन के साथ घोर युद्ध
| कौरव-पांडव पक्ष के प्रमुख महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन
| द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देना
| द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को धृष्टद्युम्न से युद्ध करने का आदेश
| कौरव पक्ष के दस महारथियों के साथ भीम का घोर युद्ध
| कौरव महारथियों के साथ भीम और अर्जुन का अद्भुत पुरुषार्थ
| भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण
| कौरव-पांडव सैनिकों का भीषण युद्ध
| कौरव-पांडव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन
| भीष्म का अद्भुत पराक्रम
| उभय पक्ष की सेनाओं का युद्ध तथा दु:शासन का पराक्रम
| अर्जुन के द्वारा भीष्म का मूर्च्छित होना
| भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार
| अर्जुन का भीष्म को रथ से गिराना
| शरशय्या पर स्थित भीष्म के पास ऋषियों का आगमन
| भीष्म द्वारा उत्तरायण की प्रतीक्षा कर प्राण धारण करना
| भीष्म की महत्ता
| अर्जुन द्वारा भीष्म को तकिया देना
| उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना एवं कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद
| अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना
| अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना
| भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद
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