उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध

महाभारत भीष्म पर्व में भीष्मवध पर्व के अंतर्गत 57वें अध्याय में 'संजय द्वारा उभय पक्ष की सेनाओं के घमासान युद्ध का वर्णन' दिया हुआ है, जो इस प्रकार है[1]-

संजय द्वारा उभय पक्ष की सेनाओं के घमासान युद्ध का वर्णन करना

संजय कहते हैं- भारत! आपकी और पाण्डवों की पूर्वोक्त रूप से व्यूह रचना सम्पन्न हो जाने पर अर्जुन ने आपके रथियों की सेना का संहार आरम्भ किया। वे अतिरथी वीर थे। उन्होंने अपने बाणों द्वारा युद्ध-स्थल में रथयूथपतियों को विदीर्ण करके यमलोक भेज दिया। युगान्त में काल के समान उस युद्ध में कुन्‍तीकुमार अर्जुन के द्वारा आपके सैनिकों का भयंकर विनाश हो रहा था, तो भी वे यत्नपूर्वक पाण्डवों के साथ युद्ध करते रहे। वे उज्ज्वल यश प्राप्त करना चाहते थे। अतः यह निश्‍चय करके कि अब मृत्यु ही हमें युद्ध से निवृत कर सकती है, एकाग्रचित्त होकर युद्ध में डटे रहे। राजन! उन्‍होंने युद्ध में ऐसी तत्परता दिखायी कि बार-बार पाण्डव-सेना को तितर-बितर कर दिया। तदनन्तर क्षत-विक्षत होकर भागते और पुनः लौटकर सामना करते हुए पाण्डवों तथा कौरवों के सैनिकों को कुछ भी सूझ नहीं पड़ता था। भूतल से इतनी धूल उड़ी कि सूर्य देव आच्छादित हो गये। दिशा और प्रदिशा का कुछ भी पता नहीं चलता था। वैसी दशा में वहाँ युद्ध करने वाले लोग कैसे किसी पर प्रहार करें। प्रजानाथ! उस रणक्षेत्र में अनुमान से, संकेतों से तथा नाम और गोत्रों के उच्‍चारण से अपने या पराये पक्ष का निश्चय करके जहाँ-तहाँ युद्ध हो रहा था। सत्यप्रतिज्ञ भरद्वाजनन्दन द्रोणाचार्य के द्वारा सुरक्षित होने के कारण कौरव सेना का व्यूह किसी प्रकार भंग न हो सका। इसी तरह सव्यसाची अर्जुन और भीम से सुरक्षित पाण्डवों के महाव्यूह का भी भेदन न हो सका। वहाँ सेना के अग्रभाग से भी निकलकर (व्यूह छोड़कर) वीर सैनिक युद्ध करते थे। राजन! दोनों सेनाओं के रथ और हाथी परस्पर भिड़ गये। उस महासमर में घुड़सवार घुड़सवारों को चमकीली ऋष्टियों और प्रासों द्वारा मार गिराते थे। वह संग्राम अत्यन्त भयानक हो रहा था। उसमें रथी रथियों के सामने जाकर उन्हें स्वर्णभूषित बाणों से मार गिराते थे। आपके और पाण्डव पक्ष के हाथी सवार अपने से भिड़े हुए विपक्षी हाथी सवारों को सब ओर से नाराच, बाण और तोमरों की मार से धराशायी कर देते थे। कोई योद्धा रणक्षेत्र में उछलकर बड़े-बड़े़ हाथियों पर चढ़ जाता और विपक्षी योद्धा के केशों को पकड़कर उसका सिर काट लेता था।

बहुत-से वीर युद्धस्थल में हाथियों के दांतों के अग्रभाग से अपना हृदय विदीर्ण हो जाने के कारण सब ओर लंबी साँस खींचते हुए मुख से रक्त वमन कर रहे थे। कोई रणविशारद वीर हाथी के दांतों पर खड़ा होकर युद्ध कर रहा था। इतने ही में गजशिक्षा और अस्त्र विद्या के ज्ञाता किसी विपक्षी योद्धा ने उसके ऊपर शक्ति चला दी। उस शक्ति के आघात से वक्षःस्थल विदीर्ण हो जाने के कारण वह मरणोन्मुख वीर वहीं कांपने लगा। हर्ष और उल्लास में भरकर एक दूसरे का अपराध करने वाले पैदल समूह विपक्ष के पैदल सैनिकों को भिन्दिपाल और फरसों से मार-मारकर रणभूमि में गिरा रहे थे। राजन! उस समरभूमि में कोई रथी किसी गजयूथपति से भिड़ जाता और सवार तथा हाथी दोनों को मार गिराता था। उसी प्रकार गजारोही भी रथियों में श्रेष्ठ वीर का वध कर देता था। भरतश्रेष्ठ! उस संग्राम में घुड़सवार रथी को तथा रथी घुड़सवार को प्रास द्वारा मारकर धराशायी कर देता था।[1] दोनों ही सेनाओं में पैदल वीर रथी को और रथी योद्धा पैदल सैनिक को अपने तीखे अस्त्र-शस्त्रों द्वारा रणभूमि में मार गिराता था। हाथी सवार घुड़सवारों को और घुड़सवार हाथी सवारों को युद्धस्थल में गिरा देते थे। ये घटनाएं आश्चर्यजनक-सी प्रतीत होती थीं। उस रणक्षेत्र में जहाँ-तहाँ श्रेष्ठ गजारोहियों द्वारा गिराये हुए पैदल और पैदलों द्वारा गिराये हुए हाथी सवार दृष्टिगोचर हो रहे थे। घुड़सवारों द्वारा पैदलों के समूह और पैदलों द्वारा घुड़सवारों के समूह सैकड़ों और हजारों की संख्या में गिराये जाते हुए दिखायी देते थे। भरत श्रेष्ठ! वहाँ इधर-उधर गिरे हुए ध्वज, धनुष, तोमर, प्रास, गदा, परिघ, कम्पन, शक्ति, विचित्र कवच, कणप, अंकुश, चमचमाते हुए खड्ग, सुवर्णमय पांख वाले बाण, शूल, गद्दी और बहुमूल्य कम्बलों द्वारा आच्छादित हुई वहाँ की भूमि भाँति-भाँति के पुष्पहारों से चित्रित हुई-सी जान पड़ती थी। उस महासमर में मनुष्यों, घोड़ों और हाथियों की लाशें पड़ी हुई थीं। मांस और रक्त की कीचड़ जम गयी थी।[2]

वहाँ की भूमि में जाना असम्भव हो गया था। जनेश्वर! रणभूमि में बहे हुए रक्त से सिंचकर धरती की धूल बैठ गयी और सारी दिशाएं साफ हो गयीं। भारत! उस समय जगत के विनाश को सूचित करने वाले असंख्य कबन्ध चारों ओर उठने लगे। उस अत्यन्त दारुण और महाभयंकर युद्ध में रथी योद्धा चारों ओर दौड़ते दिखायी देते थे। तदनन्तर भीष्म, द्रोण, सिन्धुराज जयद्रथ, पुरूमित्र, जय, भेज, शल्य और शकुनि- ये सिंहतुल्य पराक्रमी रणदुर्जय वीर पाण्डवों की सेना को बार-बार भंग करने लगे। भरतनन्दन! इसी प्रकार भीमसेन, राक्षस घटोत्कच, सात्यकि, चेकितान तथा द्रौपदी के पांचों पुत्र- ये सब मिलकर जैसे देवता दानवों को खदेड़ते हैं, उसी प्रकार समस्त राजाओं सहित आपके पुत्रों और सैनिकों को रणभूमि में भगाने लगे। संग्रामभूमि में एक-दूसरे को मारते हुए श्रेष्ठ क्षत्रिय वीर रक्तरंजित हो भयानक रूपधारी दानवों के समान सुशोभित होने लगे। दोनों सेनाओं के वीर शत्रुओं को जीतकर आकाश में फैले हुए विशाल ग्रहों के समान दिखायी देते थे। तदनन्तर आपका पुत्र दुर्योधन सहस्रों रथियों के साथ पाण्डववंशी राक्षस घटोत्कच के साथ युद्ध करने के लिए वहाँ आया। इसी प्रकार विशाल सेना के साथ समस्त पाण्डव भी युद्ध के लिये तैयार खडे़ हुए शत्रुदमन द्रोणाचार्य और भीष्म से भिड़ने के लिये आगे बढे़। क्रोध में भरे हुए किरीटधारी अर्जुन सब ओर खड़े हुए श्रेष्ठ राजाओं का सामना करने के लिए चले। अभिमन्यु और सात्यकि ने शकुनि की सेना पर आक्रमण किया। इस प्रकार युद्ध में विजय चाहने वाले आपके और पाण्‍डवों के सैनिकों में पुन: रोमान्चकारी संग्राम छिड़ गया।[2]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 57 श्लोक 1-19
  2. 2.0 2.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 57 श्लोक 20-40

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