- महाभारत भीष्म पर्व में भीष्मवध पर्व के अंतर्गत 46वें अध्याय में 'कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध' का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]
विषय सूची
संजय द्वारा कौरव-पाण्डव सेना के घमासान युद्ध का वर्णन धृतराष्ट्र से करना
संजय कहते हैं-भरतवंशी नरेश! उस रणभूमि में जहां-वहाँ लाखों सैनिकों का मर्यादाशून्य युद्ध चल रहा था। वह सब आपको बता रहा हूं, सुनिये। न पुत्र पिता को पहचानता था, न पिता अपने ओर से पुत्र को। न भाई, भाई को जानता था, न मामा अपने भानजे को। न भानजे ने मामा को पहचाना, न मित्र ने मित्र को। उस समय पाण्डव-योद्धा कौरव-सैनिकों के साथ इस प्रकार युद्ध करते थे, मानो उनमें किसी ग्रह आदि का आवेश हो गया हो। कुछ नरश्रेष्ठ वीर अपने रथों द्वारा शत्रुपक्ष की रथसेना पर टूट पड़े। भरतश्रेष्ठ! कितने ही रथों के जुएं विपक्षी रथों के जूओं से ही टकराकर टूट गये। रथों के ईषादण्ड और कुबर भी सामने आये हुए रथों के ईषादण्ड और कूबरों से भिड़कर टूक-टूक हो गये। एक दूसरे को मार डालने की इच्छा रखनेवाले कितने ही रथ दूसरे रथों से आमने-सामने भिड़कर एक पग भी इधर-उधर चल न सके। गण्डस्थल से मदकी धारा बहानेवाले विशालकाय गज राज कुपित हो दूसरे हाथियों से टक्कर लेते हुए अपने दांतो के आघात से एक दूसरे को नाना प्रकार से विदीर्ण करने लगे। महाराज! कितने ही हाथी तोरण और प्रताकाओं सहित वेगशाली महाकाय एवं श्रेष्ठ गजराजों से भिड़कर उनके दांतो के आघात से अत्यन्त पीड़ित हो आतुर भाव से चिग्घाड़ रहे थे। जिन्हें अनेक प्रकार की शिक्षाएं मिली थी तथा जिनका मद अभी प्रकट नहीं हुआ था, वे हाथी तोत्र और अंकुशों की चोट खाकर सम्मुख खडे़ हुए मदस्त्रावी गजराजों के सामने जाकर युद्ध के लिये डट गये। कुछ महान गजराज मदस्त्रावी हाथियों से टक्कर लेकर क्रौंच पक्षी की भाँति चीत्कार करते हुए सब दिशाओं में भाग गये। अच्छी तरह शिक्षा पाये हुए कितने ही हाथी तथा श्रेष्ठ गज, जिनके गण्डस्थल से मद चू रहा था, ऋष्टि, तोमर और नाराचों से विद्ध होकर मर्म विदीर्ण हो जाने के कारण चिग्घाड़ते और प्राणशून्य हो धरती पर गिर पड़ते थे। कितने ही भयानक चीत्कार करते हुए सब दिशाओं में भाग जाते थे।
महाराज! हाथियों के पैरों की रक्षा करने वाले योद्धा, जिनके वक्षःस्थल विस्तृत एवं विशाल थे, अत्यंत क्रोध में भरकर इधर-उधर दौड़ रहे थे और हाथों में लिये हुए ऋष्टि, धनुष, चमकीले फरसे, गदा, मूसल, भिन्दिपाल, तोमर, लोहे की परिघ तथा तेज धारवाले उज्ज्वल सग आदि आयुधों द्वारा एक दूसरे के वध के लिये उत्सुक दिखायी दे रहे थे। परस्पर धावा करने वाले शूरवीरों के चमकीले खग मनुष्यों के रक्त से रंगे हुए देखे जाते थे। वीरों की भुजाओं से घुमाकर चलाये हुए खड्ग जब दूसरों के मर्म पर आघात करते थे, उस सम उनका भयंकर शब्द सुनायी पड़ता था। उस युद्धस्थल में गदा और मूसल के आघात से कितने ही मनुष्यों के अंग-भंग हो गये थे, कितने ही अच्छी श्रेणी के तलवारों से छिन्न-भिन्न हो रहे थे और कितनों को हाथियों ने कुचल दिया था। इस प्रकार असंख्य मनुष्यों के समुदाय अधमरे-से होकर एक दूसरे को पुकार रहे थे। भारत! उसके वे भयंकर आर्तनाद प्रेतों के कोलाहल के समान श्रवणगोचर हो रहे थे। चॅवर और कलंगी से सुशोभित हंस-तुल्य सफेद एवं महान् वेगशाली घोड़ों पर बैठे हुए कितने ही घुड़सवार एक दूसरे पर धावा कर रहे थे।[1] उसके द्वारा चलाये गये सुगर्णभूषित निर्मल और तेज धारवाले शीघ्रगामी महाप्रास (भाले) सर्पो के समान गिर रहे थे। कितने ही वीर घुड़सवार शीघ्रगामी अश्वों द्वारा धावा करके बड़े-बड़े़ रथों पर कुछ पड़ते और रथियों के मस्तक काट लेते थे। इसी प्रकार एक-एक रथी झुकी हुई गांठवाले भल्ल नामक बाणों द्वारा निशाने पर आये हुए बहुत से घुडसवारों का संहार कर डालता था। नूतन मेघों के समान शोभा पाने वाले स्वर्णभूषित मतवाले हाथी बहुत-से-घोड़ों को सूंडों से झटककर पैरो से ही रौद डालते थे। कितने ही हाथी प्रासों की चोट खाकर कुम्भस्थल और पाश्वभागों के विदीर्ण हो जाने पर अत्यंत आतुर हो घोर चिग्घाड़ मचा रहे थे। बहुत से बड़े-बड़े़ हाथी कितने ही घुड़सवारों सहित घोड़ों को पैरो से कुचलकर सहसा भयंकर युद्ध में फेंक देते थे। कितने ही हाथी अपने दांतो के अग्रभाग से घुड़सवारों सहित घोड़ों को उछाल कर ध्वजों सहित रथसमूहों को पैरो तले रौंदते हुए रणभूमि में विचर रहे थे।[2]
वहाँ कितने ही महान् गज अत्यन्त मदोन्मत्त तथा पुरुष होने के कारण सूंडों और पैरों से घोड़ों और घुड़सवारों का संहार कर डालते थे। युद्ध में घुड़सवारों और गजारोहियों के चलाये हुए निर्मल, तीक्ष्ण तथा सर्पो के समान भयंकर शीघ्रनामी बाण हाथियों के ललाटों, अन्यान्य अंगों तथा पसलियों पर चोट करते थे। वीरों की भुजाओं से चलायी हुई निर्मल शक्तियां, मनुष्यों और घोड़ोंकाया तथा लोहमय कवचों को भी विदीर्ण करके धरती पर गिर जाती थी। प्रजानाथ! वहाँ गिरते समय वे भयंकर शक्तियां बड़ीभारी उल्काओं के समान प्रतीत होती थी। जो चमकीली तलवार पहले चितकवरे अथवा साधारण व्याघ्र-चमकी बनी हुई म्यानों में बंद रहती थी, उन्हें उन म्यानों से निकालकर उनके द्वारा वीरपुरुष रणभूमि में विपक्षियों का वध कर रहे थे। कितने ही योद्धा ढाल, तलवार तथा फरसों से निर्भय होकर शत्रु के सम्मुख जाने, क्रोधपूर्वक दांतो से ओठ दबाकर आक्रमण करने तथा बायीं पसली पर चोट करके उसे विदीर्ण करने आदि के पैंतरे दिखाते हुए शत्रुओं पर टूट पड़ते थे। प्रत्येक शब्द की ओर गमन करने वाले कितने ही हाथी घोड़ों सहित रथों को अपनी सूंडों से खींचकर उन्हें लिये-दिये सम्पूर्ण दिखाओं में दौड़ रहे थे। कुछ मनुष्य बाणों से विदीर्ण होकर पड़े थे, कितने ही फरसों से छिन्न-भिन्न हो रहे थे, कितनों को हाथियों ने मसल डाला था, कितने ही घोड़ों की टाप से कुचल गये थे, कितनों के शरीर रथ के पहियों से कट गये थे और कितने ही कुबरों से काट डाले गये थे। राजन्! रणभूमि में जहाँ-तहाँ गिर हुए अगणित मनुष्य अपने कुटुम्बीजनों को पुकार रहे थे। कुछ बेटों को, कुछ पिता को, कुछ भाई-बन्धुओं को, कुछ मामा-भानजों को और कुछ लोग दूसरों-दूसरों के नाम ले-लेकर विलाप कर रहे थे। भारत! बहुतों की आंते बाहर निकलकर बिखर गयी थी, जांधे टूट गयी थी, कितनो की बांहें कट गयी थी, बहुतो की पसलियां फट गयी थी और कितने ही घायल अवस्था में प्यास से पीड़ित हो जीवन के लोभ से रोते दिखाई देते थे। राजन्! कुछ लोग धरती पर अधमरे पड़े थे। उनमें जीवन की शक्ति बहुत थोड़ी रह गयी थी और वे पिपासा से पीड़ित हो युद्धभूमि में ही जल की खोज कर रहे थे।[2]
भरतनन्दन! लहुलुहान होकर कष्ट पाते हुए वे समस्त घायल सैनिक अपनी और आपके पुत्रों की अत्यन्त निन्दा करते थे। माननीय महाराज दूसरे शूरवीर क्षत्रिय आपस में वैर बांधे हुए उस घायल अवस्था में भी न हथियार छोड़ते थे और न क्रन्द्रन ही करते थे। वे बार-बार उत्साहित होकर एक दूसरे को डांट बताते और क्रोधपूर्वक होठों को दांत से दबाकर भौहे टेढी करके परस्पर दृष्टिपात करते थे। धैर्य और दृढतापूर्वक धारण किये रहने वाले दूसरे महाबली वीर बाणों से आघात से पीड़ित हो क्लेश सहन करते हुए भी मौन ही रहते थे-अपनी वेदना प्रकाशित नही करते थे। महाराज! कुछ वीर पुरुष अपना रथ मग्न हो जाने के कारण युद्ध में पृथ्वी पर गिरकर दूसरे का रथ मांग रहे थे, इतने ही में बड़े-बड़े़ हाथियों के पैरो से वे कुचल गये। उस समय उनके रक्तरंजित शरीर फूले हुए पलाश के समान शोभा पा रहे थे। उन सेनाओं में अनेकानेक भयंकर शब्द सुनायी पड़ते थे। बड़े-बड़े़ वीरों का विनाश करने वाला उस महाभयानक संग्राम में पिता ने पुत्रों को, पुत्र ने पिता को, भानजे ने मामा को, मामा ने भानजे को, मित्र ने मित्रों को तथा सगे-संबंधीने अपने सगे सम्बन्धी को मार डाला। इस प्रकार उस मर्यादाशून्य भयानक संग्राम में कौरवों का पाण्डवों के साथ घोर युद्ध हो रहा था। इतने ही मैं सेनापति भीष्म के पास पहुँचकर पाण्डवों की सारी सेना कांपने लगी। भरतश्रेष्ठ! महाबाहु भीष्म अपने विशाल रथ पर बैठकर चांदी के बने हुए पांच तारों से युक्त तालांकिंत ध्वज के द्वारा भैरू के शिखर पर स्थित हुए चन्द्रमा के समान शोभा पा रहे थे।[3]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 46 श्लोक 1-20
- ↑ 2.0 2.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 46 श्लोक 21-39
- ↑ महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 46 श्लोक 40-49
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