शिखंडी एवं भीष्म का युद्ध

जब पाण्डवों ने शिखण्डी को सामने कर भीष्म पर आक्रमण किया और सात्यकि आदि महारथी कौरव सेना को पीड़ित करने लगे। तब अपनी सेना को नष्ट होते देख पितामह भीष्म सृंजयों की सेना का संहार करके शिखण्डी की सेना पर आक्रमण किया। तत्पश्चात भीष्म और शिखण्डी के मध्य युद्ध आरम्भ हो गया, जिसका वर्णन महाभारत भीष्म पर्व में भीष्मवध पर्व के अंतर्गत 108वें अध्याय में दिया गया है, जो इस प्रकार हैं[1]-

शिखण्डी एवं भीष्म का युद्ध

संजय कहते हैं- महाराज! भीष्म के द्वारा ताड़ित अपने सेना को देखकर शिखण्डी ने तीन बाणों से भीष्म की छाती में प्रहार किया। उस समय वे कालप्रेरित मृत्यु तथा क्रोध में भरे हुए विषधर सर्प के समान जान पड़ते थे। शिखण्डी के द्वारा अत्यन्त घायल हो भीष्म उसकी ओर देखकर अत्यन्त कुपित हो बिना इच्छा के हँसते हुए इस प्रकार बोले- अरे, तू इच्छानुसार प्रहार कर या न कर! मैं तेरे साथ किसी तरह युद्ध नहीं करूँगा। विधाता ने जिस रूप में तुझे उत्पन्न किया था, तू वही शिखण्डीनी है। उनकी यह बात सुनकर शिखण्डी क्रोध से मूर्च्छित-सा हो गया और अपने मुँह के कोनों को चाटता हुआ भीष्म से इस प्रकार बोला। क्षत्रियों का विनाश करने वाले महाबाहु भीष्म! मैं भी आपको जानता हूँ। मैंने सुना है कि आपने जमदग्निनन्दन परशुराम जी के साथ युद्ध किया था। आपका यह दिव्य प्रभाव बहुत बार मेरे सुनने में आया है। आपके उस प्रभाव को जानकर भी मैं आज आपके साथ युद्ध करूंगा। नरश्रेष्ठ! पुरुषप्रवर! आज पाण्डवों का और अपना भी प्रिय करने के लिये रणक्षेत्र में खूब डटकर आपका सामना करूंगा। मैं आपके सामने सत्य की शपथ खाकर कहता हूँ कि आज आपको निश्चय ही मार डालूँगा। मेरी यह बात सुनकर आपको जो कुछ करना हो, वह कीजिये। युद्धविजयी भीष्म जी! आप मुझ पर इच्छानुसार प्रहार कीजिये या न कीजिये; परंतु आज आप मेरे हाथ से जीवित नहीं छूट सकेंगे। अब इस संसार को अच्छी तरह देख लीजिये।

संजय कहते है- राजन! ऐसा कहकर शिखण्डी ने जिन्हें पहले वचनरूपी बाणों से पीड़ित किया था, उन्हीं भीष्म को झुकी हुई गाँठ वाले पाँच सायकों द्वारा घायल कर दिया।[1] उसके उस कथन को सुनकर महारथी सव्यसाची अर्जुन ने यह सोचकर कि यही इसके उत्साह बढ़ाने का अवसर है, शिखण्डी से इस प्रकार कहा- वीर! मैं बाणों द्वारा शत्रुओं को भगाता हुआ सदा तुम्हारा साथ दूँगा। अत: तुम भयंकर पराक्रमी भीष्म पर रोषपूर्वक आक्रमण करो। महाबाहो! युद्ध में महाबली भीष्म तुम्हें पीड़ा नहीं दे सकते, इसलिये आज यत्नपूर्वक इनके ऊपर धावा करो। आर्य! यदि समरभूमि में भीष्म को मारे बिना लौट जाओगे तो मेरे सहित तुम इस लोक में उपहास के पात्र बन जाओगे। वीर! इस महायुद्ध में जैसे भी हम लोग हंसी के पात्र न बने, वैसा प्रयत्न करो। रणक्षेत्र में पितामह भीष्म को अवश्य मार डालो।

महाबली वीर! इस युद्ध में मैं सब रथियों को रोककर सदा तुम्हारी रक्षा करता रहूँगा। तुम पितामह को मारने का कार्य सिद्ध कर लो। मैं द्रोणाचार्य, द्रोणपुत्र अश्वत्थामा, कृपाचार्य, दुर्योधन, चित्रसेन, विकर्ण, सिन्धुराज जयद्रथ, अवन्ती के राजकुमार विन्द-अनुविन्द, काम्बोजराज सुदक्षिण, शूरवीर भगदत्त, महाबली मगधराज, सोमदत्तपुत्र भूरिश्रवा, राक्षस अलम्बुष तथा त्रिगर्तराज सुशर्मा को रणक्षेत्र में सब महारथियों के साथ उसी प्रकार रोके रखूँगा, जैसे तटभूमि समुद्र को आगे बढ़ने नहीं देती है। युद्ध में एक साथ लगे हुए समस्त महाबली कौरवों को भी मैं युद्धस्थल में आगे बढ़ने से रोक दूँगा। तुम पितामह भीष्म का वध का कार्य सिद्ध करो।[2]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 108 श्लोक 26-50
  2. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 108 श्लोक 51-60

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भूमि पर्व
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भीष्मवध पर्व
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