कृष्ण का भीष्म को मारने के लिए उद्यत होना

महाभारत भीष्म पर्व में भीष्मवध पर्व के अंतर्गत 59वें अध्याय में 'संजय द्वारा कृष्ण का भीष्म को मारने के लिए उद्यत होने का वर्णन' दिया हुआ है, जो इस प्रकार है[1]-

भीष्म द्वारा पांडव सेना का विध्वंस करना

संजय कहते हैं- महाराज! जब पितामह भीष्म युद्धभूमि में युधिष्ठिर की सेना का विध्वंस कर रहे थे, तभी अर्जुन के कहने पर कृष्ण उसके के रथ को भीष्म जी के समक्ष ले गये फिर अर्जुन और भीष्म के मध्य युद्ध प्रारम्भ हो गया। भीष्म ने अपने बाणों से कृष्ण व अर्जुन को घायल कर दिया। तदनन्तर महाबाहु श्रीकृष्ण ने उस समरांगण में भीष्म का पराक्रम देखकर यह विचार किया कि अर्जुन तो कोमलतापूर्वक युद्ध कर रहा है और भीष्म युद्धस्थल में निरन्तर बाणों की वर्षा कर रहे हैं। ये दोनों सेनाओं के बीच में आकर तपते हुए सूर्य की भाँति सुशोभित होते और पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर के अच्छे-अच्छे सैनिकों को चुन-चुनकर मार रहे हैं। युधिष्ठिर की सेना में भीष्म ने प्रलय काल का-सा दृश्य उपस्थित कर दिया है। यह सब देख और सोचकर शत्रुवीरों का संहार करने वाले अप्रमेयस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण सहन न कर सके। उन्‍होंने मन ही-मन विचार किया कि युधिष्ठिर की सेना का अस्तित्व मिटना चाहता है। भीष्म रणभूमि में एक ही दिन में सम्पूर्ण देवताओं और दानवों का नाश कर सकते हैं। फिर सेना और सेवकों सहित पाण्‍डवों को युद्ध में परास्त करना इनके लिये कौन बड़ी बात है? महात्मा पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर की यह विशाल सेना भागी जा रही है और ये कौरव लोग रणक्षेत्र में सोमकों को शीघ्रतापूर्वक भागते देख पितामह का हर्ष बढ़ाते हुए उन्‍हें खदेड़ रहे हैं; अतः आज पाण्‍डवों के लिये कवच धारण किया हुआ मै स्वयं ही भीष्म को मार डालता हूँ। महामना पाण्‍डवों के इस भारी भार को मैं ही दूर करुंगा। अर्जुन इस युद्ध में तीखे बाणों की मार खाकर भी भीष्म के प्रति गौरवबुद्धि रखने के कारण अपने कर्तव्य को नहीं समझ रहा है। भगवान श्रीकृष्ण के इस प्रकार चिंतन करते समय अत्यन्त कुपित हुए पितामह भीष्म ने अर्जुन के रथ पर पुनः बहुत से बाण चलाये।[1]

उन बाणों की अत्यधिकता के कारण उनसे सम्पूर्ण दिशाएं आच्छादित हो गयी। न आकाश दिखायी देता था, न दिशाएं; न तो भूमि दिखायी देती थी और न मरीचिमाली भगवान भास्कर का भी दर्शन होता था। उस समय धूमयुक्त भयंकर हवा चलने लगी। सम्पूर्ण दिशाएं क्षुब्ध हो उठी। तब द्रोण, विकर्ण, जयद्रथ, भूरिश्रवा, कृतवर्मा, कृपाचार्य, श्रुतायु, राजा अम्बष्ठपति, विन्द, अनुविन्द, सुदक्षिण, पुर्वीय नरेशगण, सौवीरदेशीय क्षत्रियगण, वसाति, क्षुद्रक और मालवगण,- ये सभी शान्तनुनन्दन भीष्म की आज्ञा के अनुसार चलते हुए तुरन्त ही किरीटधारी अर्जुन का सामना करने के लिये निकट चले आये। सात्यकि ने दूर से देखा, किरीटधारी अर्जुन घोडे़, पैदल तथा रथियों सहित कई लाख सैनिकों से घिर गये है, गजराज यूथपतियों ने भी उन्‍हें सब ओर से घेर रखा है। तत्‍पश्‍चात पैदल, हाथी, घोडे़ और रथों द्वारा चारों ओर से आक्रान्त हुए शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण और अर्जुन को देखकर शिनिवंश के प्रमुख वीर सात्यकि तुरंत वहाँ आ पहुँचे। महाधनुर्धर शिनिवीर सात्यकि ने सहसा उन सेनाओं के समीप पहुँचकर अर्जुन की उसी प्रकार सहायता की, जैसे भगवान विष्णु वृत्रविनाशक इन्द्र की सहायता करते हैं। युधिष्ठिर की सेना के हाथी, घोड़े, रथ और ध्वजाओं के समूह तितर-बितर हो गये थे। भीष्म ने उनके सम्पूर्ण योद्धाओें को भयभीत कर दिया था।[2]

कृष्ण का भीष्म को मारने के लिए उद्यत होना

इस प्रकार युधिष्ठिर के सैनिकों को भागते देख शिनिवंश के प्रमुख वीर सात्यकि ने उनसे कहा- ‘क्षत्रियो! कहाँ जा रहे हो? प्राचीन महापुरुषों द्वारा यह श्रेष्ठ क्षत्रियों का धर्म नहीं बताया गया है। वीरों! अपनी प्रतिज्ञा न छोड़ो, अपने वीर धर्म का पालन करो’। इन्द्र के छोटे भाई श्रीकृष्ण ने उन श्रेष्ठ राजाओं को सब और भागते देखा और इस बात पर भी लक्ष्य किया कि अर्जुन जो कोमलता के साथ युद्ध कर रहा है और भीष्म इस संग्राम में अधिकाधिक प्रचण्ड होते जा रहे हैं। यह सब देख कर सम्पूर्ण यदुकुल का भरण-पोषण करने वाले महात्मा भगवान श्रीकृष्ण सहन न कर सके। उन्‍होंने समस्त कौरवों को सब ओर से आक्रमण करते देख यशस्वी वीर सात्यकि की प्रशंसा करते हुए कहा- ‘शिनिवंश के प्रमुख वीर! सात्वतरत्न! जो भाग रहे हैं, वे भाग जायँ। जो खडे़ हैं, वे भी चले जायँ। मैं इन लोगों का भरोसा नहीं करता, तुम देखो में अभी संग्राम भूमि में सहायक गणों के साथ भीष्म और द्रोणाचार्य को रथ से मार गिराता हूँ। ‘सात्वत वीर! आज कौरव सेना का कोई भी रथी क्रोध में भरे हुए मुझ कृष्ण के हाथ से जीवित नहीं छूट सकता। मै अपना भयंकर चक्र लेकर महान व्रतधारी भीष्म के प्राण हर लूंगा। सात्यके! सहायकगणों सहित भीष्म और द्रोण- इन दोनों वीर महारथियों को युद्ध में मारकर मैं अर्जुन, राजा युधिष्ठिर, भीमसेन तथा नकुल-सहदेव को प्रसन्न करुंगा। धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों तथा उनके पक्ष में आये हुए सभी श्रेष्ठ नरेशों को मारकर मैं प्रसन्नतापूर्वक आज अजातशत्रु राजा युधिष्ठिर को राज्य से सम्पन्न कर दूंगा।[2]

संजय कहते हैं- ऐसा कहकर महानुभाव श्रीकृष्ण ने अपने पुरातन एवं तीक्ष्ण आयुध सुदर्शन चक्र का स्मरण किया। उनके चिन्तन करने मात्र से ही वह स्वयं उनके हाथ के अग्रभाव में प्रस्तुत हो गया। उस चक्र की नाभि बड़ी सुन्दर थी। उसका प्रकाश सूर्य के समान और प्रभाव वज्र के तुल्य था। उसके किनारे छुरे के समान तीक्ष्ण थे। वसुदेवनन्दन महात्मा भगवान श्रीकृष्ण घोड़ों की लगाम छोड़कर हाथ में उस चक्र को घुमाते हुए रथ से कूद पड़े और जिस प्रकार सिंह बढ़े हुए घमंड वाले मदान्ध एवं उन्मत्त गजराज को मार डालने की इच्छा से उसकी ओर झपटे, उसी प्रकार वे भी अपने पैरों की धमक से पृथ्वी को कँपाते हुए युद्धस्थल में भीष्म की ओर बड़े वेग से दौड़े। देवराज इन्द्र के छोटे भाई श्रीकृष्ण समस्त शत्रुओं को मथ डालने की शक्ति रखते थे। वे उन सेना के मध्यभाग में कुपित होकर जिस समय भीष्म की और झपटे, उस समय उनके श्याम विग्रह पर लटककर हवा के वेग से फहराता हुआ पीताम्बर छोर उन्‍हें ऐसी शोभा दे रहा था, मानो आकाश में बिजली से आवेष्टित हुआ श्याम मेघ सुशोभित हो रहो हो। श्रीकृष्ण की सुन्दर भुजारूपी विशाल नाल से सुशोभित वह सुदर्शनचक्र कमल के समान शोभा पा रहा था, मानो भगवान नारायण के नाभि से प्रकट हुआ प्रातःकालीन सूर्य के समान कान्तिवाला आदि कमल प्रकाशित हो रहा था।

श्रीकृष्ण के क्रोधरूपी सूर्योदय से वह कमल विकसित हुआ था। उसके किनारे छुरे के समान तीक्ष्ण थे। वे ही मानो उनके सुन्दर दल थे। भगवान के श्रीविग्रहरूपी महान सरोवर में ही वह बढ़ा हुआ था और नारायणस्वरूप श्रीकृष्ण की बाहुरूपी नाल उसकी शोभा बढ़ा रही थी। महेन्द्र के छोटे भाई श्रीकृष्ण कुपित हो हाथ में चक्र उठाये बड़े जोर से गरज रहे थे। उन्‍हें इस रूप में देखकर कौरवों के संहार का विचार करके सभी प्राणी हाहाकार करने लगे। वे जगद्गुरु वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण हाथ में चक्र ले मानो सम्पूर्ण जगत का संहार करने के लिये उद्यत थे और समस्त प्राणियों को जलाकर भस्म कर डालने के लिये उठी हुई प्रलयाग्नि के समान प्रकाशित हो रहे थे। भगवान को चक्र लिये अपनी ओर वेगपूर्वक आते देख शान्तनुनन्दन भीष्म उस समय तनिक भी भय तथा घबराहट अनुभव न करते हुए दोनों हाथों से गाण्डीव धनुष के समान गम्भीर घोष करने वाले अपने महान धनुष को खीचने लगे। उस समय युद्ध स्थल में भीष्म के चित्त में तनिक भी मोह नहीं था।

वे अनन्त पुरुषार्थशाली भगवान श्रीकृष्ण का आह्वान करते हुए बोले- ‘आईये, आईये, देवेश्वर! जगन्निवास! आपको नमस्कार है। हाथ में चक्र लिये आये हुए माधव! सबको शरण देने वाले लोकनाथ! आज युद्धभूमि में बलपूर्वक इस उत्तम रथ से मुझे मार गिराइये। श्रीकृष्ण! आज आपके हाथ से यदि मैं मारा जाऊँगा तो इहलोक और परलोक में भी मेरा कल्याण होगा। अन्धक और वृष्णिकुल की रक्षा करने वाले वीर! आपके इस आक्रमण से तीनों लोकों मे मेरा गौरव बढ़ गया’।[3] मोटी, लम्बी और उत्तम भुजाओं वाले यदुकुल के श्रेष्ठ वीर भगवान श्रीकृष्ण को आगे बढ़ते देख अर्जुन भी बड़ी उतावली के साथ रथ से कूदकर उनके पीछे दौडे़ और निकट जाकर भगवान की दोनों बाहें पकड़ लीं। अर्जुन की भूजाएं भी मोटी और विशाल थीं। आदिदेव आत्मयोगी भगवान श्रीकृष्ण बहुत रोष में भरे हुए थे। वे अर्जुन के पकड़ने पर भी रुक न सके। जैसे आंधी किसी वृक्ष को खींचे लिये चली जाये, उसी प्रकार वे भगवान विष्णु अर्जुन को लिये हुए भी बड़े वेग से आगे बढ़ने लगे।[4]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 59 श्लोक 56-73
  2. 2.0 2.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 59 श्लोक 74-87
  3. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 59 श्लोक 88-98
  4. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 59 श्लोक 99-111

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