द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देना

महाभारत भीष्म पर्व मेंं भीष्मवध पर्व के अंतर्गत 112वें अध्याय मेंं 'द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देने' का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]

द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देना

संजय कहते हैं- राजन्! कौरव और पांडव पक्ष के प्रमुख महारथियों के मध्य युद्ध होने लगा, तब तदनन्तर महाधनुर्धर, मत वाले हाथी के समान पराक्रमी, वीर, नरश्रेष्ठ, महाबली तथा शुभाशुभ निमित्तों के ज्ञाता एवं अद्भुत शक्तिशाली द्रोणाचार्य मतवाले हाथियों की गति को कुण्ठित कर देने वाले विशाल धनुष को हाथ में लेकर उसे खींचने और विपक्षी सेना को भगाने लगे। उन्होंने पाण्डवों की सेना में प्रवेश करते समय सब ओर बुरे निमित्त ( शकुन ) देखकर शत्रुसेना को संताप देते हुए पुत्र अश्वत्थामा से इस प्रकार कहा-तात! यही वह दिन है, जबकि महाबली अर्जुन समर भूमि में भीष्म को मार डालने की इच्छा से महान प्रयत्न करेंगे। मेरे बाण तरकस से उछले पड़ते हैं, धनुष फड़क उठता है, अस्त्र स्वयं ही धनुष से संयुक्त हो जाते हैं और मेरे मन में क्रूरकर्म करने का संकल्प हो रहा है। सम्पूर्ण दिशाओं में पशु और पक्षी अशान्तिपूर्ण भयंकर बोली बोल रहे है। गीध नीचे आकर कौरव सेना में छिप रहे है। सूर्य की प्रभा मन्द सी पड़ गयी है। सम्पूर्ण दिशाएँ लाल हो रही है। पृथ्वी सब ओर से कोलाहलपूर्ण, व्यथित और कम्पित सी हो रही है। कंक, गीध और बगले बार बार बोल रहे है। अमगंलमयी घोर रूपवाली गीदड़ियाँ महान भय की सूचना देती हुई सूर्य की और मुँह करके भयानक बोली बोला करती है और उनका मुँह प्रज्वलित सा जान पड़ता है। सूर्यमण्डल मध्यभाग से बड़ी-बड़ी उल्काएँ गिरी है। कबन्धयुक्त परिघ सूर्य को चारोंं ओर से घेरकर स्थित है। चन्द्रमा और सूर्य के चारों ओर भयंकर घेरा पड़़ने लगा है, जो क्षत्रियों के शरीर का विनाश करने वाले घोर भय की सूचना दे रहा है। कौरवराज धृतराष्ट्र के देवालयां की देवमूर्तियाँ हिलती, हँसती, नाचती तथा रोती जान पड़़ती है। ग्रहों ने सूर्य की वामावर्त परिक्रमा करके उन्हेंं अशुभ लक्षणों का सूचक बना दिया है, भगवान् चन्द्रमा अपने दोनों कोनो के सिरे नीचे करके उदित हुए है। राजाओं के शरीरों को मैं श्रीहीन देख रहा हूँ। दुर्योधन की सेनाओं में जो लोग कवच धारण करके स्थित है, उनकी शोभा नहीं हो रही है। दोनों ही सेनाओं में चारों ओर पाँचजन्य शंग का गम्भीर घोष और गाण्डीव धनुष की टंकार ध्वनि सुनायी देती है। इससे यह निश्चय जान पड़़ता है कि अर्जुन युद्धस्थल में उत्तम अस्त्रोंं का आश्रय ले दूसरे योद्धाओं को दूर हटाकर रणभूमि में पितामह के पास पहुँच जायेंगे।

महाबाहो! भीष्म और अर्जुन के युद्ध का विचार करके मेरे रोंगटे खड़े हो रहे हैं और मन शिथिल-सा होता जा रहा है। शठता के पूरे पण्डित उस पापात्मा पांचाल राजकुमार शिखण्ड़ी को यहाँ रण में आगे करके कुंतीकुमार अर्जुन भीष्म से युद्ध करने के लिये गये हैं। भीष्म ने पहले ही यह कह दिया था कि मैं शिखण्डी को नहीं मारूँगा क्योंकि विधाता ने इसे स्त्री ही बनाया था। फिर भाग्यवश यह पुरुष हो गया। इसके सिवा द्रुपद का यह महाबली पुत्र अपनी ध्वजा में अमंगलसूचक चिह्न धारण करता है। अतः इस अमांगलिक शिखण्डी पर गगानंदन भीष्म कभी प्रहार नहीं करेंगे। इन सब बातो पर जब मैं विचार करता हूँ, तब मेरी बुद्धि अत्यन्त शिथिल हो जाती है। आज अर्जुन ने पूरी तैयारी के साथ रणभूमि में कुरुकुल के वृद्ध पुरुष भीष्मजी पर धावा किया है।[1] युधिष्ठिर का क्रोध करना, भीष्म और अर्जुन का संघर्ष होना और मेरा अपने विविध अस्त्रों के प्रयोग के लिये उद्योग करना-ये तीनों बातें निश्चय ही प्रजाजनों के अमंगल की सूचना देने वाली हैं।

द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को समझाना

पाण्डुनन्दन अर्जुन मनस्वी, बलवान, शूरवीर, अस्त्र-विधा के पण्डित, शीघ्रतापूर्वक पराक्रम प्रकट करने वाले, दूर तक का लक्ष्य बेंधने वाले, सुदृढ़ बाणों का संग्रह रखने वाले तथा शुभाशुभ निमित्तों के ज्ञाता हैं। इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवता भी उन्हें युद्ध में पराजित नहीं कर सकते। वे बलवान, बुद्धिमान, क्लेशों पर विजय पाने वाले और योद्धाओं में श्रेष्ठ हैं। उन्हेंं युद्ध में सदा विजय प्राप्त होती है। पाण्डुनन्दन अर्जुन के अस्त्र बड़े भयंकर हैं। उत्तम व्रत का पालन करने वाले पुत्र! इसलिये तुम उनका रास्ता छोड़कर शीघ्र भीष्म जी की रक्षा के लिये चले जाओ। देखों, इस महाघोर संग्राम में आज यह कैसा महान जन संहार हो रहा है? शूरवीरों के स्वर्णजटित, शुभ एवं महान् कवच अर्जुन के झुकी हुई गाँठवाले बाणों द्वारा विदीर्ण किये जा रहे है। ध्वज के अग्रभाग, तोमर और धनुषों के टुकडे टुकड़े किये जा रहे है। चमकीले प्रास, सुवर्णजटित होने के कारण सुनहरी कान्ति से प्रकाशित होने वाली तीखी शक्तियों और हाथियों पर फहराती हुई वैजयन्ती पताकाएँ क्रोध में भरे हुए किरीटधारी अर्जुन के द्वारा छिन्न भिन्न की जा रही है। बेटा! आश्रित रहकर जीविका चलाने वाले पुरुषों के लिये यह अपने प्राणों की रक्षा का अवसर नहीं है। तुम स्वर्ग को सामने रखकर यश और विजय की प्राप्ति के लिये भीष्मजी के पास जाओ। यह युद्ध एक महाघोर और अत्यन्त दुर्गम नदी के समान है। उसमें रथ, हाथी और घोड़े भँवर है, कपिध्वज अर्जुन रथरूपी नौका के द्वारा इसे पार कर रहे है। यहाँ केवल कुन्तीकुमार युधिष्ठिर में ही ब्राह्मणों के प्रति भक्ति, इन्द्रियसंयम, दान, तप और श्रेष्ठ सदाचार आदि सद्गुण दिखायी देते हैं, जिनके फलस्वरूप उन्हेंं अर्जुन, बलवान भीम तथा माद्रीकुमार पाण्डुपुत्र नकुल और सहदेव जैसे भाई मिले हैं एवं वृष्णिनन्दन भगवान वासुदेव उनके रक्षक और सहायक बनकर सदा साथ रहते हैं।[2]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 112 श्लोक 1-20
  2. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 112 श्लोक 21-42

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