कृष्ण द्वारा अर्जुन का उत्साहवर्धन एवं सांख्ययोग की महिमा का प्रतिपादन

अर्जुन सम्बंधियों के वध के पाप से विषाद करते हुए श्रीकृष्ण से कहते हैं कि- जनार्दन मैं तीनों लोकों के राज्य के लिए भी इन्हें मारना नहीं चाहता हूँ फिर ये पृथ्वी की तो बात ही क्या है ऐसा कहकर अर्जुन अस्त्र-शस्त्रों को छोड़कर रथ के पीछे बैठ जाते हैं तब श्रीकृष्ण अर्जुन का उत्साहवर्धन करते हुए उससे कहते हैं- हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्‍त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप! हृदय की तुच्‍छ दुर्बलता को त्‍यागकर युद्ध के लिये खड़ा हो जा। इस प्रकार वह सांख्ययोग का प्रतिपादन करते हैं, जिसका उल्लेख महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 26वें अध्याय में निम्न प्रकार हुआ है[1]-

अर्जुन को युद्ध के लिये उत्‍साहित करते हुए सांख्‍ययोग की महिमा का प्रतिपादन

पहले अध्‍याय में गीता के उपदेश की प्रस्‍तावना के रूप में दोनों सेनाओं के महारथियों का और उनकी शंखध्‍वनि‍ का वर्णन करके अर्जुन का रथ दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा करने की बात कही गयी; उसके बाद दोनों सेनाओं में स्थित स्‍वजन समुदाय को देखकर शोक और मोह के कारण अर्जुन के युद्ध से निवृत्‍त हो जाने की और शस्त्र-अस्त्रों को छोड़कर विषाद करते हुए बैठ जाने की बात कहकर उस अध्‍याय की समाप्ति की गयी। ऐ‍सी स्थिति में भगवान श्रीकृष्‍ण ने अर्जुन से क्‍या बात कही और किस प्रकार उसे युद्ध के लिये पुनः तैयार किया; यह सब बतलाने की आवश्‍यकता होने पर संजय अर्जुन की स्थिति का वर्णन करते हुए दूसरे अध्‍याय का आरम्‍भ करते हैं। संजय बोले- उस प्रकार करुणा से व्‍याप्‍त और आँसुओं से पूर्ण तथा व्‍याकुल नेत्रों वाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान मधुसूदन ने यह वचन कहा। श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्‍त हुआ? क्‍योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्‍वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है। इसलिये हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्‍त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप! हृदय की तुच्‍छ दुर्बलता को त्‍यागकर युद्ध के लिये खड़ा हो जा।

अर्जुन बोले- हे मधुसूदन! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्‍म पितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूँगा? क्‍योंकि हे अरिसूदन! वे दोनों ही पूजनीय हैं। इसलिये इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्‍न भी खाना कल्‍याणकारक समझता हूँ; क्‍योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूँगा। सम्‍बन्‍ध- इस प्रकार अपना निश्‍चय प्रकट कर देने पर भी जब अर्जुन को संतोष नहीं हुआ और अपने निश्‍चय में शंका उत्‍पन्‍न हो गयी, तब वे फिर कहने लगे- हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिये युद्ध करना और न करना- इन दोनों में से कौन-सा श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्‍हें हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे। और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्‍मीय धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे मुकाबले में खड़े हैं इसलिये कायरतारूप दोष से उपहत हुए स्‍वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहितचित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्‍याणकारक हो, वह मेरे लिये कहिये; क्‍योंकि मैं आपका शिष्‍य हूँ, इसलिये आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिये। क्‍योंकि भूमि में निष्‍कण्‍टक, धन-धान्‍य सम्‍पन्‍न राज्‍य को और देवताओं के स्‍वामीपने को प्राप्‍त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सके। संजय बोले- हे राजन! निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अन्‍तर्यामी श्रीकृष्‍ण महाराज के प्रति इस प्रकार कहकर फिर श्रीगोविन्‍द भगवान से युद्ध नहीं करूँगा यह स्‍पष्‍ट कहकर चुप हो गये।[1]

हे भरतवंशी धृतराष्‍ट्र! अर्न्‍तयामी श्रीकृष्‍ण महाराज दोनों सेनाओं के बीच में शोक करते हुए उस अर्जुन को हँसते हुए से यह वचन बोले। सम्‍बन्‍ध- उपर्युक्त प्रकार से चिन्‍तामग्‍न अर्जुन ने जब भगवान के शरण होकर अपने महान शोक की निवृत्ति का उपाय पूछा और यह कहा कि इस लोक और परलोक का राज्‍यसुख इस शोक की निवृत्ति का उपाय नहीं है, तब अर्जुन को अधिकारी समझकर उसके शोक और मोह को सदा के लिये नष्‍ट करने के उद्देश्‍य से भगवान पहले नित्‍य और अनित्‍य वस्‍तु के विवेचनपूर्वक सांख्‍ययोग की दृष्टि से भी युद्ध करना कर्तव्‍य है, ऐसा प्रतिपादन करते हुए सांख्‍यनिष्ठा का वर्णन करते हैं- श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन! तू न शोक करने योग्‍य मनुष्‍यों के लिये शोक करता है और पण्डितों के से वचनों को कहता है; परन्‍तु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं, उनके लिये भी पण्डितजन शोक नहीं करते। जैसा जीवात्‍मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्‍था होती है, वैसे ही अन्‍य शरीर की प्राप्ति होती है; उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता। अर्थात जैसे कुमार, युवा और जरा- अवस्‍थारूप स्‍थूल शरीर का विकार अज्ञान से आत्‍मा में भासता है, वैसे ही एक शरीर से दूसरे शरीर को प्राप्‍त होना रूप सूक्ष्‍म शरीर का विकार भी अज्ञान से ही आत्‍मा में भासता है, इसलिये तत्त्व को जानने वाला और पुरुष मोहित नहीं होता। हे कुन्‍तीपुत्र! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःखों को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति–विनाशशील और अनित्‍य है; इसलिये भारत! उनको तू सहन कर। क्‍योंकि हे पुरुषश्रेष्‍ठ! दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्‍याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्‍य होता है। सम्‍बन्‍ध- बारहवें और तेरहवें श्‍लोक में भगवान ने आत्‍मा की नित्‍यता और निर्विकारता का प्रतिपादन किया गया तथा चौदहवें श्‍लोक में इन्द्रियों के साथ विषयों के संयोग को अनित्‍य बतलाया, किन्‍तु आत्‍मा क्‍यों नित्‍य है और ये संयोग क्‍यों अनित्‍य है?

इसका स्‍पष्‍टीकरण नहीं किया गया; अतएव श्‍लोक में भगवान नित्‍य और अनित्‍य वस्‍तु के विवेचन की रीति बतलाने के लिये दोनों के लक्षण बतलाते हैं– असत् वस्‍तु की तो सत्ता नहीं है और सत् का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्त्व तत्त्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है[2] नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह सम्‍पूर्ण जगत– द्दश्‍यवर्ग व्‍याप्‍त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है। इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्‍यस्‍वरूप जीवात्‍मा के ये सब शरीर[3] नाशवान कहे गये हैं। इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन! तु युद्ध कर। [सम्‍बन्‍ध- अर्जुन ने जो यह बात कही थी कि मैं इनको मारना नहीं चाहता और यदि वे मुझे मार डालें तो वह मेरे लिये क्षेमतर होगा उसका समाधान करने के लिये अगले श्‍लोकों में आत्‍मा को मरने या मारने वाला मानना अज्ञान है, यह कहते हैं– जो इस आत्‍मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते; क्‍योंकि यह आत्‍मा वास्‍तव में न तो किसी को मारता है और न किसी के द्वारा मारा जाता है। यह आत्‍मा किसी काल में भी न तो जन्‍मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्‍पन्‍न होकर फिर होने वाला ही है; क्‍योंकि यह अजन्‍मा, नित्‍य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता।[4][5]


हे पृथापुत्र अर्जुन! जो पुरुष इस आत्‍मा को नाशरहित, नित्‍य, अजन्‍मा और अव्‍यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है[6] सम्‍बन्‍ध- यहाँ यह शंका होती है कि आत्‍मा का जो एक शरीर से सम्‍बन्‍ध छूटकर दूसरे शरीर से सम्‍बन्‍ध होता है, उसमें उसे अत्‍यन्‍त कष्‍ट होता है; अतः उसके लिये शोक करना कैसे अनुचित है?

इस पर कहतें हैं– जैसे मनुष्‍य पुराने वस्‍त्रों को त्‍यागकर दूसरे नयें वस्‍त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्‍मा पुराने शरीरों को त्‍यागकर दूसरे नये शरीरों को प्राप्‍त होता है[7]। [सम्‍बन्‍ध- आत्‍मा का स्‍वरूप दुर्विज्ञेय होने के कारण पुनः तीन श्‍लोकों द्वारा प्रकारान्‍तर से उसकी नित्‍यता, निराकारता और निर्विकारता– का प्रतिपादन करते हुए उसके विनाश की आशंका से शोक करना अनुचित सिद्ध करते हैं– इस आत्‍मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकती।

क्‍योंकि यह आत्‍मा अच्‍छेद्य है; यह आत्‍मा अदाह्य, अल्केद्य और निःसंदेह अशोष्‍य है तथा यह आत्‍मा नित्‍य, सर्वव्‍यापी, अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन है यह आत्‍मा अव्‍यक्त है, वह आत्‍मा अचिन्‍तय है और वह आत्‍मा विकार रहित कहा जाता है। इससे से अर्जुन! इस आत्‍मा को उपर्युक्त प्रकार से जानकर तू शोक करने को योग्‍य नहीं है अर्थात तुझे शोक करना उचित नहीं है। सम्‍बन्‍ध– उपर्युक्त श्‍लोकों में भगवान ने आत्‍मा को अजन्‍मा और अविनाशी बतलाकर उसके लिये शोक करना अनुचित सिद्ध किया; अब दो श्‍लोकों द्वारा आत्‍मा को औपचारिक रूप से जन्‍मने–मरने वाला मानने पर भी उसके लिये शोक करना अनुचित है, ऐसा सिद्ध करते है– किन्‍तु यदि तू इस आत्‍मा को सदा जन्‍मने वाला तथा सदा मरने वाला मानता हो, तो भी हे महाबाहो! तू इस प्रकार शोक करने को योग्‍य नहीं है। क्‍योंकि इस मान्‍यता के अनुसार जन्‍मे हुए की मृत्‍यु निश्चित है।[8] इससे भी इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने को योग्‍य नहीं है।

सम्‍बन्‍ध– अब अगले श्‍लोक में यह सिद्ध करते हैं कि प्राणियों के शरीरों को उद्देश्‍य करके भी शोक करना नहीं बनता– हे अर्जुन! सम्‍पूर्ण प्राणी जन्‍म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं, केवल बीच में ही प्रकट हैं; फिर ऐसी स्थिति में क्‍या शोक करना है? सम्‍बन्‍ध- आत्‍मतत्त्व अत्‍यन्‍त दुर्बोध होने के कारण उसे समझाने के लिये भगवान ने उपुर्यक्त श्‍लोंकों द्वारा भिन्‍न–भिन्‍न प्रकार से उसके स्‍वरूप का वर्णन किया; अब अगले श्‍लोक में उस आत्‍मतत्त्‍व के दर्शन, वर्णन और श्रवण की अलौकिकता और दुर्लभता का निरूपण करते हैं– कोई एक महापुरुष ही इस आत्‍मा को आश्‍चर्य की भाँति देखता है[9] और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्त्‍व का आश्‍चर्य की भाँति वर्णन करता है[10] तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्‍चर्य की भाँति सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता है[11]। हे अर्जुन! यह आत्‍मा सबके शरीर में सदा ही अवध्‍य है। इस कारण सम्‍पूर्ण प्राणियों के लिये तू शोक करने के योग्‍य नहीं है।[12]

हे पार्थ! अपने-आप प्राप्‍त हुए और खुले हुए स्‍वर्ग के द्वाररूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्‍यवान क्षत्रिय लोग ही पाते हैं। यदि तु इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्‍वधर्म और कीर्ति‍ को खोकर पाप को प्राप्त होगा। तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिये अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है। और जिनकी दृष्टि में तू पहले बहुत सम्‍मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे। तेरे वैरी लोग तेरे सामर्थ्‍य की निन्‍दा करते हुए तुझे बहुत से न कहने योग्‍य वचन भी कहेंगे; उससे अधिक दु:ख और क्‍या होगा? या तो युद्ध में मारा जाकर स्‍वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्‍वी का राज्‍य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन! तू युद्ध के लिये निश्चय करके खड़ा हो जा। सम्‍बन्‍ध– उपर्युक्त श्‍लोक में भगवान ने युद्ध का फल राज्‍यसुख या स्‍वर्ग की प्राप्ति तक बतलाया, किंतु अर्जुन ने तो पहले ही कह दिया था कि इस लोक के राज्‍य की तो बात ही क्‍या है, मैं तो त्रिलोकी के राज्‍य के भी अपने कुल का नाश नहीं करना चाहता; अत: जिसे राज्‍यसुख और स्‍वर्ग की इच्‍छा न हो उसको किस भाव से युद्ध करना चाहिये, यह बात अगले श्‍लोक में बतलायी जाती है– जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दु:ख को समान समझकर उसके बाद युद्ध के लिये तैयार हो जा, इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा। सम्‍बन्‍ध- यहाँ तक भगवान ने सांख्‍ययोग के सिद्धान्‍त से तथा क्षात्रधर्म की दृष्टि से युद्ध का औचित्‍य सिद्ध करके अर्जुन को समता-पूर्वक युद्ध करने के लिये आज्ञा दी; अब कर्मयोग के सिद्धान्‍त से युद्ध का औचित्‍य बतलाने के लिये कर्मयोग के वर्णन की प्रस्‍तावना करते हैं।[13]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 26 श्लोक 1-9
  2. तत्त्व को जानने वाले महापुरुषों द्वारा असत् और सत् का विवेचन करके जो यह निश्‍चय कर लेना है कि जिस वस्‍तु का परिवर्तन और नाश होता है, जो सदा नहीं रहती, वह असत् है– अर्थात असत् वस्‍तु का विद्यमान रहना सम्‍भव नहीं और जिसका परिवर्तन और नाश किसी भी अवस्‍था में किसी भी निमित्त से नहीं होता, जो सदा विद्यमान रहती है, वह सत् है– अर्थात सत् का कभी अभाव होता ही नहीं – यही तत्त्‍वदर्शी पुरुषों द्वारा उन दोनों का तत्त्‍व देखा जाना है।
  3. पूर्व श्‍लोक में जिस “सत्” तत्त्व से समस्‍त जड़वर्ग को व्‍याप्‍त बतलाया गया है, उसे “शरीरी” कहकर तथा शरीरों के साथ उसका सम्‍बन्‍ध दिखलाकर आत्‍मा और परमात्मा की एकता का प्रतिपादन किया गया है। अभिप्राय यह है कि व्‍यावहारिक द्दष्टि से जो भिन्‍न-भिन्‍न शरीरों को धारण करने वाले, उनसे सम्‍बन्‍ध रखने वाले भिन्‍न-भिन्‍न आत्‍मा प्रतीत होते हैं, वे वस्तुतः भिन्‍न-भिन्‍न नहीं हैं, सब एक ही चेतन तत्त्‍व है; जैसे निद्रा के समय स्‍वप्‍न की सृष्टि में एक पुरुष के सिवा कोई वस्‍तु नहीं होती, स्‍वप्‍न का समस्‍त नानात्‍व निद्राजनित होता है, जागने के बाद पुरुष एक ही रह जाता है, वैसे ही यहाँ भी समस्‍त नानात्‍व अज्ञानजनित है, ज्ञान के अनन्‍तर कोई नानात्‍व नहीं रहता ।
  4. इस श्लोक में छहों विकारों का अभाव इस प्रकार दिखलाया गया है– आत्‍मा को “अजः” (अजन्‍मा) कहकर उसमें “उत्‍पत्ति” रूप विकार का अभाव बतलाया है। “अयं भूत्‍वा भूयः न भविता” अर्थात यह जन्‍म लेकर फिर सत्ता वाला नहीं होता, बल्कि स्‍वभाव से ही सत् है– यह कहकर “अस्तित्‍व” रूप विकार का, “पुराणः” (चिरकालीन और सदा एकरस रहने वाला) कहकर “वृद्धि” रूप विकार का, “शाश्वतः” (सदा एकरूप में स्थित) कहकर “विपरिणाम” का, “नित्यः” (अखण्‍ड सत्ता वाला) कहकर “क्षय” का और “शरीरें हन्‍यमाने न हन्‍यते” (शरीर के नाश से इसका नाश नहीं होता)– यह कहकर “विनाश” का अभाव दिखलाया है।
  5. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 26 श्लोक 10-20
  6. आत्‍मा को अविकार्य कहकर अव्‍यक्त प्रकृति से उसकी विलक्षणता का प्रतिपादन किया गया है। अभिप्राय यह है कि समस्‍त इन्द्रियों और अन्‍त:करण प्रकृति के कार्य है, वे अपनी कारणरूपा प्रकृति को विषय नहीं कर सकते, इसलिये प्रकृति भी अव्‍यक्त और अचिन्‍त्‍य है; किंतु वह निर्विकार नहीं है, उसमें विकार होता है और आत्‍मा में कभी किसी भी अवस्‍था में विकार नहीं होता। अतएव प्रकृति से आत्‍मा अत्‍यन्‍त विलक्षण है।
  7. वास्‍तव में अचल और अक्रिय होने के कारण आत्‍मा का किसी भी हालत में गमागमन नहीं होता। पर जैसे घड़े को एक मकान से दूसरे मकान में ले जाने के समय उसके भीतर के आकाश का अर्थात घटाकाश का भी घट के सम्‍बन्‍ध से गमागमन सा प्रतीत होता है, वैसे ही सूक्ष्‍म शरीर का गमागमन होने से उसके सम्‍बन्‍ध से आत्‍मा में भी गमागमन की प्रतीति होती है। अतएव लोगों को समझाने के लिये आत्‍मा में गमागमन की औपचारिक कल्‍पना की जाती है।
  8. भगवान का यह कथन उन अज्ञानियों की दृष्टि में है, जो आत्‍मा का जन्‍मना-मरना नित्‍य मानते हैं। उनके मतानुसार जो मरणधर्मा है, उसका जन्‍म होना निश्चित ही है; क्‍योंकि उस मान्‍यता में किसी की मुक्ति नहीं हो सकती। जिस वास्‍तविक सिद्धान्‍त में मुक्ति मानी गयी है, उसमें आत्‍मा को जन्‍मने-मरने वाला भी नहीं माना गया है, जन्‍मना-मरना सब अज्ञानजनित है।
  9. जैसे मनुष्‍य लौकिक दृश्‍य वस्‍तुओं को मन, बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा इदंबुद्धि से देखता है, आत्‍मदर्शन वैसा नहीं है; आत्‍मा का देखना अद्भुत और अलौकिक है। जब एकमात्र चेतन आत्‍मा से भिन्‍न किसी की सत्ता ही नहीं रहती, उस समय आत्‍मा स्‍वयं अपने द्वारा ही अपने को देखता है। उस दर्शन में दृष्टा, दृश्‍य और दर्शन की त्रिपुटी नहीं रहती, इसलिये वह देखना आश्चर्य की भाँति है।
  10. जितने भी उदाहरणों से आत्‍मतत्त्‍व समझाया गया है, उनमें कोई भी उदाहरण पूर्णरूप से आत्‍मतत्त्‍व को समझाने वाला नहीं है। उसके किसी अंश को ही उदाहरणों द्वारा समझाया जाता है; क्‍योंकि आत्‍मा के सदृश अन्‍य कोई वस्‍तु है ही नहीं, इस अवस्‍था में कोई भी उदाहरण पूर्णरूप से कैसे लागू हो सकता है? तथापि बहुत-से आश्चर्यमय संकेतों द्वारा महापुरुष उसका लक्ष्‍य कराते है, यही उनका आश्चर्य की भाँति वर्णन करना है। वास्‍तव में आत्‍मा वाणी का अविषय होने के कारण स्‍पष्ट शब्‍दों में वाणी द्वारा उसका वर्णन नहीं हो सकता।
  11. जिसके अन्‍त:करण में पूर्ण श्रद्धा और आस्तिक भाव नहीं होता, जिसकी बुद्धि शुद्ध और सूक्ष्‍म नहीं होती– ऐसा मनुष्‍य इस आत्‍मतत्त्‍व को सुनकर भी संशय और विपरित भावना के कारण इसके स्‍वरूप को यथार्थ नहीं समझ सकता; अतएव इस आत्‍मत्त्‍व का समझना अनधिकारी के लिये बड़ा ही दुलर्भ है।
  12. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 26 श्लोक 21-30
  13. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 26 श्लोक 31-40

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भीष्मवध पर्व
युधिष्ठिर का भीष्म, द्रोण आदि से अनुमति लेकर युद्ध हेतु तैयार होना | कौरव-पांडवों के प्रथम दिन के युद्ध का प्रारम्भ | उभय पक्ष के सैनिकों का द्वन्द्व युद्ध | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध | भीष्म के साथ अभिमन्यु का भयंकर युद्ध | शल्य द्वारा उत्तरकुमार का वध और श्वेत का पराक्रम | विराट के पुत्र श्वेत का महापराक्रम | भीष्म द्वारा श्वेत का वध | भीष्म का प्रचण्ड पराक्रम तथा प्रथम दिन के युद्ध की समाप्ति | युधिष्ठिर की चिंता और श्रीकृष्ण द्वारा उनको आश्वासन | धृष्टद्युम्न का उत्साह और क्रौंचारुण व्यूह की रचना | कौरव सेना की व्यूह रचना | कौरव-पांडव सेना में शंखध्वनि और सिंहनाद | भीष्म और अर्जुन का युद्ध | धृष्टद्युम्न और द्रोणाचार्य का युद्ध | भीमसेन का कलिंगों और निषादों से युद्ध | भीमसेन द्वारा शक्रदेव और भानुमान का वध | भीमसेन द्वारा कई गजराजों और केतुमान का वध | भीमसेन द्वारा कौरव सेना के असंख्य सैनिकों का वध | अभिमन्यु और अर्जुन का पराक्रम तथा दूसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडवों की व्यूह रचना | उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | पांडव वीरों का पराक्रम और कौरव सेना में भगदड़ | दुर्योधन और भीष्म का संवाद | भीष्म का पराक्रम | कृष्ण का भीष्म को मारने के लिए उद्यत होना | अर्जुन द्वारा कौरव सेना की पराजय और तीसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडव सेनाओं का व्यूह निर्माण | भीष्म और अर्जुन का द्वैरथ युद्ध | अभिमन्यु का पराक्रम | धृष्टद्युम्न द्वारा शल के पुत्र का वध | धृष्टद्युम्न और शल्य आदि दोनों पक्ष के वीरों का युद्ध | भीमसेन द्वारा गजसेना का संहार | भीमसेन का पराक्रम | सात्यकि और भूरिश्रवा की मुठभेड़ | भीमसेन और घटोत्कच का पराक्रम | कौरवों की पराजय तथा चौथे दिन के युद्ध की समाप्ति | धृतराष्ट्र-संजय प्रसंग में दुर्योधन का भीष्म से पांडवों की विजय का कारण पूछना | भीष्म का ब्रह्मा द्वारा की हुई भगवत-स्तुति का कथन | नारायणावतार श्रीकृष्ण एवं नरावतार अर्जुन की महिमा का प्रतिपादन | भगवान श्रीकृष्ण की महिमा | ब्रह्मभूतस्तोत्र तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन की महत्ता | कौरवों द्वारा मकरव्यूह तथा पांडवों द्वारा श्येनव्यूह का निर्माण | भीष्म और भीमसेन का घमासान युद्ध | भीष्म, अर्जुन आदि योद्धाओं का घमासान युद्ध | कौरव-पांडव सेनाओं का परस्पर घोर युद्ध | कौरव-पांडव योद्धाओं का द्वन्द्व युद्ध | भूरिश्रवा द्वारा सात्यकि के दस पुत्रों का वध | अर्जुन का पराक्रम तथा पाँचवें दिन के युद्ध की समाप्ति | पांडवों द्वारा मकरव्यूह तथा कौरवों द्वारा क्रौंचव्यूह का निर्माण | धृतराष्ट्र की चिन्ता | भीमसेन, धृष्टद्युम्न तथा द्रोणाचार्य का पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का संकुल युद्ध | भीमसेन के द्वारा दुर्योधन की पराजय | अभिमन्यु आदि का धृतराष्ट्रपुत्रों के साथ युद्ध तथा छठे दिन के युद्ध की समाप्ति | भीष्म द्वारा दुर्योधन को आश्वासन | कौरव-पांडव सेनाओं का मण्डल और वज्रव्यूह बनाकर भीषण संघर्ष | श्रीकृष्ण और अर्जुन से डरकर कौरव सेना में भगदड़ | द्रोणाचार्य और विराट का युद्ध तथा विराटपुत्र शंख का वध | शिखण्डी और अश्वत्थामा का युद्ध | सात्यकि द्वारा अलम्बुष की पराजय | धृष्टद्युम्न और दुर्योधन तथा भीमसेन और कृतवर्मा का युद्ध | इरावान द्वारा विन्द-अनुविन्द की पराजय | भगदत्त द्वारा घटोत्कच की पराजय | मद्रराज पर नकुल और सहदेव की विजय | युधिष्ठिर द्वारा राजा श्रुतायु की पराजय | महाभारत युद्ध में चेकितान और कृपाचार्य का मूर्छित होना | भूरिश्रवा से धृष्टकेतु तथा अभिमन्यु से चित्रसेन आदि की पराजय | सुशर्मा आदि से अर्जुन का युद्धारम्भ | अर्जुन का पराक्रम और पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | युधिष्ठिर का शिखण्डी को उपालम्भ | भीमसेन का पुरुषार्थ | भीष्म और युधिष्ठिर का युद्ध | धृष्टद्युम्न के साथ विन्द-अनुविन्द का संग्राम | द्रोण आदि का पराक्रम और सातवें दिन के युद्ध की समाप्ति | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं की रणयात्रा | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं का घमासान युद्ध | भीष्म का रणभूमि में पराक्रम | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के आठ पुत्रों का वध | दुर्योधन और भीष्म का युद्ध विषयक वार्तालाप | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध और भयानक जनसंहार | इरावान द्वारा शकुनि के भाइयों का वध | अलम्बुष द्वारा इरावान का वध | घटोत्कच और दुर्योधन का भयानक युद्ध | घटोत्कच का दुर्योधन एवं द्रोण आदि वीरों के साथ युद्ध | घटोत्कच की रक्षा के लिए भीमसेन का आगमन | भीम आदि शूरवीरों के साथ कौरवों का युद्ध | दुर्योधन और भीमसेन तथा अश्वत्थामा और राजा नील का युद्ध | घटोत्कच की माया से कौरव सेना का पलायन | भीष्म की आज्ञा से भगदत्त का घटोत्कच से युद्ध हेतु प्रस्थान | भगदत्त का घटोत्कच, भीमसेन और पांडव सेना के साथ युद्ध | इरावान के वध से अर्जुन का दु:खपूर्ण उद्गार | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के नौ पुत्रों का वध | अभिमन्यु और अम्बष्ठ का युद्ध | युद्ध की भयानक स्थिति का वर्णन और आठवें दिन के युद्ध की समाप्ति | दुर्योधन की शकुनि तथा कर्ण आदि के साथ पांडवों पर विजय हेतु मंत्रणा | दुर्योधन का भीष्म से पांडवों का वध अथवा कर्ण को युद्ध हेतु आज्ञा देने का अनुरोध | भीष्म का दुर्योधन को अर्जुन का पराक्रम बताना और भयंकर युद्ध की प्रतिज्ञा | दुर्योधन द्वारा भीष्म की रक्षा की व्यवस्था | उभयपक्ष की सेनाओं की व्यूह रचना तथा घमासान युद्ध | विनाशसूचक उत्पातों का वर्णन | अभिमन्यु के पराक्रम से कौरव सेना का युद्धभूमि से पलायन | अभिमन्यु तथा द्रौपदी के पुत्रों का अलम्बुष से घोर युद्ध | अभिमन्यु द्वारा अलम्बुष की पराजय | अर्जुन के साथ भीष्म का युद्ध | कृपाचार्य, द्रोणाचार्य तथा अश्वत्थामा के साथ सात्यकि का युद्ध | द्रोणाचार्य और सुशर्मा के साथ अर्जुन का युद्ध | भीमसेन द्वारा रणभूमि में गजसेना का संहार | कौरव-पांडव उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | रक्तमयी रणनदी का वर्णन | अर्जुन द्वारा त्रिगर्तों की पराजय | अभिमन्यु से चित्रसेन की पराजय | सात्यकि और भीष्म का युद्ध | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को भीष्म की रक्षा का आदेश | शकुनि की घुड़सवार सेना की पराजय | युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव के साथ शल्य का युद्ध | भीष्म द्वारा पराजित पांडव सेना का पलायन | भीष्म को मारने के लिए कृष्ण का उद्यत होना | अर्जुन द्वारा उद्यत हुए कृष्ण को रोकना | नवें दिन के युद्ध की समाप्ति | कृष्ण व पांडवों की गुप्त मंत्रणा | कृष्णसहित पांडवों का भीष्म से उनके वध का उपाय पूछना | उभयपक्ष की सेना का रण प्रस्थान व दसवें दिन के युद्ध का प्रारम्भ | शिखण्डी को आगे कर पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | शिखंडी एवं भीष्म का युद्ध | भीष्म-दुर्योधन संवाद | भीष्म द्वारा लाखों पांडव सैनिकों का संहार | अर्जुन के प्रोत्साहन से शिखंडी का भीष्म पर आक्रमण | दु:शासन का अर्जुन के साथ घोर युद्ध | कौरव-पांडव पक्ष के प्रमुख महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देना | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को धृष्टद्युम्न से युद्ध करने का आदेश | कौरव पक्ष के दस महारथियों के साथ भीम का घोर युद्ध | कौरव महारथियों के साथ भीम और अर्जुन का अद्भुत पुरुषार्थ | भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण | कौरव-पांडव सैनिकों का भीषण युद्ध | कौरव-पांडव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | भीष्म का अद्भुत पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का युद्ध तथा दु:शासन का पराक्रम | अर्जुन के द्वारा भीष्म का मूर्च्छित होना | भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार | अर्जुन का भीष्म को रथ से गिराना | शरशय्या पर स्थित भीष्म के पास ऋषियों का आगमन | भीष्म द्वारा उत्तरायण की प्रतीक्षा कर प्राण धारण करना | भीष्म की महत्ता | अर्जुन द्वारा भीष्म को तकिया देना | उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना एवं कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद | अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना | अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद

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