घटोत्कच का दुर्योधन एवं द्रोण आदि वीरों के साथ युद्ध

महाभारत भीष्म पर्व में भीष्मवध पर्व के अंतर्गत 92वें अध्याय में 'घटोत्कच का दुर्योधन एवं द्रोण आदि वीरों के साथ भयंकर युद्ध करने' का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]

घटोत्‍कच का पराक्रम

संजय कहते हैं- राजन्! दानवों के लिये भी दुःसह उस बाण वर्षा को राजाधिराज दुर्योधन ने युद्ध में उसी प्रकार धारण किया, जैसे महान गजराज जल की वर्षा को अपने ऊपर धारण करता है। भरतश्रेष्ठ! उस समय क्रोध में भरकर फुफकारते हुए सर्प के समान लंबी साँस खींचता हुआ आपका पुत्र दुर्योधन जीवन रक्षा को लेकर भारी संशय में पड़ गया। उसने अत्यन्त तीखे पचीस नाराच छोड़े। महाराज! वे सब सहसा उसे राक्षसराज घटोत्कच पर जाकर गिरे, मानो गन्धमादन पर्वत पर क्रोध में भरे हुए विषधर सर्प कहीं से आ पड़े हो। उन बाणों से घायल होकर वह राक्षस कुम्भस्थल से मद की धारा बहाने वाले गजराज की भाँति अपने शरीर से रक्त की धारा प्रवाहित करने लगा। उसने राजा दुर्योधन का विनाश करने के लिये दृढ़ निश्चय कर लिया। तत्पश्चात् उसने पर्वतों को भी विदीर्ण कर डालने वाली प्रज्वलित उल्का एवं वज्र के समान प्रकाशित होने वाली एक महाशक्ति हाथ में ली। महाबाहु घटोत्कच आपके पुत्र को मार डालने की इच्छा से वह शक्ति ऊपर को उठा रहा था। उसे उठी हुई देख वंग देश के राजाओं ने बड़ी उतावाली के साथ अपने पर्वताकार गजराज को उस राक्षस की ओर बढ़ाया। वे वंग नरेश उस शीघ्रगामी महाबली गजराज पर आरूढ़ हो युद्ध के मैदान में उसी मार्ग पर चले, जहाँ दुर्योधन का रथ खड़ा था। उन्होंने अपने हाथी के द्वारा आपके पुत्र का मार्ग रोक दिया। महाराज! बुद्धिमान वंग नरेश के द्वारा दुर्योधन के रथ का मार्ग रुका हुआ देख घटोत्कच के नेत्र क्रोध से लाल हो गये। उसने उस उठायी हुई महाशक्ति को उस हाथी पर ही चला दिया। राजन्! घटोत्कच की भुजाओं से छूटी हुई उस शक्ति के आघात से हाथी का कुम्भस्थल फट गया और उससे रक्त का स्त्रोत बहने लगा। फिर वह तत्काल ही भूमि पर गिरा और मर गया। हाथी के गिरते समय बलवान वंगनरेश उसकी पीठ से वेगपूर्वक कूदकर धरती पर आ गये। उस श्रेष्ट गजराज को गिरा हुआ देख सारी कौरव सेना भाग खड़ी हुई।

यह सब देखकर दुर्योधन के मन में बड़ी व्यथा हुई। वह घटोत्कच के पराक्रम दृष्टिपात करके उसका सामना करने में असमर्थ हो गया। क्षत्रिय धर्म तथा अपने अभिमान को सामने रखकर पलायन का अवसर प्राप्त होने पर भी राजा दुर्योधन पर्वत की भाँति अविचल भाव से खड़ा रहा। तत्पशचात उसने प्रलय काल की अग्नि के समान तेजस्वी एवं तीखे बाण को धनुष पर रखकर उसे अत्यन्त क्रोधपूर्वक उस घोर निशाचर पर छोड़ दिया। इन्द्र के वज्र के समान प्रकाशित होने वाले उस बाण को अपनी ओर आता देख महामना राक्षस घटोत्कच ने अपनी फुर्ती के कारण अपने आपको उससे बचा लिया। इसके बाद क्रोध से आँखें लाल करके वह पुनः भयंकर गर्जना करने लगा। जैसे प्रलयकाल में संवर्तक मेघ की गर्जना होती है, वैसी ही गर्जना करके उसने कौरव सेना को दहला दिया।

भीष्म द्वारा अन्य योद्धाओं को दुर्योधन की सहायता के लिये कहना

उस भयानक राक्षस की वह घोर गर्जना सुनकर शान्तनुनन्दन भीष्म ने द्रोणाचार्य के पास जाकर इस प्रकार कहा- आचार्य! यह राक्षस के मुख से निकली हुई घोर गर्जना सुनायी दे रही है, उससे अनुमान होता है कि अवश्य ही हिडिम्बाका पुत्र घटोत्कच राजा दुर्योधन के साथ जूझ रहा है।[1] इसे कोई भी प्राणी संग्राम में जीत नहीं सकता, अतः आपका कल्याण हो, वहाँ जाइये और राजा दुर्योधन की रक्षा कीजिये। जान पड़ता है महाभाग दुर्योधन उस महाकाय राक्षस के आक्रमण का शिकार हो रहा है। शत्रुओं को संताप देने वाले वीरों! आपके तथा हमसब लोगों के लिये यही सर्वोत्तम कृत्य है। भीष्म की यह बात सुनकर सब महारथी उत्तम वेग का आश्रय ले बड़ी उतावली के साथ उस स्थान पर गये, जहाँ कुरुराज दुर्योधन मौजूद था। द्रोणाचार्य, सोमदत्त, बाह्लीक, जयद्रथ, कृपाचार्य, भूरिश्रवा, शल्य, अवन्ती का का राजकुमार, बृहद्वल, अश्वत्थामा, विकर्ण, चित्रसेन, विविंशति तथा उनके अनुयायी अनेक सहस्र रथी- ये सब लोग राक्षस के द्वारा आक्रान्त हुए आपके पुत्र दुर्योधन की रक्षा करने के लिए गये। उन महारथियों से पालित होकर वह सेना अजेय हो गई।[2]

घटोत्कच का कौरव योद्धाओं के साथ युद्ध

युद्ध में आततायी दुर्योधन को आते देख राक्षस शिरोमणि महाबाहु घटोत्कच मैनाक पर्वत की भाँति अविचल भाव से खड़ा रहा। उसके जाति-बन्धु हाथों में शूल, मुद्रर आदि नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लेकर उसे सब ओर से घेरे हुए थे और उसने एक विशाल धनुष ले रखा था। तदनन्तर राक्षस शिरोमणि घटोत्कच तथा दुर्योधन की सेना में रोमान्चकारी एवं भयंकर युद्ध होने लगा। महाराज! रणभूमि में सब ओर बाँसों के दग्ध होने के समान धनुषों की टंकार का भयंकर शब्द सुनायी देने लगा। राजन्! देहधारियों के कवचों पर पड़ने वाले अस्त्रों का ऐसा शब्द होता था, मानो पर्वत विदीर्ण हो रहे हों। प्रजानाथ! वीरों की भुजाओं से छोड़े गये तोमर जब आकाश में आते, उस समय उनका स्वरूप तीव्रगति से उड़ने वाले सर्पों के समान जान पड़ता था। तदन्तर महाबाहु राक्षस राज घटोत्कच ने अत्यन्त क्रुद्ध हो भैरव गर्जना करते हुए अपने विशाल धनुष को खींचकर अर्धचन्द्राकार बाण से द्रोणाचार्य के धनुष को काट डाला।

फिर एक भल्ल के द्वारा सोमदत्त के ध्वज को खण्डित करके सिंहनाथ किया। तत्पश्चात् तीन बाणों से बाह्लीक की छाती में गहरी चोट पहुँचायी। एक बाण से कृपाचार्य और तीन से चित्रसेन को भी बींध डाला। इसके बाद उसने धनुष को पूर्णरूप में खींचकर उस पर उत्तम रीति से बाणों का संधान करके विकर्ण के गले की हँसली में गहरी चोट पहुँचायी। इससे विकर्ण अपने रथ से पिछले भाग में व्याकुल होकर बैठ गया, उसका सारा शरीर रक्त से नहा उठा था। भरत श्रेष्ठ! तत्पश्चात् अमेय आत्मबल से सम्पन्न घटोत्कच ने क्रुद्ध होकर भूरिश्रवा पर पंद्रह नाराच चलाये। वे नाराच उसके कवच को छिन्न-भिन्न करके शीघ्र ही धरती में समा गये। साथ ही घटोत्कच ने विविंशति और अश्वत्थामा के सारथियों पर गहरा आघात किया। वे दोनों घोड़ों की बागडोर छोड़कर रथ की बैठक में गिर पड़े। महाराज! उसने एक अधचन्द्राकार बाण से सिन्धुराज जयद्रथ की वाराहचिन्‍ह युक्त सुवर्णभूषित ध्वजा काट डाली और दूसरे बाण से उसके धनुष के दो टुकडे़ कर दिये। इसके बाद क्रोध से लाल आँखें करके घटोत्कच ने चार नाराचों द्वारा महामना अवन्ती नरेश के चारों घोड़ों को मार डाला। राजेन्द्र! तदनन्तर धनुष को पूर्णरूप में खींचकर छोड़े गये पानीदार तीखे बाण से उसने राजकुमार बृहद्वल को विदीर्ण कर दिया। उस बाण से वह गहराई तक बिंध गया और व्यथित होकर रथ के पिछले भाग में जा बैठा। इधर राक्षसराज घटोत्कच अत्यन्त क्रोध से आविष्ट हो रथ पर बैठा रहा। महाराज! रथ पर बैठे-ही-बैठे उसने विषधर सर्पों के समान अत्यन्त तीखे बाण चलाये। उन बाणों ने युद्ध विशारद राजा शल्य को पूर्ण रूप से घायल कर दिया।[2]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 92 श्लोक 1-19
  2. 2.0 2.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 92 श्लोक 20-43

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